शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

क्रिकेट से कश्मीर को समझिए

तीन दशक पहले, दो पत्रकार, दोनों कश्मीरी, दो मैच, दो कहानियां, एक सवाल



#कहानी_एक- जम्मू-कश्मीर राज्य में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का पहला मैच श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में खेला गया था। साल 1983 का था, महीना अक्टूबर का और तारीख़ 13 थी। इसी साल भारत अपना पहला क्रिकेट विश्वकप जीत चुका था। श्रीनगर में होने वाला क्रिकेट मैच भी भारत और वेस्टइंडीज के बीच था। मेरा दोस्त रवि किसी तरह दो टिकट ले आया, हम समय से बहुत पहले ही स्टेडियम पहुंच गए। हम लोगों ने अपनी सीटें खोजी और बैठ गई। इन सीटों को हाल ही में हरे रंग से पोता गया था। मैदान में दोनों कप्तान आए, टॉस हुआ। टॉस वेस्टइंडीज ने जीता, और पहले गेंदबाजी करने का फैसला किया। कुछ क्षण बाद जैसे ही ओपनिंग के लिए सुनील गावास्कर और के. श्रीकांत आए, मैं जश्न में चिल्लाया।
और फिर कहानी शुरु हुई।
हम (मैं और रवि) शिगूफ़े में थे, जल्द ही यह टूट गया। पूरा स्टेडियम पाकिस्तान ज़िंदाबाद के शोर में सराबोर था। पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी के हरे झंडों से स्टेडियम पटा था। स्टेडियम में तमाम लोग पाकिस्तानी क्रिकेटरों के पोस्टर भी लहरा रहे थे। इस सबसे के बीच भारतीय क्रिकेटरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी, उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि करना क्या है। (Rabbits cought in headlights)
अपनी पारी की सोलहवीं गेंद पर सुनील गवास्कार अपना कैच दे बैठे। भारत की पूरी पारी 41 ओवरों में 176 रनों पर सिमिट गई। फिर जब फील्डिंग की बारी आई तो भारतीय क्रिकेटरों को मैदान पर छींटाकशी (शोषण) का सामना करना पड़ा। दिलीप वेंकसरकर पर किसी ने आधा खाया हुआ सेब फेंका, जो उनकी पीठ पर जाकर लगा।
भारत मैच हार गया था।
कई वर्षों बाद जब मैं बतौर पत्रकार एक पार्टी में कीर्ति आज़ाद से मिला और उस मैच की यादें ताज़ा करने की कोशिश की, तो उन्होंने याद करते हुए कहा "मानो हम पाकिस्तान में पाकिस्तान के ही खिलाफ़ खेल रहे थे"
मैं और रवि एक-दूसरे से बिना कुछ बोले, चुपचाप अपने घर की ओर बढ़े। मेरा मन बहलाने के लिए रवि ने मुझे कोल्डड्रिंक पिलाई।
अगले दिन मैंने रहमान से बचने की कोशिश की। लेकिन मुझे पता था कि मैं बच नहीं पाउंगा। रहमान हमारा दूधिया था। अगले दिन सुबह-सुबह वह दरवाजे पर आया, आवाज़ लगाई। अधिकतर मैं ही दरवाजे पर आता था, और अक्सर मेरी उससे क्रिकेट और पाकिस्तान को लेकर तकरार होती थी। हालांकि यह सब मजाकिया होता था लेकिन कभी-कभी मैं इसे बहुत सीरियसली ले लेता था।
लेकिन उस दिन मैं दरवाजे के पीछे छिप गया। मेरी माँ दूध लेने गईं। रहमान ने उनसे पूछा... वह (मैं) कहा हैं?
ऐसा लगा मानो उसे एहसास हो गया था कि मैं दरवाजे के पीछे छिपा हूँ। उसने जोर से कहा... पाकिस्तान ज़िंदाबाद!
माँ मुस्कराई...
रहमान ने माँ से कहा... अपने बच्चे से कहना कि पाकिस्तानी गेंदबाजों के सामने गवास्कर मेमना है।
अब मुझसे रहा नहीं गया। हालांकि मैं गावास्कर का फैन नहीं था लेकिन मुझे लगा कि उन्हें डिफेंड करना चाहिए।
आंखों में आंसू लिए मैंने कहा- श्रीकांत के सामने तु्म्हारे सारे पाकिस्तानी हीरो डरते हैं।
ओह... तो तुम यहाँ छिपे थे! तुम दाल खाने वाले इंडियंस कभी पाकिस्तान का मुक़ाबला नहीं कर सकते!
माँ ने बीच में टोकते हुए रहमान से कहा... क्यों बचपना दिखा रहे हो?
रहमान ने मेरी तरफ मुस्कराकर जवाब दिया- यह युद्ध है बहनाई!
(साभार; Our Moon Has Blood Clots, राहुल पंडिता) 
#कहानी_दो- साल 1986 की बात है। संयुक्त अरब अमीरात में क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में भारत-पाकिस्तान की भिड़ंत हो रही थी। मैच वाले दिन, जिस बस से मैं स्कूल जाता था, उसमें माहौल एकदम उद्वेलित (Charged) था। आदमी, औरतें और बच्चे, कुछ खड़े थे, कुछ सीटों पर बैठे थे, सब के सब बस में रेडियो सेटों के आसपास अपने कान लगाए थे और मैच की कमेंटरी का हर-एक शब्द बड़े गौर से सुन रहे थे। भारत द्वारा दिए गए मुश्किल लक्ष्य का पाकिस्तान पीछा कर रहा था, और स्कोर पाने के लिए बची गेंदों की संख्या बहुत तेज़ी से घटती जा रही थी। मैं ड्राइवर सीट के ठीक पीछे खड़ा था। एक तरफ ड्राइवर अपने पैर से जोर से एक्सीलेटर दबाए जा रहा था, तो वहीं बीच-बीच में स्टीयरिंग को छोड़कर अपने हाथ को बार-बार डैशबोर्ड पर लगे रेडियो के वॉल्यूम पर ले जा रहा था। मैच का क्लाइमैक्स देखने की सबको जल्दी थी, इसीलिए हर कोई जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था। जब-जब जावेद मिंयादाद गेंद मिस करते, बस में सन्नाटा पसर जाता और जैसे ही किसी गेंद को हिट करने के बाद रन लेते, पूरी बस जश्न में डूब जाती।
मेरे घर के पास वाले बाज़ार में बस का स्टॉप था, बस रुकती है, मैच की कमेंटरी सुनने के लिए घर के पास में अबु कसाई की दुकान और मेडिकल स्टोर पर भीड़ इकठ्ठी है। मैच समाप्ति की ओर है। बूढ़े अबु मन ही मन कुछ बुदबुदा रहे हैं। मैं दौड़ लगाते हुए घर में अपना बस्ता फेंकता हूँ। डायनिंग हॉल में दादा, चाची और मेरी माँ रेडियो को घेरे हुई बैठी हैं। दादी नमाज पढ़ने वाली चटाई पर मक्का की ओर बैठकर पाकिस्तान की जीत के लिए दुआएं मांग रही हैं। बाहर अबु कसाई अपने होंठ चबाए जा रहे हैं। रेडियो पर कमेंटेटर की आवाज़ आती है- इस मैच को जीतने के लिए पाकिस्तान को एक गेंद में तीन रन चाहिए। जावेद मिंयादाद के लिए स्टेडियम छोर से चेतन शर्मा गेंदबाजी कर रहे हैं। मैं बाहर की ओर भागता हूँ। भीड़ बहुत बुरी तरह चिंतित है, खामोशी छाई है। अबु अपने हाथों को ढीला छोड़ते हुए कहते हैं "अब कोई चांस नहीं, कोई चांस नहीं" फिर वे अपने रोडियो को उठाकर सड़क पर फेंक देते हैं। सड़क पर रे़डियो के अस्थि-पंजर बिखर जाते हैं। अब हम मेडिकल स्टोर वाले आमीन के रेडियो सेट को घेर कर खड़े हो जाते हैं। चेतन शर्मा मैच की निर्णायक गेंद फेंकने के लिए तैयार हैं। कमेंटेटर बता रहा है मिंयादाद पूरे मैदान का मुआयना कर रहे हैं कि उन्हें गेंद कहाँ पहुंचानी है। गेंद का सामना करने से पहले मिंयादाद ने पश्चिम दिशा में मक्का की ओर बैठकर प्रार्थना की, फिर वे उठे और अब सामना करने के लिए तैयार हैं। चेतन शर्मा ने दौड़ना शुरु किया, मिंयादाद के चेहरे पर दवाब दिख रहा है। स्टेडियम में सन्नाटा है। शर्मा ने गेंद फेंकी, फुलटॉस गेंद... मिंयादाद ने बल्ला घुमाया... रेडियो पर मैच सुन रहे लोग थोड़ा पीछे हटे और इंतज़ार... आमीन ने इसी बीच अपनी शर्ट की बाहें कोहनी के ऊपर खींची... अबु अभी भी अपने होंठ चबाए जा रहे हैं। मैं अपनी बाएं हथेली में दाहिने हाथ से मुक्का मारता हूँ। कमेंटेटर की आवाज़ आती है... इट्स अ सिक्स! पाकिस्तान ने मैच जीत लिया है। उन्होंने जीत के लिए निर्धारित रनों से तीन रन ज्यादा बनाए।
लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं, उछलते हैं, नाचते हैं, और फिर पटाखों की आवाज़ों के बीच चिल्लाते हैं।
इससे पहले वाले पैरा में लेखक ने लिखा है... भारत और पाकिस्तान के हर क्रिकेट मैच को हम देखते थे। हमने कभी भारत के लिए जश्न नहीं मनाया। अगर मैच भारत-पाकिस्तान के बीच होता, तो हम पाकिस्तान का समर्थन करते। अगर भारत-वेस्ट इंडीज के खिलाफ हो तो हम वेस्ट इंडीज का समर्थन करते, इंग्लैंड के खिलाफ हो तो इंग्लैंड का समर्थन।
(साभार; The Cerfewed Nights, बशारत पीर)
राहुल पंडिता और बशारत पीर, दोनों ही पत्रकार हैं। दोनों कश्मीर से हैं।
आप सोच रहे होंगे कि यह इतनी लंबी कहानी किस लिए? जावेद मियांदाद वाली दूसरे कहानी तो सबको पता है।
हाँ, यह सबको पता है। जो इस दौर में होश संभाल चुके थे, और जो तब थे भी नहीं, उन्हें भी उस रोमांचक मैच की यह कहानी पता है।
अब एक बार समय पर गौर कीजिए। ये साल 1883 और 1986 की बातें हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद के कश्मीर के इतिहास में नज़र डालें तो हम पाएंगे कि 1947 से लेकर 1987 तक कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता थी। (यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं) माहौल में परिवर्तन आया 1987 में हुए विधानसभा चुनावों के साथ। इन्हें वाटरशेड मूमेंट की संज्ञा दी गई है। कहा जाता है कि इन चुनावों में तत्कालीन संघ सरकार ने जमकर धांधली कराई और चुनाव परिणाम फारुख़ अब्दुल्ला (नेशनल कॉन्फेंस) के पक्ष में मोड़े गए। हम यहाँ बिना लाग-लपेट के कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि 1987 के विधानसभा चुनावों में सरकारी मशीनरी द्वारा धांधली की गई थी, जिस कारण चीज़ें बिगड़ी और फिर इतनी बिगड़ती चली गईं जो सेना लगानी पड़ी और फिर सैन्य शासन के बाद लोग भारत से आज़ादी मांगने लगे।
अब यहाँ यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि सेना का कथित अत्याचार से कश्मीर भारत से दूर जा रहा है तो 1987 के पहले कौन से कारक थे, जो वहाँ की अवाम में इस हद तक नफ़रत भरी थी भारत के खिलाफ़?
शाह फैसल ने भारत की सबसे बड़ी और सबके कठिन परीक्षा पास की है, वे जो भी कहेंगे, उस पर सवाल उठाना किसी के लिए आसान नहीं है। इसीलिए हम उनके ऑबज़रवेशन को यहीं छोड़ते हैं।
स्वयं से, और उन लोगों से प्रश्न पूछते हैं जो कश्मीर समस्या को मज़हबी आंदोलन ना मानकर इसे महज़ राजनीतिक मसला मानते हैं और अलगाववादियों से बातचीत से पक्षधर हैं कि, भारत के प्रति कश्मीरियों में यह नफ़रत क्या मज़हब के कारण नहीं है? अगर मज़हब इस पूरी समस्या के कोर  में नहीं तो पाकिस्तान से मिलने की ऐसी कोई सी दूसरी वजह दिखाई देती है? अगर इस समस्या की जड़े जिहादी ज़मीन में धंसी हैं तो क्या हम फिर से यह लड़ाई हारेंगे? जब सवाल ही कठिन हैं तो हल तो कठिन होगा ही।
ध्यान रखिए, यह सवाल हम 1983-1986 में जाकर कर रहे हैं।

(नोट: उपर्युक्त दोनों किताबें अंग्रेजी में हैं। भावानुवाद करने की कोशिश की गई है। संभव है कि कुछ गलतियां हों लेकिन मोटे तौर पर कहानियां यही हैं)