बुधवार, 26 दिसंबर 2012

जलवायु परिवर्तन: धरती की पुकार

हम कैसी पृथ्वी चाहते है? न विश्व और न ही भारत इस दिशा में सोचने को तैयार है।
पृथ्वी की दशा कैसी हो रही है? इसका चित्रण अगर पर्यवारंविद सुदरलाल बहुगुणा के शब्दों में किया जाए तो यह 1943 में पड़े बंगाल के उस आकाल की माँ की तस्वीर जैसी है जिसमें वह मृत्यु शय्या पर लेटे हुए भी अपने बच्चे को दूध पिला रही है। इसका मतलब धरती माँ की स्थिति भी उस माँ की तरह है जो मरते हुए भी अपने बच्चों की भूख संसाधनों से मिटाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बच्चे हैं की धरती की पीड़ा सुनने को तैयार नहीं!!

   धरती की बदलती आवो-हवा के बीच पर्यावरण को बचाने की पहली कोशिश 1972 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में जिनेवा में हुयी। उसमे सभी देशों के प्रमुखों ने भाग लिया, भारत की तरफ से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने गरीबी को सबसे बड़ा प्रदूषण बताया और कहा कि पर्यावरण सरक्षण के नाम पर गरीबी मिटाने के लक्ष्य को एक तरफ नहीं रखा जा सकता। इस सम्मलेन के बाद ही पर्यावंरण का मुद्दा पहली बार वैश्विक मंच पर उठाया गया था।
1985 में पर्यावरण परिवर्तन पर पहला महत्वपूर्ण सम्मलेन ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में हुआ जिसमें ये चेतावनी दी गयी की ग्रीन हाउस गैसों की वजह से तापमान बढ़ रहा है और 2050 तक समुद्री जल स्तर 1 मीटर तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर एक व्यवस्थित रोडमैप पर आगे बढ़ने के लिए 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) नाम से एक संधि हुयी जिसमे पर्यावरण के लिए हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों को हानिकारक स्तर से नीचे रखने के लिए बात की गयी। इस सम्मलेन को अर्थ समिट (पृथ्वी सम्मलेन) के नाम से भी जाना जाता है, इसी में भविष्य के लिए 'एजेंडा 21' को भी स्वीकार किया गया। तब से अब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर UNFCCC  के अंतर्गत 18 सम्मलेन हो चुके हैं। इन्हें कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीस (COP) के नाम से जाना जाता है। पर्यावरण के मुद्दे को एक बार फिर से जीवित करने का श्रैय कोपनहेगन सम्मलेन को है। इस सम्मलेन में अमेरिका और बेसिक(ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन) देशोंके बीच एक गैर-बाध्यकारी समझौता हुआ, जिसका महत्वपूर्ण लक्ष्य दुनिया के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश इस सीमा को 1.5 तक ही सीमित करना चाहते हैं। इसी सम्मलेन में 2020 तक 44गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड तक उत्सर्जन की बात कही गयी थी लेकिन जैसा अभी चल रहा है उससे ये 55-56 गीगा टन तक पहुँच सकता है। विश्वबैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2100 तक दुनिया का तापमान 4 डिग्री तक बढ़ने की संभावना है, साथ में ये चेतावनी दी है की अगर विभिन्न देशों की सरकारों ने प्रभावकारी कदम नहीं उठाये तो तापमान बढ़ने की ये सीमा 2060 में ही पहुँच जायेगी। अन्य संस्थाओं के अनुमाओं के अनुसार ये बृद्धि 6 डिग्री तक हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने के लिए अंतिम 18वां सम्मलेन दिसंबर के बीच क़तर की राजधानी दोहा में हुआ। पिछला सम्मलेन दक्षिण अफ्रीका के डरबन में हुया था जिसमें किसी समझौते पर बात न बनते हुए सिर्फ बहस को जारी रखने पर सहमती बन पायी थी।
दुनिया के नेता जलवायु परिवर्तन को लेकर कितने गंभीर है इस बात का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि दोहा में दुनिया के अग्रणी देशों के नेताओं में से कोई इसमें भाग लेने नहीं गया था, भारत की तरफ से पर्यावरण मंत्रालय के सचिव ने प्रतिनिधित्व किया।
 दोहा के इस सम्मलेन में एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों  की कटौती पर कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो सका है।  विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक सहायता के लिए $100 के फंड पर भी बात हुयी लेकिन कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं बन पाया।
सम्मलेन की उपलब्धि/प्रगति के नाम पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि 2020 तक बढ़ा दी गयी है। क्योटो प्रोटोकाल 1997 में हुयी एक मात्र संधि है जो 1990 को आधार वर्ष मानकर 37 ओउद्योगिक देशों पर 16 फरबरी 2005 से 5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन पर कटौती को लागू करती है। अमेरिका इस संधि में शुरू से से शामिल नहीं रहा और कनाडा 2011 में इस सन्धि से अलग हो गया। इस संधि में सबसे बड़ी खामी यह है कि उत्सर्जन कटौती को जाचने के लिए कोई स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय निकाय नहीं है। किसी देश ने कटौती का लक्ष्य कितना हासिल किया है, इसे वह देश स्वयं ही देखता है।
वर्तमान में इस संधि को ही आगे बढ़ने से कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्यों कि-एक, 1990 से 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत से अधिक बृद्धि हो चुकी है ऐसे में 1990 को आधार वर्ष मान कर कटौती करना मांग के अनुरूप वेहद कम है। दूसरा, इस संधि में शामिल 36 देशों का कुल उत्सर्जन मात्र 15 प्रतिशत है। वर्तमान में सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका, चीन और भारत इससे बाहर है। अमेरिका का मानना है की वह अपने नागरिकों के जीवन शैली से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता। भारत और चीन जैसे देश कम प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन और गरीबी का हवाला देकर किसी भी बाध्यकारी समझौते का विरोध करते हैं।
अब सवाल उठता है क्या क्या वास्तव में पर्यावरण सुरक्षा से ज्यादा जरूरी जीवन शैली है??
        भारत के सन्दर्भ में देखें तो हमारी जनसंख्या स्थरीकरण का लक्ष्य एक झटके में वर्ष 2045 से 2070 हो जाता है, ऐसे में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन तो कम होना ही है!
अपनी एक अक्षमता का फायदा उठाकर हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहें है। चीन का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 5.8 मीट्रिक टन है जो भारत के 1.7 मीट्रिक टन से पर्याप्य ज्यादा है। वह विकासशील देशों की आड़ लेकर पर्यावरण के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। हम सभी पर्यावरण को इस स्तर तक दूषित करने के लिए औद्योगीकृत पश्चिमी देशों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन सभी ने विकास के लिए वही पश्चमी पूंजीवादी माडल अपनाया हुआ है। मतलब वो दोषी है, लेकिन हम भी विकास करने के लिए उसी रास्ते पर चल रहे हैं, उन्ही की गलती को दोहरा रहे हैं। जो न सिर्फ मानव जगत के अस्तित्व लिए हानिकरक है बल्कि भारत की विश्व शांति की व्यापक संकल्पना के विरूद्ध है।

    वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञ और विभिन्न देशों में भारत के राजदूत रहे जे एन दीक्षित अपनी किताब भारतीय विदेश नीति में विदेश नीति के आधार भूत तत्वों को बताते हुए विवेकानंद, महात्मा गाँधी और नेहरु को उद्धृत करते हुए कहते हैं-भविष्य में भारत को विश्व में शान्ति के दूत, न्याय एवं नैतिक आधार पर विश्व व्यवस्था के अग्रदूत की भूमिका निभानी है।"   ये  बात सही है कि  अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने देश के हितों का ध्यान रखते हुए कूटनीति  से काम लेना पड़ता है, लेकिन पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर, जिसके परिवर्तन से हमारा अस्तित्व ख़त्म हो सकता है, पर कूटनीति नहीं दिखाई जा सकती। कूटनीति से युद्ध तो जीते जा सकते हैं लेकिन पर्यावरण की समस्या नहीं सुलझाई जा सकती। हर एक देश को सीमाओं से परे सोचने का वक्त है। अगर नहीं चेते तो हम तो जायेंगे ही साथ में मानव से इतर उन जीवजंतुओं को भी ले डूबेगें जिनका इसमें कोई दोष नहीं है। विकास के नाम पर हमने जिस रास्ते को अपनाया है उसमें पृथ्वी जैसे पांच और गृहों की जरूरत पड़ेगी।
प्रधानमंत्री जी आधारभूत ढांचें में निवेश और विकास में पर्यावरण मंजूरी को बाधा मानते है। निवेश को तेज़ करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय के विरोध दरकिनार करते हुए कैविनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट को मंजूरी दे दी है। वैसे इससे पहले भी जो मंत्रिमंडलीय समूह महत्वपूर्ण निर्णय लेता था उसमें भी एक ही पर्यावरण का प्रतिनिधि होता था और उसमें निर्णय वहुमत के आधार पर लिए जाते थे तो स्वाभाविक ही था कि मंत्री का विरोध होने के बाद भी किसी परियोजना को मंजूरी मिल ही जाती थी।
हम विकास के पीछे इन्ते अंधे हो गए है की पर्यावरण की किसी को चिंता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही हमने कुल भूमि पर 33% वनों का लक्ष्य रखा लेकिन सरकार के आकंड़ो में ही ही 20% के आसपास हैं। स्वतंत्र संगठनो और सेटेलाईट से लिए गए चित्रों में 13-14% पर ही ये आंकड़े सीमिट जाते हैं।
याले यूनिवर्सिटी और कोलंबिया युनिवर्सटी द्वारा हर दो सालों में जारी किये जाने वाले पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (Enviorment  Performance Index)में भारत 2006 से लगातार नीचे जा रहा है। इस साल भारत का स्थान 132 देशों में 125वां है। हम सभी क्षेत्रों में तरक्की कर रहें हैं लेकिन इस गृह को जीने योग्य बनाने वाले वन सिमिटते जा रहे हैं, ये हाल सिर्फ भारत का नहीं है पूरी दुनिया का यही हाल है। हर एक मिनट 9 हेक्टेयर वनों का विनाश किया जा रहा है। इस लेख को पढ़ते-पढ़ते कई हेक्टेयर  वन उजड़ चुके होंगे। भारत सरकार ने 2008 में नेशनल क्लाइमेट चेंज एक्शन प्लान को मंजूरी दी है जिसमें 8 मिशन हैं। नोबल पुरुषकार विजेता और द एनर्जी एण्ड रिसोर्सिस इंस्टिट्यूट (TERI) के निदेशक डॉ आर के पचौरी के अनुसार इस एक्शन प्लान के क्रियान्वयन सही न हो पाने के कारण इसकी सफलता संदिग्ध है। यह माना जाता है की प्रदूषण के मामले में भारत 2025 तक चीन को पीछे छोड़ देगा।
  जीवन के लिए सबसे पहले शुद्ध वायु चाहिए, फिर पानी और फिर भोजन। शेष चीजें द्वितीयक हैं, लेकिन हम इन मूलभूत जरूरतों को छोड़कर किसे पाने की दौड़ में दौड़े जा रहे हैं?
ग्लोबल वार्मिंग के क्या प्रभाव होगा या हो रहा है या हो सकता है। इस पर विश्व स्वस्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट गौर करने लायक है। किसके अनुसार 2011 में ही 332 प्राकृतिक आपदाओं से 31 हज़ार से अधिक लोगों की जाने गयी हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 25 वर्षों के दौरान धरती का ताप बढ़ने की दर 0.18 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक रही है।
पिछले साल जापान में आई सुनामी, अमेरिका का सैंडी, भारत में नीलम प्रकृति की चेतावनियाँ है अगर हम नहीं चेते तो पंडोरा जैसे किसी गृह पर जाने के लिए तैयार रहना होगा। अंत में गांधी जी का वही कथन कि धरती के पास आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए तो संसाधन हैं लेकिन लालच की पूर्ति के लिए संसाधन न कभी थे और न कभी होंगे।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

भारतीय राजनीति में "पुनर्जागरण के पुरोधा अटल जी" का योगदान

अटल जी के 89वें जन्मदिन पर उनको याद करते हुए...

अटल जी भारतीय राजनीति में पांच दशकों से भी अधिक समय तक रहे हैं इनमें से अधिकतर समय उन्होंने विपक्ष में बैठ कर गुजारा और सत्ता में लगभग 8 सालों तक रहे जिसमें 6 सालों तक प्रधानमंत्री भी रहे। अटल जी की प्रतिभा को पहचान कर पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आरंभिक दिनों में ही ये कहा था की ये(अटल जी) राजनीति के शिखर तक जायेंगे। अटल जी ने राजनीति को साधन बनाकर देश की सेवा की। राजनैतिक क्षेत्र में ऐसे बहुत कम ही लोग होते हैं जो व्यवहार कुशल होने के साथ-साथ निर्विवाद भी हो। अटल जी ऐसे ही राजनेता हैं। अटल जी एक स्टेट्समैन हैं। जिनका कद उनकी पार्टी से भी बड़ा है।

      अटल जी ने भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को एक प्रमुख पार्टी बनाया जो जिसने उनके ही कार्यकाल में शून्य से शिखर तक सफ़र तय किया। इससे पहले तक कांग्रेस के अलावा विचारधारा के स्तर वामपंथी पार्टियाँ ही प्रमुख पार्टियाँ थी लेकिन संख्या की दृष्टि से वो संसद में हमेशा से ही कमजोर रही थी। अटल जी ने विपक्ष में रहते हुए हमेशा एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया। राष्ट्रहित की मुद्दों पर उन्होंने बिना किसी झिझक के अपने विरोधियों का भी साथ दिया। उनका मानना था की भले ही हम एक दूसरों के विचारों से असहमत हो लेकिन वैश्विक पटल पर हम एक है। अटल जी की इसी विशेषता के कारण चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में संयुक्त राष्ट्र में विपक्षी होते हुए भी उनको भारत का प्रतिनिधित्व के लिए भेजा गया।

      अटल जी ने भारत की विविधता को पहचाना। राज्यों को सत्ता में उचित भागीदारी कर, भारत में गठबंधन की राजनीति को सफलता पूर्वक राष्ट्रहित में चलाने के लिए भी अटल जी का योगदान अद्वितीय, अतुल्य है। यद्यपि भारत में उनसे पहले भी गठबंधन सरकारों का दौर रह चुका था, जनता सरकार भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पायी, अन्य गठबंधन बहुत सफल नहीं हुए थे, वे गठबंधन कार्यक्रम के स्तर पर न हो कर सत्ता के लिए थे। उनमें से अधिकतर सत्ता की लालसा में चुनाव बाद बने थे। लेकिन अटल जी ने एक संयुक्त कार्यक्रम के आधार पर गठबंधन बनाया और चुनाव लड़कर पूरे पांच सालों तक बिना-किसी खींच-तान के 23-24 दलों की सरकार सफलतापूर्वक चलाई। वे हमेशा समन्वय, सौहार्दपूर्ण राजनीति पर बल देते थे। उनके अनुसार "लोकतंत्र 51 बनाम 49 का खेल नहीं है यह मूल्यों, परम्पराओं, सहयोग और सहिष्णुता के आधार पर सता में भागीदारी करने का तंत्र है, फिर चाहे हम सत्तापक्ष में हो या विपक्ष में"। भारत के प्रथम सुरक्षा सलाहकार दिवगंत ब्रजेश मिश्रा के अनुसार अटल जी का कद उनके सभी सहयोगियों, उनकी पार्टी से ऊंचा था लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी के विपरीत वे सभी की सुनकर निर्णय लेते थे।
 
     राजनीति में छींटाकशी आज इस इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि अब नेताओं के पारिवारिक सदस्य और संबंध  इससे अछूते नहीं रह गए है, लेकिन अटल जी राजनीति में ने जैसे को तैसी नहीं  की बल्कि जैसी है वैसी ही सही की मान्यता पर जोर दिया। विरोधियों ने उन पर भले ही कितने आरोप लगाए हो लेकिन उन्होंने आलोचना की लक्षमण रेखा को नहीं लांघा। आजतक पर प्रभु चावला के साथ बात में गांधी-नेहरु परिवार पर कुछ न बोलने पर उन्होंने यही कहा था।

      अंतर्राष्ट्रीय संबंध अटल जी के प्रिय विषयों में से एक है। अगर विदेश नीति के संदर्भ में देखे तो इजराइल  से संबंधों की शुरुआत (विदेश मंत्री काल में), चीन के साथ संबंधों में सुधर और पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण की ओर बढ़ना उनकी प्रमुख उपलब्धि रही है।
जिस समय अटल जी प्रधानमंत्री बने उस समय घरेलू राजनीति के कारण देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि  बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती थी। अटल जी ने पारंपरिक  मित्र रूस से अच्छे संबंध जारी रखते हुए अमेरिका से भी संबंधों में गर्मजोशी लाने की शुरूआत की।
वैश्विक दबावों की चिंता ना करते हुए परमाणु परीक्षण किये और प्रथम प्रयोग  न करने की नीति  के  सिद्धांत से अन्य देशों को ये समझाने में कामयाब हुए की भारत के ये हथियार आत्मरक्षार्थ है न की दूसरों पर आक्रमण करने के लिए। उन्होंने दुनिया को भारत की भूमिका का एहसास कराया। वैश्विक पटल पर भारत की छवि को उभारने के कारण ही एक साप्ताहिक पत्रिका ने अटल जी को 60 महानतम भारतीयों में शामिल करते हुए पुनर्जागरण के पुरोधा  की संज्ञा दी है। एक अन्य पत्रिका और समाचार चैनल ने अटल जी को 10 महानतम भारतीयों की सूची में स्थान दिया है।
   
      अटल जी ने छात्र राजनीति (ये कम ही लोग जानते है कि अटल जी ने छात्र राजनीति की शुरुआत साम्यवादी SFI से की थी, छात्रसंघ अध्यक्ष भी वे SFI से ही रहे थे) के रूप में अपना राजनैतिक कैरियर शुरू किया। वे जन-नेता हैं, आम व्यक्ति उनसे अपना जुड़ाव महसूस करता है। इण्डिया टुडे पत्रिका द्वारा 2005-06 से कराये गए लगातार चार में से तीन सर्वेक्षणों जनता ने उन्हें प्रधानमंत्री की पहली पसंद बताया, अंतिम सर्वेक्षण में जब आमजन को ये एहसास हो गया की अटल जी अब सक्रीय राजनीति में नहीं लौट सकते तब भी वो दूसरे  स्थान पर ही बने रहे।
 वे जनता की नब्ज जानते थे। उन्होंने आम-जन तक अपनी बात पहुचाने के लिए हिंदी को मध्यम बनाया, उसे संयुक्त राष्ट्र के मंच से गौरवान्वित किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद दिए गए अपने पहले इंटरव्यू जनता की दूरी की बात पर उनकी आँखों में आंसू आ गये थे। आधुनिक राजनीति में नेता और जनता के बीच में जो दूरी आई है उसे देखते हुए एक जन नेता के रूप में अटल जी का योगदान उल्लेखनीय है।
 
       अटल बिहारी के भारतीय राजनीति में उनके योगदान को देखते ही उन पर किताब लिख चुके जगदीश विद्रोही और बलवीर सक्सेना ने ठीक ही लिखा है- "अगर ये सच है कि देश की सेवा करने का सौभाग्य सभी को नहीं मिलता तो, ये भी उतना ही सच है की देश को भी अटल जी जैसे सपूत भी मुश्किल से ही मिलते है।"
     बढती उम्र, गिरते स्वस्थ के कारण आज अटल जी इस स्थिति में नहीं हैं कि वो देश में व्याप्त असंतोष पर कुछ बोल सकें। उनकी अंतिम तस्वीर 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के साथ जन्मदिन के अवसर पर ही मीडिया में आई थी। दिसंबर 2011 में मैं जब उनसे मिला तो ये मुलाक़ात तो मुझे निराश हुयी ये मुलाक़ात एकतरफ़ा थी क्यों की अटल जी अब कुछ बोलने या पहचानने में असमर्थ हैं। संसद में राजनीति को नयी परिभाषा देने वाले, हम सब के प्रिय राष्ट्रपुरुष कभी हमारे प्रधानमंत्री रहे थे ऐसा सोचकर निश्चित ही मन को संतोष होता है लेकिन भारत की वर्तमान दशा को देखकर उनकी याद भी आती है।

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

विश्व शांति और वर्तमान परिदृश्य


विश्व शांति का अर्थ बहुत व्यापक है इसमें एक जीव से लेकर राष्ट्रों के मध्य सौहार्दपूर्ण, सह-अस्तित्व की कल्पना की जाती है विश्व शांति सभी देशों के बीच और उनके भीतर स्वतंत्रता, शांति और खुशी का एक आदर्श है. विश्व शांति में पूरी पृथ्वी पर अहिंसा स्थापित करने पर बल दिया जाता है, जिसके तहत देश या तो स्वेच्छा से या शासन की एक प्रणाली के जरिये इच्छा से सहयोग करते हैं, ताकि युद्ध को रोका जा सके. यद्यपि कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग सभी व्यक्तियों के बीच सभी तरह की शत्रुता की समाप्ति के लिए भी किया जाता है।     
       
            समय पर इसके प्रयास दुनिया के कई देशोँ के द्वारा किए गए जिनमेँ कुछ सफल हुए तो कुछ को असफलता हाथ लगी लेकिन विश्व शांति के उच्च आदर्श को प्राप्त न किया जा सका। विश्व शांति 20वीँ के बाद 21वीँ सदी की एक अपरिहार्य मांग बन गई है, विश्व शांति के लिए सर्वप्रथम व्यवस्थित प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के बाद देखने को मिले जब लीग आफ नेशंस की विजेता मित्र राष्ट्रों द्वारा स्थापना की गयी लेकिन दुनिया में बहुत दिनों तक शांति कायम न रह सकी क्यों की जिन 14 शिद्धान्तो के आधार पर लीग आफ नेशंस की बुनियाद राखी गयी थी उनका पालन करना किसी ने उचित नहीं समझा, अपनी घरेलू राजनैतिक कारणों से अमेरिका इससे अलग रहा और विचारधारा विद्वेष के कारण तत्कालीन सोवियत संघ को इससे जानबूझकर इससे बाहर रखा गया था। फिर दुनिया ने एक और युद्ध देखा जिसमे मानवता शर्मसार हुयी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के नेताओं ने फिर प्रयास किये और संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया। 
  
             लोकतंत्र समर्थक विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी देशोँ मेँ लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अनिवार्य मानते हैँ जिसमेँ आमजन की सहमति से ही राष्ट्रप्रमुख का चुनाव होता है। अब चूँकि आम व्यक्ति शांतप्रिय होता है तो उसके द्वारा चुनी गई सरकार भी दूसरे देशोँ से कम ही झगड़ा मोल लेगी। चीन और उत्तर कोरिया के उदाहरणोँ के द्वारा ये अपनी बात को बल देने की कोशिश करते हैँ जहां लोकतंत्र नहीँ है। लेकिन इस सिद्धान्त के सबसे समर्थक देश अमेरिका ही अपने हितोँ के लिए सभी मर्यादाओँ को ताक पर रखने से कभी नहीँ चूकता। 
            
             लेकिन फिर भी लोकतंत्र निश्चित ही विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति में अन्य शासन प्रणालियों से बेहतर है। अमेरिका मेँ उसकी नीतियोँ को दूषित करने मेँ विकृत पूँजीवाद अधिक जिम्मेदार है।
इसी पूँजीवाद को विश्वशांति के लिए खतरा मानने बाले माक्स्रवादियोँ और साम्यवादियोँ का कहना है दुनिया के दोनों बड़े युद्ध पूंजीवाद और साम्राज्वाद के गठजोड़ के कारण लड़े गए। लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की शीत युद्ध में एक पक्ष और अफगानिस्तान संकट में सोवियत संघ कोई पूंजीवादी देश नहीं था। 

              आज के सन्दर्भ में आर्थिक कारण ही विश्व शांति लिए गंभीर खतरा बने हुए है। सोवियत संघ के पतन के बाद इतिहास के अंत की बात कही गयी लेकिन जल्द ही सभ्यताओं का संघर्ष का सिद्धांत भी आ गया जिसमे मोटे तौर पर धर्म को भविष्य के संघर्ष के केंद्र में रखा गया है। तेल की राजनीति और उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता ने देशों के मध्य एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जो बड़ते बढ़ते युद्ध की स्थिति तक पहुँच गयी। फिर चाहे इराक या ईरान के बीच लड़ा गया खाड़ी का युद्ध हो या रासायनिक हथियारों के नाम पर अमेरिका द्वारा इराक पर हमला। इसी का ताज़ा उदाहरण है इजराइल का अमेरिका द्वारा उसके हर अनैतिक कामो का समर्थन। ब्रुकिंग्स इस्टीटयूसन इंटरनेशनल के एक सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तरी अफ्रीका और अरब देशो की बहुसंख्यक आबादी इजराइल से नफरत करती है लेकिन उन देशो की अमेरिकी कठपुतली सरकारें इजराइल का समर्थन करती हैं। ऐसे में अगर अहमदीजेनाद अगर इजराइल को दुनिया के नक़्शे से मिटाने की बात कहे तो कहाँ तक विश्व शांति कायम रह सकती है।

            परमाणु हथियारों की होड़ ने भी शांति के लिए गंभीर चुनौती पेश की है, एक तरफ पांचो महाशक्तियां निशस्त्रीकरण पर बल देती है वही दूसरी ओर खुद इन पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहती है। एनपीटी हो या सीटीबीटी, जब तक भेदभावपूर्ण प्रावधान नहीं हटाये जाते तब तक निश्त्रिकरण का लक्ष्य महज़ एक सपना ही बना रहेगा। इरान के परमाणु कार्यक्रम को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

             पर्यावरण की समस्या भी विश्व शांति के लिए खतरा है। इस खतरे का एहसास सबसे ज्यादा तीसरी दुनिया और समुद्र तटीय द्वीपीय देशो को है। लेकिन दुर्भाग्यवश न तो विकसित और न ही भारत जैसे विकासशील देश इस खतरे के प्रति चिंतित दिखाई दे रहे है। क्योटो प्रोटोकोल की अवधी इसी वर्ष ख़त्म हो रही है और आने वाले सालो में ऐसी किसी संन्धी की सम्भावना नहीं दिखती।

             अगर किसी देश विशेष के दृष्टिकोण से देखा जाए तो अमेरिका,  इरान, चीन और उत्तर कोरिया को विश्व के लिए खतरा मानता है, पश्चिम एशिया के देश अमेरिका और इजराइल को खतरा मानते है, चीन के लिए अमेरिका खतरा है, पूर्वी एशिया के जापान वियतनाम और दक्षिण कोरिया जैसे देशो के लिए चीन खतरा है, भारत के हिसाब से पकिस्तान खतरा है, परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ लगते है तो सभी देश आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा मानते है। अगर इनके कारणों पर गौर किया जाए तो सोवियत संघ के पतन के बाद जापान, चीन और भारत जैसी शक्तियों का उदय होना है। अब जबकि नए-नए देश वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बना रहे है तो ऐसे में अमेरिका को बुरा लगाना स्वाभाविक है। 
    धार्मिक दृष्टीकोण से इस्लामी जगत अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस विश्व अशांति के लिए जिम्मेदार ठहराते है।
 देशों के मध्य सीमा विवाद भी कभी-कभी इस शांति के लिए खतरा बन जाते है। भारत-पकिस्तान, उत्तर-दक्षिण कोरिया विवाद, इजराइल-फलस्तीन विवाद जैसे विवादों को हम इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते है।
अब प्रश्न उठता है कि फिर वो कौन सा मार्ग होगा जिससे स्थयी शांति प्राप्त की जा सके? मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा है- "विश्व में मानवता को अगर बढ़ाना है, स्थाई शान्ति लानी है तो हमें गाँधी के बताये गए रास्ते पर ही चलना होगा". गाँधी जी का चिंतन रोटी (भौतिक) शील (नैतिक) और आत्मा (आत्मिक) तीनों की सही और उचित अनिवार्यता पर बल देता है, इस प्रकार के जीवन में सत्य और अहिंसा अनिवार्य है, जहाँ हर एक जीव का सम्मान किया जाता है। गाँधी जी ने इस प्रकार के जीवन की शुरुआत बच्चों से करने की बात कही है क्यों की अंततः उन्ही के कंधो पर देश और समाज की जिम्मेदारी आनी है। इस प्रकार से अगर हम देखे तो विश्व शांति सिर्फ उत्तर कोरिया, चीन या पकिस्तान को नियंत्रित आरके कायम नहीं की जा सकती बल्कि इसके मूल में मुक्त व्यापार के नाम पर जो प्रकृति का और संसाधनों को कुछेक देश दोहन कर रहे हैं, उस पर नियंत्रण होना चाहिए।


(रोटरी क्लब की पत्रिका के दिसंबर अंक में प्रकाशित लेख)

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

द गेम चेंजर- आपका पैसा आपके हाथ

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और वित्त मंत्री ने सब्सिडी को जब सीधे लाभार्थियों के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करते हुए इसे गेम चंजर की संज्ञा दी तो भले ही विरोधी इसे महज जुबानी जमा खर्च बताते हुए इसे कोरी लफ्फाजी करार दें लेकिन अगर थोडा गंभीरता से विचार करे तो इसमें निश्चित ही दम है। जयराम रमेश के मुताबिक राजीव गाँधी के एक रूपए में से सिर्फ 15 पैसे पहुँचने के कथन से सरकार ने प्रेरणा लेते हुए इसे शुरू किया है।

  कैश ट्रांसफर के लिए 42 योजनाओं की पहचान की गयी है जिसमे 29 के लिए 1 जनवरी से ट्रांसफर शुरू हो जाएगा। पहले यह योजना 51 जिलों से शुरू होगी। कैश ट्रांसफर के तहत पहली अप्रैल, 2014 से देश भर के करीब 10 करोड़ गरीब परिवारों को 32 हज़ार रुपये सालाना का भुगतान होगा. इस मद में सरकार सालाना तीन लाख बीस हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी. जिन इलाकों में बैंक नहीं है वहां आंगनबाड़ी कार्यकत्र्ता, आशा बहनें और स्कूलों के अध्यापक बैंकों के प्रतिनिधि के रूप में काम करेंगे और लाभार्थियों तक पैसा पहुंचाएंगे जिसके बीच में ही हजम कर लिए जाने की पूरी संभावना है। लेकिन इसमें एक पेंच यह भी है और योजना की सबसे बड़ी खामी ये है कि देश की 120 करोड़ से ज़्यादा की आबादी में महज 21 करोड़ लोगों का आधार कार्ड बना हुआ है और आधार कार्ड के आधार पर ही बैंक में अकाउंट खोलना है तो ऐसे में यह योजना हर किसी तक कैसे पहुंचेगी. यह सवाल खड़ा होता है।
  
   कैश ट्रांसफर योजना के आलोचक इसे कांग्रेस के लिए वोट का एटीएम मान रहे है। आलोचकों का कहना है की जब बृद्धावस्था पेंशन की राशि समय पर नहीं पहुँच पाती तो फिर इस योजना में कैसे उम्मीद की जा सकती है। आलोचकों में अरुणाराय और मेधा पाटकर जैसे लोग शामिल है। वैसे अगर देखा जाए तो वर्तमान में चल रही प्रणाली से कैश ट्रांसफर योजना से संसाधनों का जो लीकेज होता है वह रुकेगा, मिटटी के तेल जैसे अनावश्यक चीजों का उपयोग कम होगा। वर्तमान वित्त सलाहकार रघुराम राजन ने ऐसा करने की सलाह 2009 में दी थी और अन्य विशेषज्ञ भी इसी रास्ते को सही ठहराते रहे है।

   लेकिन अगर सरकार की स्थिति और समय के आईने में देखा जाए तो कांग्रेस ने ये कदम 2014 को लक्ष्य रखते हुए उठाये हैं। एक पूर्व कैविनेट सचिव ने कांग्रेस का विश्लेषण करते हुए इसे चुनाव जीतने की मशीन बताया है जिसके पास न तो कोई विचारधारा है और न ही राष्ट्र को कोई कार्यक्रम।
1971 में कांग्रेस ‘गरीबी हटाओ’ और 2004 में ‘कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ’ नारे देकर सत्ता में आई थी, 2009 में नरेगा और कर्ज माफ़ी ने सत्ता दिलवाई तो इस बार इसने गरीब मतदाताओं को लुभाने के लिए ‘आपका पैसा आपके हाथ’ योजना शुरू की है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के मुद्दे पर सोनिया ने विपक्ष को किस प्रकार किनारे लगाया इसे इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करनी चाहिए। इससे पहले भी संप्रग-2 खाद्य सुरक्षा कानून से अपनी कुर्सी के एक अन्य पाए को साधने की कोशिश कर रही है। इन सब के बीच हर हाथ में फोन की घंटी भी सुनाई दे रही है। फिर राहुल को हर हाल में गद्दी पर बैठना भी है अगर इस बार चूके तो 2019 तक इंतज़ार करना होगा। ऐसे में अरविंद या अन्ना जन लोकपाल-जन लोकपाल कहे, भाजपा CWG, 2G, कोलगेट या जीजाजी- जीजाजी (राबर्ट मामला) चिल्लाएं तो कौन सुनने वाला है!!
अब फिर वित्त मंत्री के के उस शब्द को याद कीजिये- "गेम चेंजर"

सोमवार, 26 नवंबर 2012

आम आदमी की पार्टी- द मेंगो पीपुल पार्टी


राजनैतिक व्यवस्था परिवर्तन के लिए जद्दोजहद, एक प्रयास...
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में आज का दिन यानी 26 नवम्बर कई कारणों से याद किया जाता है। इसी दिन 1949 को हमने अपने संविधान को आंशिक रूप से अपनाया था, उसे अंगीकृत किया था। कडवी यादो के रूप में इसी दिन 2008 में देश ने आर्थिक राजधानी मुंबई पर हमला भी देखा। और आज 26 नवम्बर 2012 को अरविंद केजरीवाल ने अपने साथियों और देश की जनता के साथ एक नयी पार्टी बना डाली। वैसे तो उन्होंने पार्टी बनाकर राजनीति में कूदने की घोषणा 2 अक्टूबर को ही कर दी थी लेकिन पार्टी का नाम और पार्टी के संविधान की औपचारिक घोषणा के लिए आज का दिन चुना गया था। तो इस प्रकार भारतीय राजनीति में एक और राजनितिक दल का जन्म हो गया। अभी तक भारत में 6 राष्ट्रीय राजनितिक और सैकड़ो पंजीकृत क्षेत्रीय 
दल। इसी सूची में एक नाम आने वाले दिनों में और जुड़ जाएगा जब ये पार्टी चुनाव आयोग के पास पंजीकृत हो जायेगी।
 इस पार्टी का जन्म पिछले दो साल तक चले भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के बाद हुआ। तीनो अनशन-धरना-प्रदर्शनों के दौरान संसद विधानसभाओं में बैठे तथाकथित जन प्रतिनिधि आन्दोलनकारियों को संसद में आने की चुनौती देते रहे। अंत में थक-हार कर ऐसा ही करना पड़ा अरविन्द और उनके साथियों को। स्वतंत्रता आन्दोलन में सुभाष चन्द्र बोस के सहयोगी रहेऔर आज़ाद हिन्द फौज के कप्तान अब्बास अली ने मसाल जला कर पार्टी की औपचारिक शुरुआत की। पार्टी के समर्थकों को जीवन में कभी भी घूस न देने की शपथ दिलाई गयी। साथ ही किसी भी प्रलोभन में न आकर हर चुनाव में मतदान की शपथ भी दिलवाई गयी। आन्दोलन की भीड़ को देख कर एक क्षण के लिए ऐसा लगा मानो भारत एक नयी सुबह के लिए अंगड़ाई ले रहा हो, एक नयी सुबह में जागने के लिए उठ रहा हो। भीड़ का जोश देखते ही बनता है, एनएसजी कमांडो सुरिंदर सिंह जब बोलने के लिए खड़े हुए और कुमार विश्वास ने जब 8 कमंडोस का नाम लेकर इनको सलाम करने के लिए कहा तो भीड़ में शायद ही ऐसा कोई हाथ होगा जो इन वीरों को सलाम करने के लिए न उठा हो।

जब से अरविन्द ने राजनैतिक पार्टी बनाने की घोषणा की है तभी से राजनैतिक मामले के (स्वतंत्र) विश्लेषक ये कहते रहे हैं की सिर्फ भ्रष्टाचार के मुडी पर कोई पार्टी नहीं बनाई जा सकती और अगर जैसे-तैसे बन भी गयी तो सिर्फ एक मुद्दे पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। मुझे इस तर्क में हमेशा से ही संशय रहा है। जहाँ जाति और धर्म जैसे मुद्दों पर न सिर्फ चुनाव लड़े जाते है बल्कि जीते भी जाते है, फ्री लैपटॉप, फ्री मंगलसूत्र, फ्री साईकिलें सत्ता के समीकरण बदल देती हैं वहां क्या वास्तव में एक सफल, आदर्श राजनैतिक दल के गठन के लिए विदेश नीति और आर्थिक नीति जैसे जटिल विषयो पर भी स्पष्ट रूप रेखा घोषित करनी पड़ती है। इतना कहने के बाद भी मुझे भारतीय आम मतदाता की बुद्धिमत्ता पर किसी प्रकार की शंका नहीं है, लेकिन मुझे लगता है यदि एक आम जन भ्रष्टाचार जैसे सीधे और सरल मुद्दे को नहीं समझ प् रहा है तो उन गंभीर मुद्दों का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो उसके जीवन से प्रत्यक्ष सम्बंधित नहीं है। लेकिन फिर भी पार्टी के दृष्टिकोण पत्र में आर्थिक पक्ष पर भी हल्की सी चर्चा की गयी है उसे देखकर लगता है की देश के प्राकृतिक संसाधनों पर पुनः सरकारी उपक्रमों का नियंत्रण होगा और सरकारी तंत्र की चाबी टाईट करने के लिए लोकपाल तो है ही!!
इस पार्टी में जो ध्यान देने योग्य बातें है वे है-
गाँधी जी को याद करते हुए मूल्यों और सिद्धांतो की राजनीति करने की बात आम आदमी पार्टी करती है। जिसके लिए राजनीति को अध्यात्म से जोड़ने की भी एक झलक इस पत्र में मिलती है। 
सत्ता का विकेंद्रीकरण- इसमें ग्रामसभा को मजबूत करने की बात कही गयी है (अभी ग्राम पंचायत को अधिकार दिए गए है वे भी बहुत कम है।)
जबावदेही को पांच सालों तक न सहते हुए इसे दिन प्रतिदिन के लिए सुनिश्चित किया गया है। भ्रष्ट प्रतिनिधियों को हटाने का अधिकार सीधे जनता को देने की बात कही गयी है।
न्याय को त्वरित रूप से आम जनता के गली-मोहल्लों और उनके घर तक मुफ्त पहुचाने की बात भी इस पत्र में की गयी है।
धर्म के मामले में पुरानी वचन बद्धता दोहराते हुए जातिगत रिजर्वेशन को जरूरत मंदों तक पहुचने का लक्ष्य रखा गया है। महा-दलित, अति-पिछड़े, आदिवासियों और घूमंतू समुदाय पर विशेष जोर है।
शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों को सुधारकर निजी स्कूलों की तरह बनाने की बात पर बल दिया गया है।
राईट टू रिकाल और राईट टू रिजेक्ट की मांग साथ चल ही रही है।
महगाई पर नियंत्रण के लिए पेट्रोल-डीजल-गैस के दाम सस्ते करते हुए सट्टेबाजो और विचौलियों पर नियंत्रण की बात भी है।
पार्टी के संचालको ने और समर्थकों ने किसी एक व्यक्ति की जिंदाबाद न करते हुए उस आम आदमी की जिंदाबाद की जिसको अभी तक सभी राजनैतिक दल अंतिम व्यक्ति के कल्याण की चासनी चटा कर अपनी झोली भरते रहे हैं।
एक परिवार के एक से अधिक सदस्य को चुनाव न लड़वाने की बात भी इस पार्टी की तरफ से की जा रही है।
 इसके अलावा उन सभी मुद्दों पर राय राखी गयी है जो आम आदमी के जीवन से जुड़े है।

आन्दोलन के मिजाज़ से ये स्पष्ट है की आम आदमी पार्टी की पहली परीक्षा 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में होगी।



सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

"राम" हमारे मन में हैं ...

दशहरा फिर आ गया। वो तो आना ही था समय बीतता जायेगा और दशहरा आता ही रहेगा, साल-दर-साल।
हर बार हम रावण को मारने का संकल्प लेते है, और प्रतीकात्मक रूप में उसके पुतले का दहन करते भी है, खुद 'असली राम' बन जाते है। लेकिन फिर भी समाज में हर रोज़ नए-नए एक नहीं अनेक रावण आ जाते है।'एक से दो, दो से चार, चार से...!!! इतनी तेज़ी से बढ़ते हुए रावणों के लिए इतने राम कहा से लाये जाए? इस पर एक प्रसिद्द गीत भी है-
कलयुग बैठा मार कुण्डली जाऊं तो मैं कहा जाऊं,
अब हर घर में रावण बैठा, इतने राम कहाँ से लाऊं..?
यहाँ पर व्यक्ति की हताशा झलक रही है, वह निराश है, बुरी व्यवस्था को सुधरने के लिए दूसरो के भरोसे है। जबकि समाज में अच्छाई की स्थापना के लिए किसी और के भरोसे रहना कहाँ तक सही है इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ।
लेकिन क्या वास्तव में समाज में खुलेआम घूम रहे रावणों के लिए हमें वाहर से राम लाने की जरूरत है? अगर ऐसा है तो फिर तो राम की कमी होना निश्चित है। अब क्या किया जाए.?
एक और गीत-
राम हृदय में हैं मेरे, राम ही धड़कन में हैं
राम मेरी आत्मा में, राम ही जीवन में हैं
राम हर पल में हैं मेरे, राम हैं हर श्वास में
राम हर आशा में मेरी, राम ही हर आस में


  राम ही तो करुणा में हैं, शान्ति में राम हैं
  राम ही हैं एकता में, प्रगति में राम हैं
  राम बस भक्तों नहीं, शत्रु की भी चिंतन में हैं
देख तज के पापी  रावण, राम तेरे मन में हैं
राम तेरे मन में हैं, राम मेरे मन में हैं


राम तो घर घर में हैं, राम हर आँगन में हैं
मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में हैं
 ...
इस गीत में राम के हर उस व्यक्ति में होने की बात की गयी है जो स्वयं अपने में से बुराइयों को निकलता है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट आ रही है, न सिर्फ सामाजिक पारिवारिक बल्कि रिश्ते भी गौण हो रहे है। परिवार और समाज फेसबुक और ट्विटर पर सिमिट गया है। समाज जाए भाड़ में, मेरे लिए अच्छा क्या होगा, वही सही है। रावण के लिए भी उसकी लंका ही सब कुछ थी। इस प्रकार के रावणों को मारने के लिए वाहर से, आयात किये हुए राम की जरूरत नहीं है। हम सिर्फ क्षणिक लाभ की न सोचें, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सीखें, अपने मित्रों, पड़ोसियों से कोई प्रतियोगिता का भाव न रखे, उनसे बैर न रखे। समाज में व्याप्त बुराइयों से लड़ने की स्वयं ठाने। गाँधी जी भी का प्रसिद्द कथन है-"परिवर्तन की शुरुआत हम से ही होती है...", जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर ने भी कहा था, अप्पदीपो भव अर्थात् आत्मदीप बनें। स्वयं को प्रकाशित करें, अपना रास्ता स्वयं बनावें। जो भी बुराइयां हम में हैं उनको कम से कम करने का प्रयास करे तो शायद हम अपने अन्दर के रावण पर कुछ नियंत्रण रख सकते है।


बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

तुम मेरी पीठ सहलाओ, मैं तुम्हारी सहलाता हूँ...

तुम मेरी पोल न खोलना, मैं तुम्हारी नहीं खोलूँगा..!!!


स्कूली शिक्षा का दौर हो या विश्वविद्यालयी शिक्षा, जाने-अनजाने में वहां के अध्यापकों को ये एहसास हो ही जाता की लड़कों/लड़कियों से एक दूसरे की कमियाँ जानना, उनके बीच क्या गपशप चल रही है, उनकी पोल लेना बहुत मुश्किल है। इसी अनुभव के आधार पर हमारे संस्थान के आनंद सर अक्सर ये जुमला इस्तेमाल करते है, कि कही ऐसा तो नहीं कि आप (छात्र) लोग मिलकर एक-दुसरे की पीठ खुजलाते की परम्परा पर चल रहे हो।

    ये तो हुयी छत्रो की बात अब अगर आप वर्तमान भारतीय राजनीति के घटनाक्रम पर नज़र डाले तो ऐसा ही कुछ यहाँ भी देखने को मिलेगा। बात शुरू होती है महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार के इस्तीफे के साथ।  महाराष्ट्र में सिचाईं के लिए बनने वाले बांधों पर जनहित याचिका दायर करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि दमानिया ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से मिलकर इस मुद्दे को उठाने की बात की लेकिन उनके अनुसार गडकरी के जबाब से वो चकित रह गयीं। नितिन गडकरी ने कहा- " आप ये कैसे मान सकती है कि ये मुद्दे हम उठायेंगे, चार काम वो (शरद पवार) हमारे करते हैं-चार काम हम उनके करते हैं....."
दूसरा वाकया तब हुआ जब अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर डी एल ऍफ़ के साथ सांठ-गांठ का आरोप लगाया। इसके तुरंत बाद हिमांचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने भी प्रियंका पर जमीन के लेन-देन से जुड़े मुद्दे पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया। लेकिन देखने वाली बात ये है कि जमीन की खरीद-फरोख्त्त राज्य के अधिकार में ही आता है ऐसे में धूमल को आरोप लगाने से पहले जांच के आदेश क्यों नहीं दिए.?
तीसरा, राबर्ट वाड्रा पर भाजपा का कहना है की उसने ये मामला 2011 में ही संसद में उठाया था। लेकिन सवाल उठता है की तब से क्या हो रहा था..? जब भाजपा ने अरविंद की आवाज़ में हाँ में हाँ मिलाने की कोशिश की तो दिग्विजय सिंह कहते है राजनैतिक पार्टिओं में ये आपसी सहमती (Mutual Understanding) होती है और होनी भी चाहिए कि वो एक-दूसरे के परिवार के सदस्यों के ऊपर कोई दोषारोपण नहीं करेंगी।
बकौल दिग्विजय, अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उनके दामाद रंजन भट्टाचार्य और आडवाणी के बेटे-बेटी के खिलाफ पर्याप्त सबूत थे लेकिन कांग्रेस ने उनके खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोला। अब सवाल उठता है क्या इसी परम्परा का पालन भाजपा और अरविन्द को करना चाहिए..?
चौथा, सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट में हुयीं गड़बड़ियो का आरोप उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आये हुए है और जिस जांच की मांग की जा रही है उसकी पूरी जिम्मेदारी समाजवादी पार्टी की सरकार पर आती है। प्रश्न फिर वही की क्या अखिलेश जांच के आदेश देंगे? अगर देंगे तो कितनी निष्पक्ष होगी इस पर भी संदेह है क्यों कि उनके पिता और सपा मुखिया मुलायम के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी बी आई ने जो याचिका दायर कर राखी है उसमे सरकारी वकील कि नियुक्ति पर पूरा नियंत्रण क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद का है ऐसे में एक दुसरे को लाभान्वित करने की बात फिर सामने आती है।
तो हुयी न राजनीति में भी एक दूसरे की पीठ सहलाने की बात, किसी की पोल न खोलने की बात.....

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

राम (अटल जी) के हनुमान (ब्रिजेश मिश्र)

 अटल बिहारी वाजपेयी को अघोषित रूप से "राम" और उनके प्रमुख सचिव एवं देश के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रिजेश मिश्रा को घोषित रूप से "हनुमान " की संज्ञा बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल ने दी है।भारत के पूर्व राजनयिक और ब्रिजेश मिश्र के साथ काम कर चुके ललित मान सिंह ने इनको "आधुनिक चाणक्य" की संज्ञा दी है।

मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के यहाँ जन्मे ब्रिजेश मिश्र ने 1951 में भारतीय विदेश सेवा के लिए चुने गए 1991 में सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली,लेकिन 1998 में सुरक्षा सलाहकार बनाए जाने से पूर्व ही वे इससे हट गए थे। ब्रिजेश मिश्र की भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा जी से कम ही पटती थी यही वजह थी कि उनको संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि पद से हटा लिया गया था। वही दूसरी ओर अटल बिहारी के सरां में प्राय: आने-जाने से उनमे आपसी मेलजोल पर्याप्त था। कहा जाता है कि अटल जी और ब्रिजेश मिश्र के लिए सरां एक मीटिंग ग्राउंड था। जब मिश्र सलाहकार के पद पर नियुक्त हुए उस समय भारत के सम्बन्ध विदेश नीति के स्तर पर बहुत परिपक्व नहीं कहे जा सकते थे। मिश्र ने अमेरिका को पहले की अपेक्षा अधिक महत्व देते हुए अमेरिका और रूस से मित्रता के लिए बीच का रास्ता निकाला, जिसे लेकर उनकी आलोचना भी हुयी। मिश्र के अनुसार पकिस्तान के साथ भारत के संबंधो का सामन्यी करण बहुत मुश्किल भरा है क्यों की वहां की सेना का अस्तित्व भारत विरोध पर ही टिका है ऐसे में सेना अच्छे सम्बन्ध कभी नहीं चाहेगी। पद गृहण के कुछ ही हफ्तों बाद जब भारत ने शक्ति श्रंखला नाम के पोखरण में परमाणु परिक्षण किये तो अन्य देशो द्वारा भारत पर प्रतिबंधो का सामना भी बड़ी सावधानी से किया, इसके बाद भारत के न्युक्लियर दक्त्राइएन में "नो फर्स्ट यूज" जैसी अवधारणा के पीछे मुख्य भूमिका निभाई। 1999 में कारगिल की घटना ने मिश्र को भारतीय सुरक्षा उपकरणों को जांचने की चुनौती पेश की। उन्होंने चीन, पकिस्तान और अमेरिका से सम्बन्ध को एक आयाम देने की कोशिश की। मिश्र के अनुसार संसद पर आतंकवादी हमले के बाद भारत ने पकिस्तान पर आक्रमण के लिए 7 जनबरी का दिन निश्चित किया था लेकिन अमेरिकी दवाव के कारण ऐसा न हो सका। अपने काम को समय से करने और देशहित को प्राथमिक उद्देश्य रखने वाले मिश्र ने भारत-अमेरिकी नाभिकीय करार का पहले विरोध किया लेकिन जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे व्यक्तिगत बातचीत में इसे समझाया तो वे इसके पक्ष में हो गए।
एक निजी टीवी चैनल पर साक्षात्कार के दौरान जब उनसे अटल बिहारी को भारत रत्न देने के बारे में पूछ गया तो उन्होंने बिना देर किये ऐसा करने के लिए कहा, साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि वे भारत में दो प्रधानमंत्रियों को ही महान मानते है जिसमे एक इंदिरा गाँधी और दूसरे अटल बिहारी। लेकिन दोनों में अटल बिहारी अधिक महत्वपूर्ण बताते हुए उन्होंने इंदिरा जी को तानाशाह की संज्ञा दी और अटल बिहारी को स्टेट्समेन बताया था जो सरकार में सभी की सुनते थे।
ब्रिजेश मिश्र को 2011 भारत के द्वितीय सर्वोच्च पुरुष्कार पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया।

बुधवार, 26 सितंबर 2012

कहाँ है जनहित/देशहित...??

स्वतंत्रता दिवस या अन्य अवसरों पर राष्ट्र के नाम संबोधनों में प्रधानमंत्रियों द्वारा देशहित और जनहित की बात हमेशा की जाती है। ऐसा ही कुछ सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों (बहुब्राण्ड में निवेश, डीजल और एल पी जी से सम्बंधित) पर सफाई देते हुए प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान फिर कहा। लेकिन वास्तिविकता में देखें तो ये देशहित या जनहित भाषणों में ही दिखता है, व्यवहार में इसे खोजना नामुमकिन भले ही न हो लेकिन मुश्किल जरूर होता है।

-देशहित के लिए ही 1951 से वनों का 33% का लक्ष्य सिर्फ लक्ष्य ही बना रहता है।
-देशहित में राजभाषा हिंदी सीमित होती चली जा रही है, चपरासी से लेकर आई. ए. एस. सभी में अंग्रेजी अनिवार्य हो गयी है। ब्रिक्स सम्मलेन में अन्य सभी देश अपनी-अपनी भाषा में बोलते है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी अंग्रेजी में व्याख्यान देते है। 65 सालों में लोकसभा में हिंदी के विकास के लिए/आधिकारिक प्रवेश के लिए कोई  राजभाषा समिति नही बनी। 
-देशहित के लिए ही लोकपाल कानून 1967 से 9 बार आया लेकिन पास नहीं हो पाया। पहले और दूसरे, दोनों प्रसाशनिक सुधार आयोग ने इसकी अनुसंशा की है।
-देशहित में ही सीवीसी के पद पर पी जे थामस की नियुक्ति की गयी। सीबीआई को नियंत्रण मुक्त नहीं किया जाता।
-इसी देशहित में व्हिसिल ब्लोअर बिल 2004-05 से "चर्चा में है"। 
-इसी जनहित में गरीबी रेखा सिकुड़ती चली जाती है। 
-जनहित में ही बड़े-बड़े बांध और नाभिकीय सयंत्रों की स्थापना सारे विरोध को दरकिनार करके की जाती है, बावजूद सौर और पवन ऊर्जा की अपार संभावनाओं के होते हुए। 
-जनहित में ही सांसदों के वेतन भत्ते एक झटके में बढ़ जाते हैं।
-देशहित के लिए जल्दी में कोयला ब्लाकों का आवंटन नीलामी से नहीं किया जाता लेकिन फिर भी खनन शुरू नहीं होता और जो एकाध कंपनियां खनन करके बिजली उत्पादन करती भी है तो देशहित में ही उनकी बिजली मंहगी रहती है।
-देशहित में ही 2G स्पेक्ट्रुम का मनमाने तरीके से आवंटन कर दिया गया।
-देशहित में ही संविधान के नीति निर्देशक तत्व धूल खा रहे है।
-देशहित में ही पहले अपराध का राजनीतिकरण हुआ, फिर राजनीति का अपराधीकरण लेकिन चुनाव सुधार करना किसी भी राजनैतिक दलों की कार्यसूची में नहीं।
-सैकड़ों रिपोर्टों को दरकिनार करते हुए जीन संबर्धित बैगन को लाने की तैयारी चल रही है।
-इसी जनहित/किसान हित में बहुब्राण्ड में निवेश को अनुमति दे दी जाती है, ये जानते हुए भी अमेरिका में इसके तथाकथित लाभ के बाद भी किसानो को भारी सरकारी सब्सिडी क्यों दी जा रही है।
-देशहित में ही 1894 के क़ानून से अभी तक भूमि का अधिगृहण किया जा रहा है।


हो सकता है की अभी जनहित/देशहित के और भी कार्य किये जाने शेष हो लेकिन मेरे स्मृति में इतने ही आ रहे है, कुछ अन्य अगर आपके दिमाग में आ रहे हो तो स्वागत है आपका...




सोमवार, 24 सितंबर 2012

अभिव्यक्ति के नाम पर...

असम हिंसा के बाद देश के बिभिन्न हिस्सों में जिस तरह पूर्वोत्तर के लोगो को लेकर एक अफवाह फैली और जिसकी परिणति यहाँ के लोगो का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन हुआ और कई जगहों पर हिंसा भी भड़की तो सरकार ने इन अफवाहों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की जिसने अपनी रिपोर्ट में बताया इन अफवाहों को फ़ैलाने में सोशल मीडिया और थोक मोबाइल संदेशो की प्रमुख भूमिका रही है। फोरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार 13 जुलाई से ही बिभिन्न वेब साइटों पर हिंसा के लिए  भड़काने बाली तस्वीरें, बीडियो या अन्य प्रकार की सामग्री मौजूद थी। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया की इनमे से बहुत से कारकों का संचालन पडोसी देश पकिस्तान से हो रहा था।
देश के अन्य हिस्सों में  इस तरह की हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए  सरकार ने 300 से अधिक वेब साइटों पर प्रतिबन्ध लगाया जो सरकार के अनुसार इन पर भड़काऊ सामग्री थी जिसमे से कुछ पकिस्तान से भी संचालित हो रहे थी। लेकिन मीडिया में आ रही ख़बरों के अनुसार प्रतिबंधित की गयी वेब साईटों में बहुत सी स्वतंत्र पत्रकारों, गैर सरकारी संगठनो की है जिनकी देश भक्ति पर किसी भी प्रकार की शंका नहीं की जा सकती और सरकार इसी बहाने अपनी आलोचना को दबा रही है। आगे बड़ते हुए सरकार ने सोशल मिडिया पर निगरानी की आवश्यकता पर बल दिया। इत्तेफाक से इसी समय  युवा कर्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भारत माता और राष्ट्रीय चिन्हो के कुछ कार्टून बना दिये, जिसको अपराध की श्रैणी में रखते हुये असीम को देशद्रोह के अंर्तगत गिरिफ्तार किया गया। सोशल मीडिया पर निगरानी पर पहले से ही आलोचनाओं से घिरी सरकार पर असीम प्रकरण ने एक बार फिर विरोधियों को एक हथियार उपलब्ध करा दिया। दूसरा इत्तेफाक तब हुआ जब अमेरिका में बनी एक फिल्म "इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स" को लेकर एक सिमित वर्ग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना तो मुस्लिम देशों में इससे उपजे विरोध ने 45 से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। इससे पहले तीसरा इत्तेफाक हो मैं आपको इतिहास में अभिव्यक्ति को लेकर घटी कुछ घटनाओं की याद दिलाना चाहता हूँ। इसी स्वतंत्रता के नाम पर जमा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी 'प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस' दोहराने की धमकी देते है, उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आज़म खान भारत माता को डायन कहते है, चित्त्रकार एम एफ हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं की अश्लील चित्र बनाते है, अरुधंति राय कश्मीर लेकर भारत को चुनौती देती है, जसवंत सिंह विभाजन के लिए नेहरु को दोषी मानते है, मायावती गाँधी के कार्यों को नौटंकी बताती है। लेकिन फिर इत्तेफाक देखिये हुसैन के पक्ष में अभिव्यक्ति का झंडा बुलंद करने बाले न तो अमेरिका में बनी फिल्म पर कुछ बोलते है, न बुखारी के वयान पर कुछ बोलते है, और न ही आज़म के वयान पर.... है न इत्तेफाक...!!!

भारत में प्रतिबंधित होने से पहले मैंने इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स का 120 सेकंड का वीडियो देखा। इसकी अश्लीलता देख कर मैं इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि किसी को ऐसी स्वतंत्र नहीं दी जा सकती जो किसी की धार्मिक भावनाओं के प्रति इतना असंवेदनशील हो। भारत सरकार ने उसे प्रतिबंधित किया वो सही है।

न सिर्फ भारत के संविधान में बल्कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्र को राज्य और समाज के हित में कुछ निर्बन्धन लगाए गए है,या ऐसा करने की छूट भी दी गयी है। अगर हम आम बोलचाल की भाषा में कहे तो ये निर्बन्धन भी उसी कथन को सही साबित करते है जिसमे दूसरों की नाक शुरू होने से पहले अपनी स्वतंत्रता को सीमित करने की बात कही जाती है। लेकिन ऊपर जो घटनाएं बताईं गयी है उसके हिसाब से मुझे लगता है कि अलग-अलग मामलो में ये नाक छोटी-बड़ी होती रहती है।
आखिर क्यों हम इस स्वतंत्रता को लेकर दोहरे मानदंड अपनाते है? एम एफ हुसैन ने जो भी आपत्ति जनक बनाया हो उसका विरोध हो, इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स की भी आलोचना हो। अभिव्यक्ति के नाम पर हम ऐसी कुछ ऐसा न करें जो देश की संप्रभुता या अखंडता को चुनौती दे, धर्म विशेष के लोगों को आहत करे। इसके बाद अगर ऐसा कोई करता है तो विना जाति या धर्म देखे उसकी आलोचना होनी चाहिए। हम विविधता से भरे देश में रहते है, ऐसी स्वतंत्रतायें भले ही हमे न तोड़ पायें लेकिन फिर भी हमारे बीच खटास तो पैदा कर ही सकती है।
अब प्रश्न आप से- भारत में रहते हुए आप असीमित स्वतंत्रता के पक्ष में है या भारत की अखंठता के.... फैसला आपका...

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हम भारत के लोग...

भारत ने स्वतंत्रता के बाद लोकतान्त्रिक, गणराज्य की शासन प्रणाली को अपनाया जिसका मतलब है की यहाँ लोगो के द्वारा चुनी हुयी सरकार होगी और यहाँ का प्रधान भी लोगो द्वारा ही चुना जायेगा। दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों के संविधान की तरह ही हमारे भारत का संविधान भी "हम भारत के लोग..." से शरू होता है। यह संविधान की प्रस्तावना में है जो पूरे संविधान का एक दर्पण है, संविधान के सार को समझने के लिए अगर आप प्रस्तावना को ही पढ़ ले तो आप एक राज्य के मूल्यों और उद्देश्यों के बारे में एक मोटा-मोटा अनुमान लगा सकते है। जवाहर लाल नेहरु ने संविधान के इस भाग को "संविधान की आत्मा" कहा है। जिन शब्दों से संविधान की शुरूआत होती है उससे ये स्पष्ट हो जाना चाहिए की हम जिस राज्य में रह रहे है उसकी शक्ति का स्रोत इसकी अपनी जनता में निहित है। लोकतंत्र का जो भी प्रासंगिक रूप हम अपना सकते थे हमने अपनाया। लेकिन कुछ की नज़र (शासक वर्ग, पूंजीपति वर्ग) में यही "वास्तिविक लोकतंत्र" है जबकिकुछ(तथाकथित नक्सली) इसे "लोकतंत्र के नाम पर धोखा" मानते है।
      
       अन्ना और रामदेव के आंदोलनों के दौरान उन्होंने ये बात बार-बार दोहराई गयी कि भारत में राज्य की शक्ति का स्रोत जनता है, वही संप्रभु है, वही इस देश की मालिक है। और जब जानता कुछ मांग करे तो इसे मानना संसद की बाध्यता है। लेकिन दूसरी ओर लगभग सभी नेताओं (पार्टी लाइन से हटकर सभी में अदभुत एकता है) का कहना है कि जनता ने संसद में अपने प्रतिनिधियों को चुना है, अपनी शक्ति का प्रयोग वह इन प्रतिनिधिओं के माध्यम के से ही कर सकती है अतः जनता अपनी मांगो को "संसद पर थोप नहीं सकती" और ऐसा करना लोकतंत्र पर हमला है। यह बात सबसे पहले टीम अन्ना के सदस्य एवं सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े ने की थी। वहीँ दूसरी ओर एक सम्मलेन में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाड़िया का कहा कि (लोगों द्वारा) अपने को शक्ति का स्रोत कहकर कोई भी सरकार से अपनी बात मनवा सकता है, जो समाज, राष्ट्र, संविधान के लिए खतरनाक हो सकता है। यदि इसका बहुत ज्यादा गूढ़ अर्थ में न जाया जाए तो ये स्पष्ट  है कि वे भी संसद को ही सर्वोच्च मानते है, ना की जनता को। लेकिन जे एन यूं के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पन्त के शब्दों में "ये ठीक है की संसद सर्वोच्च है, लेकिन संसद क्या सिर्फ ईंट-पत्थरों का भवन है, जिसे हम बिना कुछ कहे सर्वोच्च मान ले या ये जनता के उन नुमाइंदो से मिलकर बनती है, जो जनता की ही बात सुन ने को तैयार नहीं है।" कपिल सिब्बल जनता के इस तर्क को नकारते हुए कहते है आखिर देश की जनता के कितने प्रतिशत लोग ऐसी मांग करते है, इस पर पुष्पेश पन्त का कहना है बीज गणित और अंक गणित का हिसाब लगाने वाले इन मंत्रियों से अगर ये पूछा जाए की संसद में बैठने वाले 800 सांसद देश की जनसँख्या के कितने  प्रतिशत है तो इनका क्या जबाब होगा...?"
वास्तिविकता में देखा जाए तो सर्वोच्चता के प्रश्न पर संसद वनाम जनता का ये द्वन्द सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं ने अपने स्वार्थ वश ही पैदा किया गया है। संसद कानून निर्माण के लिए सर्वोच्च है इस पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए लेकिन उस संसद के मूल में हमेशा जनता ही होती है तो स्वाभाविक है की वास्तिविक शक्ति उसी में मानी जाए। अंत में मैं अब्राहम लिंकन के प्रसिद्ध कथन से अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि-लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार है" इससे भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शक्ति किसमें है।










बुधवार, 22 अगस्त 2012

असफल कौन हुआः अण्णा या जनता ?

सरकार द्वारा 9 दिनों के अनशन के बाद कोई ध्यान ना दिए जाने पर अन्ना और उनकी टीम ने राजनैतिक विकल्प देने कि बात क्या कि यहाँ तो "खास से लेकर आम" सभी ने उन पर राजनीति करने का आरोप लगा कर उनको असफल करार दे दिया. सरकार पक्ष ने इसे अपने आरोपों का पुष्टिकरण बताया तो विपक्ष ने दबे एवं हल्के स्वर से इसे लोकतंत्र में एक और विकल्प करार दिया. किसी भी पार्टी से ना जुड़े आन्दोलन के आलोचकों ने इसे अन्ना कि नेतृत्व कि कमजोरी करार दिया लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है सभी ने अन्ना पर राजनीति करने का आरोप लगाया और इसको असफल करार देते हुए, टीम सहित अन्ना को दोषी ठहराया.
 पहले मै बात करूँगा कि "अन्ना अब राजनीति कर रहे है". प्रख्यात राजनितिक विश्लेषक डॉ. योगेन्द्र यादव के अनुसार-अपने किसी भी अधिकार के लिए आवाज मुखर करना राजनीति ही है". फिर ये एक घर में भाई-बहन के झगड़े में लड़कियों द्वारा अपने अधिकारों कि बात हो, समाज में व्याप्त किसी पुरापंथी प्रथा के विरुद्ध आवाज हो या चुनावों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लेने कि बात हो, इन सभी जगहों पर राजनीति ही होती है. लेकिन हम जिस समाज में रहते है उसमे चुनाव लड़ने को ही राजनीति करना माना जाता है और राजनीति को एक बुरा खेल कहा जाता है. डॉ.शिव खेड़ा के अनुसार कोई भी खेल बुरा या गन्दा नहीं होता, गंदे तो इसके खिलाडी होते है. अब मैं अपने पाठको से ही पूछना चाहता हूँ कि क्या अन्ना ने अभी से राजनीति करना शुरू किया है या किसी भी आन्दोलन को गैर राजनैतिक कहा जा सकता है? क्या वे ऐसा करके कुछ बुरा कर रहे है? 
दूसरी बात कि "अन्ना असफल हुए". ना सिर्फ भारत में बल्कि हर एक वास्तिविक लोकतान्त्रिक देश में लोगो के पास अपनी बात मनवाने के लिए अनशन के साथ-साथ चुनावों में भाग लेकर अपनी मांगो को मनवाने का मौलिक अधिकार रहता है. ऐसे में अगर किसी का एक विकल्प यदि कारगर ना हो तो दूसरे विकल्प भी तो सबके पास रहता ही है, गूंगी-बहरी-अंधी, अपनी ही बात से पलटने बाली सरकार, गाँधी जी के बन्दरों का जब दूसरा ही अर्थ लगाये तो राजनीतिक विकल्प देने में क्या बुराई है? हम भारतीयों में 99% को रंग दे बसंती फिल्म अच्छी लगती है, सब चाहते है कि यहाँ भ्रष्टाचारी व्यबस्था का परिवर्तन होना चहिये, इसके लिए क्रांति कि जरूरत है. गाँधी जी, भगत सिंह पड़ोस में हो, क्रांति के लिए हनुमान जी आ जाए मुझे कुछ ना करना पड़े क्योकि मैं अपने तरीके से भ्रष्टाचार मिटाऊंगा, ये तरीका क्या होगा मुझे खुद पता नहीं है, फिर जब मौका मिलता भी है तो मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? एक बार घंटे-दो घंटे भर के लिए जंतर मंतर या रामलीला मैदान जाने भर से आम जनता के कर्तव्य पूरे हो जाते है? कुछ लोगों का कहना है कि सिर्फ एक लोकपाल बन जाने से ही भ्रष्टाचार तोड़े ही मिट जायेगा इसके लिए हम सभी को जागरूक होना पड़ेगा. निश्चित ही ये सही है लेकिन मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि लोकपाल बनने से दूसरे विकल्प यानि कि कि आत्मनियंत्रण या आत्मानुशासन पर क्या फर्क पड़ेगा. ये अपनी जगह महत्वपूर्ण है लेकिन समाज कितना भी आदर्शवादी क्यों ना हो क़ानून कि जरूरत हमेशा रहती है.
सपनो का भारत घर बैठ कर दूसरो कि कमियाँ निकालने से, FaceBook -Twitter पर नहीं बनता. अंतिम विजय तक साथ रहना पड़ता है. मैं मानता हूँ कि अन्ना और उनकी टीम से कुछ गलतियां हुयीं होंगी, आपकी भी खुछ शिकायतें होंगी, अगर कमियां निकालने कि ही बात हो तो मुझे नहीं लगता कि दुनिया मे ऐसा कोई निरा ही होगा जो आपके आदर्श के खांचे में हूँ-व-हूँ आ जाये. गलती अन्ना कि नहीं उस जनता कि है जो एक बार में वन्देमातरम या इन्कलाब कहने में थक जाती है.