रविवार, 8 दिसंबर 2013

दिल्ली सत्ता समीकरण/संभावनाएं -एक संवैधानिक अवलोकन

दिल्ली विधानसभा चुनावों में सत्ता के समीकरणों ऐसे उलझे हैं कि एक तरफ जहाँ आम आदमी भी शीर्ष पद पर पहुँचने की सोच रहा है तो वहीँ मंझे हुए राजनैतिक दल संवैधानिक प्रावधान के चलते सरकार बनाने कि जुगत में हैं।आम आदमी पार्टी की यह जीत उनके लिए "आशा का  सूर्य"(आशा की किरण नहीं कहूंगा, क्योकि वो बहुत छोटी होती है) है जो बदलाव चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं लेकिन फिसलन भरी राहों पर कुछ दूर डगमगाकर बैठ जाते हैं या 'कुछ नहीं बदलने वाला' के मन्त्र को आत्मसात कर लौट जाते हैं।

दिल्ली विधानसभा की स्थिति पर नज़र डाली जाए तो इस समय भाजपा अपने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के साथ मिलकर 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी राजनैतिक दल के रूप में उभरी है। वहीं आम आदमी के सपनो को लेकर आगे बढ़ रही आम आदमी पार्टी के पास 28 सीटें हैं, कांग्रेस 8 के साथ तीसरे पर और एक-एक सीट जनतादल यूनाइटेड और स्वतंत्र उम्मीदबार ने जीती है। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने के लिए 36 सीटों की जरूरत है जिसके लिए भाजपा को अगर 1 स्वतंत्र उम्मीदबार का समर्थन भी मिलता है तो उसकी संख्य़ा 33 तक ही पहुँच पाएगी, जनतादल भाजपा से संबंध तोड़ चुकी है तो उसके समर्थन कि उम्मीद पार्टी को स्वयं ही नहीं होगी।

ऐसी स्थिति में दिल्ली के उपराज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अपनी स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उपराज्यपाल सदन के सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण देकर एक निश्चित समयावधि में बहुमत सिद्ध करने के लिए कह सकते हैं।
दिल्ली विधानसभा की वर्तमान सरंचना के चलते 36 का आंकड़ा नहीं छुआ जा सकता। अब यहाँ एक बार फिर कहानी दिलचस्प हो जाती है. 
संभावना एक-
 दल परिवर्तन को रोकने के लिए 1985 में संविधान में 52वां संसोधन किया गया जिसके अनुसार किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य सत्ता के लालच में अगर सदन के सबसे बड़े दल को समर्थन देना चाहें तो उनकी संख्या अपने दल कि संख्य़ा से कम से कम एक तिहाई होनी चाहिए। लेकिन 2003 में हुए 91वें संविधान संसोधन द्वारा दल बदल के लिए जरूरी संख्या को बढाकर दो-तिहाई कर दिया गया। इसके बाद भाजपा को अगर अन्य दलों के लोगों का मत लेना है तो उसे कांग्रेस के 8 सदस्यों में से 6 को अपने पक्ष में लाना होगा। चूंकि कांग्रेस और भाजपा परंपरागत प्रतिद्वंदी हैं तो ऐसी स्थिति में ये होना मुश्किल ही लगता है। अब यहाँ एक और संभावना बनती है
संभावना दो-
किसी भी राजनैतिक दल को अपनी सरकार बनाने के लिए सदन में बहुमत सिद्ध करना होता है जो 'उपस्थित एवं मत देने' वालों का 50 फीसदी से एक अधिक होता है। इस आधार पर जब उपराज्यपाल भाजपा से सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिए कहे तो भाजपा की सरकार उस स्थिति में बन सकती है जब कांग्रेस के सभी या कम से कम 5 विधायक वॉकआउट कर जाएं, उपस्थित ही न हो या मतदान में हिस्सा न लें। ऐसी स्थिति में 'उपस्थित एवं मत देने' वालों के संख्या घट जाएगी और बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा भी घटकर 33 पर आ जाएगा। जिसे भाजपा और एक स्वतंत्र उम्मीदवार मिलकर पूरा कर सकते हैं।  केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव ने इसी तिकड़म के आधार पर अपनी सरकार को लगभग 5 सालों तक चलाया था क्यों कि उन्होंने कभी विपक्ष को एकजुट ही नहीं होने दिया और हर बार बहुमत सिद्ध करने के समय कोई न कोई वॉकआउट कर जाता था। लेकिन ऐसी सरकार को आने वाले समय में किसी भी क़ानून को पारित करवाने में इसी प्रक्रिया कि जरूरत होगी। 

लेकिन ये राजनीति है, यहाँ मुश्किल तो हो सकता है लेकिन असंभव नहीं।

बुधवार, 20 नवंबर 2013

भारत रत्न: मनीष तिवारी को खुला पत्र

आदरणीय मनीष जी,
ये पत्र मैं आपको भारत रत्न की चर्चा पर अटल बिहारी वाजपेयी पर आपके द्वारा की गई आपकी टिपण्णी के आलोक में लिख रहा हूँ।
सबसे पहले तो मुझे बीजेपी की अटल जी को भारत रत्न देने की मांग ही समझ में नहीं आती। पुरस्कार कभी मांगे नहीं जाते। लेकिन इसके साथ मैं ऐसा भी नहीं मानता कि पुरस्कार मिलने या न मिलने से कोई फर्क पड़ता है। पुरस्कार न सिर्फ पाने वाले व्यक्ति को उसके कार्यों को वैद्यता देकर उसे प्रोत्साहित करते हैं बल्कि इसी बहाने समाज के लोगों को समाजहित/राष्ट्रहित में कार्य करने को भी प्रोत्साहित करते है। अगर बीजेपी लगता है कि अटल जी भारत रत्न के लिए डिसर्व करते हैं तो उसे कम से कम सत्ता में बीजेपी को अपनी बारी का इंतज़ार करना चाहिए। लेकिन जब राजनैतिक दल अपने ही दलों के नेताओं को भारत रत्न जैसा सर्वोच्च पुरस्कार देते हैं तो इससे न सिर्फ पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति बल्कि इसकी प्रतिष्ठा पर भी सबालिया निशान लगता है।

खैर छोडिए इन बातों को। अब मैं मूल मुद्दे पर आता हूँ। मुझे उस राजनितिक/सामाजिक चितंक का नाम नहीं पता जिसने कहा था कि जो अपने इतिहास को भूल जाते हैं वे इसी इतिहास में कहीं गुमनाम होकर खो जाते हैं। बस इतना याद है कि इस बात को आपकी पार्टी के आपके साथी राशिद अल्वी साहब ने दोहराया था। इसी के साथ आपकी उस प्रतिक्रिया का जिक्र भी यहीं ठीक रहेगा जो आपने मायावती पर अपनी ही मूर्तियां लगवाने पर की थी।आपके अनुसार मूर्तियां लगाने से देश के कानून नहीं परम्पराएं और मर्यादाएं रोकती हैं और जो इसे नहीं मानते वो इतिहास के कूड़ेदान में चले जाते हैं।

आपने कहा था कि चूंकि गुजरात मुद्दे पर अटल बिहारी वाजपेयी ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को तो राजधर्म निभाने की नसीहत दी थी लेकिन नरेन्द्र मोदी को हटाकर स्वयं राजधर्म का पालन नहीं किया। और इस प्रकार गुजरात की घटना उनके दामन पर काले धब्बे लगाती है।

अब जिसके दामन पर दाग लगे हो तो फिर पुरस्कार कैसे दिया जाये? वो भी भारत रत्न सरीखा सर्वोच्च?
आगे बढ़ने से पहले मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि भारत को बनाने में जिसका भी योगदान इतिहास के बिखरे हुए पन्नो में दर्ज है उन हस्तियों की कमियों को खोज कर उनके अच्छे कार्यों को नकारने की आदत मेरी कभी नहीं रही है लेकिन जब इन हस्तियों के बीच अपने और पराए की रेखा खींच कर अपनों का गुणगान और दूसरों की बुराई की जाती है तो एक सीमा बाद चीजें असहनीय हो जाती हैं। ये अगर अपनों के गुणगान तक ही सीमित रहे तब भी सहन किया जा सकता है।

राजनितिक जीवन में महज़ कुछ छीटों के कारण अगर किसी को भारत रत्न के अयोग्य ठहराया जा सकता है तो आपातकाल ने श्रीमती इंदिरा गाँधी के राजनैतिक जीवन के पर छींटे ही नहीं लगाए है पूरा दामन ही काला कर दिया है। पंजाब में अपनी पार्टी को ज़माने  लिए क्या-क्या खेल खेले गए। दूसरा राजीव गाँधी के कार्यकाल में शाहबानो, अयोध्या ताला प्रकरण जैसे गैरजरूरी मुद्दों पर फैसले लिए गए। यूनियन कार्बाइड के एंडरसन को सरकार की पहल पर सकुशल भारत से जाने दिया गया इससे भी बढ़कर बोफोर्स मामले में प्रधानमंत्री का नाम आया। यहाँ आप बोफोर्स पर सीबीआई की क्लीन चिट का हवाला दे सकते हैं लेकिन जब राजीव जी को भारत रत्न दिया गया तब वो आरोपी ही थे। और दुर्भाग्यवश पेड़ गिरने से धरती भी उन्ही के आगमन के समय हिली थी।

कभी राजनीति से फुर्सत मिले तो एक निवेदन हैं ऊपर बताई बातों पर कुछ पढने के अलावा उस इतिहास को भी पढ़िए जिसमे भगत सिंह की विचारधारा को उग्रवादी बता कर उन्हें और उनके साथियों को 'आतंकवादी' कहा गया है। अगर ये सिर्फ इतिहास में एक इतिहासकार का पक्ष भर मानकर टाला जा सकता था तो जरूर इसकी यहाँ चर्चा न करता। ये वो अधिकृत इतिहास है जिसे न जाने कितनी पीढियां पढ़कर आगे बढ़ चुकीं हैं बल्कि निरंतर क्रम चल रहा है। अब जब ऐसा हम पढ़ेगें तो कैसे कोई भगत सिंह के कार्यों को याद कर उन पर गर्व करेगा? भारत रत्न तो दूर की बात है। वैसे भी आपकी सरकार बिना दाग वालों को रत्नों से नवाजती है फिर भगत सिंह इतिहास के हिसाब से 'आतंकवादी' थे.!! फिर मेज़र ध्यानचंद का दामन भी दागदार नहीं है न ही वो अपने-पराए में बंटे हुए है फिर उन्हें 'सुपरसीड' करने का कारण भी समझ में नहीं आता। ऐसा लगता है खेल के क्षेत्र में भारत रत्न दे कर आपकी सरकार ने भावनाओं को भुनाने (कैश कराने) की कोशिश है। भारत रत्न की योग्यता रखने वालों संख्या अपने -अपने हिसाब से घट-बढ़ सकती है।

बस अपनी बात को अंज़ाम तक पहुंचाने की कोशिश करते हुए यही कह सकता हूँ कि आप विस्टन चर्चिल भी नहीं हैं जो दावा कर सकें कि इतिहास आपका मूल्यांकन सही ही करेगा क्योकि आप ही इतिहास लिख रहें हैं। देश की सीमाओं से परे व्यक्तित्व रखने वाले विरले ही होते हैं अमूमन राष्ट्र ही सर्वोच्च होता है। एक परिवार का अनुसरण वर्तमान बना सकता है और थोडा-बहुत भविष्य भी लेकिन इतिहास में जगह नहीं दिला सकता। काल का चक्र किसी को नहीं छोड़ता। आज जो वर्तमान है कल भूत बन जाएगा। हर भूत इतिहास नहीं बनता। इतिहास का कूड़ादान बहुत बड़ा है।

 सधन्यवाद
 आपका
अपने देश के इतिहास और इसके नायकों पर गर्व करने वाला एक आम नागरिक

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

भारत में मानसून और मेरी पढ़ाई

'मानसून' शब्द भर से बारिश का एहसास होने लगता है
भूगोल की पढाई में मानसून को समझना शायद सबसे कठिन है। इसका कारण है कि मानसून से संबंधित घटनाओं के निर्धारण में एक नहीं बल्कि अनेक कारण शामिल होते हैं। जैसे मैदान, पहाड़-पठार, जंगल-वन, समुद्र से दूरी, पवनों की दिशा, अक्षांश-देशांतर की स्थिति, दिन-महीना-साल आदि इत्यादि।
फिर अगर बात भारतीय मानसून को समझने की हो तो इस जटिलता में और चार चाँद लग जाते हैं। इसमें चार-पांच सिद्धांत हैं। मेरा मानना है कि जिस तरह विदेशियों के लिए भारत की विविधता में एकता को समझाना एक चुनौती है वैसे ही भूगोल में ज़रा सी भी रूचि रखने वालों के लिए भारतीय मानसून का खाका खींचना मुश्किल है। ये बारिश के बाद बनने वाले उस इन्द्रधनुष के सामान है जिसे शुरू में तो देखने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है लेकिन एक बार जब दिमाग में पूरी छवि बन जाती है तो सातों रंग अपनी आभा बिखेरते हुए स्पष्ट नज़र आते हैं।
मेरे लिए मानसून समझना हमेशा से ही एक रोचक विषय रहा है। विभिन्न परीक्षाओं के लिए भूगोल पड़ना ही पड़ता है और जब भूगोल है तो पवने भी चलेगीं, बारिश भी होगी और मानसून भी आएगा।जाएगा।
औरों के सामान मेरे लिए भी मानसून को समझना नामुंकिन नहीं तो मुश्किल जरूर था। 3-4 बार सर खपाने के बाद भी परिणाम वाही ढाक के तीन पात वाला रहा। फिर मैंने सोचा कि क्यों न जब बारिश हो तभी इस विषय को पढ़ा जाए। मैंने ऐसा ही किया। जब भी वारिश होती, मेरी भूगोल की किताब खुल जाती। पहले जितना सर खपाना पड़ता था अब उससे कम में ही काम चल जाता और समझने में भी आसानी होने लगी।
पेड़ का पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा
 लेकिन आज पांसा पलट गया। पहले जहाँ मैं बारिश होने पर मानसून समझने की कोशिश करता तो वही आज मानसून के बारे में पड़ते हुए दिल्ली भीग रही है। इसे महज़ इत्तेफाक़ ही कहा जाएगा। अपने रूम के अन्दर बैठे हुए भी मुझे ये लिखते हुए लग रहा है कि मानो जैसे मेरे रूम के बाहर पेड़-पौधे सुबह की इस बारिश से ताज़ा हो गए हैं वैसे ही मैं भी हो गया हूँ। घनघोर काले-काले बदरवा छाए हैं। और हाँ अंत में हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में "विश्व स्तरीय दिल्ली वारिश के कारण जाम में फंस गई है"। न्यूज़ चेनलों को कुछ घंटों के लिए ही सही सचिन के बाद सेकेण्ड टॉप लीड वारिश की खबर मिल गई है।

मंगलवार, 24 सितंबर 2013

राष्ट्रपति महोदय को पत्र: एक भावनात्मक निवेदन

आदरणीय राष्ट्रपति महोदय,

माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई 2013 को दिए गए निर्णय को सरकार द्वारा अध्यादेश के माध्यम, पलटने के प्रयास के संबंध में, मैं ये पत्र लिख रहा हूँ.
भारत में न सिर्फ राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली बल्कि पूरी की पूरी राजव्यवस्था के प्रति जो रोष आमजन में है उससे आप परिचित ही होंगे. लेकिन इस सबके बावजूद स्वत्रंत्रता दिलाने वाले आदर्शों और बाद में नेहरु जी या शास्त्री जी द्वारा स्थापित मानदंडो के भरोसे मुझे जैसे करोड़ों युवा भारत को बदलने के सपने के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में अपने पूर्वजों द्वारा खींची गई आदर्श रेखा पर चलने का प्रयास कर रहे है.
जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का सामना करने के बाद भी उम्मीद की इस किरण के साथ आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं कि आज नहीं तो कल स्थिति जरूर सुधरेगी. आलोचकों को स्थिति भले ही बाद से बदतर लगे लेकिन मेरे लिए अभी भी संसद "लोकतंत्र का मंदिर" है.
हम ऐसी संसद चाहते हैं जो महात्मा गाँधी या नेहरु जी सपनो के अनुरूप हो, हम शास्त्री जी जैसे मंत्री चाहते हैं जो महज़ एक दुर्घटना पर अपना त्यागपत्र देने को तैयार हो जाएं और हम ऐसी संसद चाहते हैं जिसमें लोकतंत्र महज़ 51 वनाम 49 का खेल न हो बल्कि मूल्यों और परम्पराओं के अनुरूप सभी मिलकर राष्ट्रनिर्माण के लिए योगदान करें. लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों की सदस्यता रद्द करने संबंधी सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को पलटने के लिए जो मंज़ूरी दी है, उससे बुरा हमारे लिए कुछ हो ही नहीं सकता. अध्यादेश के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं ये संदेश दिया जा रहा है कि निचली अदालतें सही निर्णय नहीं सुनाती या सुना सकतीं हैं और सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ही सही निर्णय करता है.

संसदीय सर्वोच्चता की आड़ में केंद्रीय मंत्रिमंडल का यह कार्य किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता.
महोदय, अब सब कुछ आप पर निर्भर है. हमारे लिए आप ही आशा की अंतिम किरण है. कृपया इस अध्यादेश को अपनी मंज़ूरी मत दीजिए. भारत को "गाँधी और नेहरु का भारत" बनाने का सपना देखने वाले मुझ जैसे करोड़ों आपकी ओर देख रहे है, निराश मत कीजिए.
इसी आशा के साथ …

आपका
भारतीय गणतंत्र का एक आम नागरिक

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

प्रधानमंत्री और संसद सदस्यों के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय प्रधानमंत्री जी/संसद सदस्य,
            सरकार ने हाल में सूचना के अधिकार अधिनियम के अधिकार क्षेत्र से राजनैतिक दलों को बाहर करने के लिए इस कानून में संसोधन करने के लिए एक बिल पेश किया है. इसके साथ ही कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुच्छेद 8(4) पर दिए गए माननीय सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए प्रस्तावित संसोधनों के ड्राफ्ट को मंजूरी दे दी है. 


इन्ही मसलों से संबंधित ये पत्र मैं आप लोगों को लिख रहा हूँ.

आप सभी ने संसद सदस्य/मंत्री बनने से पहले कुछ शपथ ली होगी संविधान और देश की रक्षा के लिए, अपने कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से निभाने की. दो मिनट रुककर उस शपथ को याद कीजिए. क्या आपके ये प्रस्तावित कदम उस शपथ के अनुरूप हैं? अगर यहाँ आप उस शपथ से इसका कोई संबंध न जोड़ पा रहें हो तो कृपया महात्मा गाँधी का वह जंतर याद कीजिए जो हर उस बच्चे की किताब के पहले पन्ने पर चस्पा रहता है जो अक्षर ज्ञान के आरंभ से स्नातक/परास्नातक तक और बाद में भी डिग्रीयां धारण करता जाता है.
क्या आपके ये प्रस्तावित कदम अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को कुछ लाभ पहुंचाएंगे?

आम जनमानस में जनप्रतिनिधियों की क्या छवि है इसके लिए मुझे कोई उदहारण देने की आवश्यकता नहीं है. ये आप सभी भली-भांति जानते हैं. लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी संसद को 'लोकतंत्र के मंदिर' के रूप में देखते है. उनके लिए संविधान 'गीता' के सामान पवित्र है. वे चाहते हैं कि उनके 'मंदिर' और 'पवित्र ग्रंथ' पवित्र ही रहें।
अन्ना के माध्यम से इस संसद ने देश जो वादे किए थे, उनके पूरे न होने पर पहले ही आमजन निराश है, वह अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. ऐसे में आपके ये दोनों कदम जन-असंतोष बढाने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। खासकर सजाहाफ्ता लोगों को फिर से चुनाव लड़ने योग्य बनाना कहीं से भी उचिंत नहीं है. ऐसा कर आप सभी इस मान्यता को स्वयंसिद्ध कर रहे हैं कि "निचली अदालतें सही निर्णय नहीं करती और कोई निर्दोष व्यक्ति भी वे बजह दोषी ठहराया जा सकता है". अगर ऐसा है तो फिर क्यों आम आदमी को उन अयोग्य न्यायालयों के भरोसे छोड़ा जा सकता है?
व्यवस्थाएं ऐसे नहीं चलती, लोगों के सहने की भी सीमा होती है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो लोग सड़कों पर आने को मजबूर होंगे . 

"लोकतंत्र के इन मंदिरों" को पवित्र और सम्माननीय बनाने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यालय ने एक सराहनीय प्रयास किया है. कृपया सवा  अरब लोगों के विश्वास को इन कदमों से ठोकर मत मारिए  लोग आपकी तरफ आशा से देख रहें हैं. 

सधन्यवाद 
मंगलवार, 27 अगस्त 2013 

प्रार्थी
भारतीय गणतंत्र का एक आम नागरिक 


(ये पत्र मैंने लगभग 390 संसद सदस्यों को भी मेल किया है)

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बैजयंत 'जय' पांडा से चर्चा

बैजयंत 'जय' पांडा उन चुनिंदा सांसदों में से हैं जिन्होंने अपने दम पर राजनीति में पहचान बनाई है. जय पांडा ने संसद में रहते हुए आठ निजी बिल पेश किये जिनमें एक बिल राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से भी संबंधित था. इसी मामले पर हाल में सर्वोच्च न्यायलय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। इसके साथ ही देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता वनाम साम्प्रदायिकता के बहस के बीच हमने अपने मित्र श्रीश चन्द्र के साथ मिलकर उनसे बात की… 

अमित:-राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से संबंधित सर्वोच्च न्यायलय ने हाल में दो निर्णय दिए हैं, जिसमें दूसरे निर्णय के अनुसार अगर कोई व्यक्ति जेल में हो तो उसे चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए। आपका इस पर क्या कहना है?
जय पांडा:-देखिये व्यापक रूप से मैं इसका समर्थन करता हूँ कि जो दोषी हैं उनको चुनाव लड़ने ने रोका जाना चाहिए इसके साथ ही इनके लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स गठित किये जाएँ जो सांसद और विधायकों के मामलों की सुनवाई करें इसके साथ जिला परिषदों में बैठने वाले या ग्रामप्रधान जैसे सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों से संबंधित मामलों की सुनवाई करें। ये अदालतें नब्बे दिन या छ महीने में अपना फैसला सुना दें। लेकिन जिस स्थिति की आप बात कर रहे हैं, उसे दो भागों में बांटा जा सकता है-माइनर क्राइम और मेजर क्राइम। अगर कोई रैली में किसी का विरोध कर के गिरफ्तर कर लिया जाये तब उसे चुनाव लड़ने से रोकना सही नहीं होगा लेकिन अगर कोई हत्या, बलात्कार या डकैती जैसे व्हाइट कॉलर क्राइम में पकड़ा जाता है तो फिर ये सही है। फिर उसे रोका जाना चाहिए।

अमित:-इन दो निर्णयों के बाद न्यायपालिका-विधायिका के बीच शक्ति संतुलन की बहस फिर गर्म हो गई है। आप इसे कितना उचित मानते हैं और क्या ये सही है कि व्यवस्था के अंग भले ही अपना काम ठीक से न करें लेकिन फिर भी न्यायापलिका को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?
जय पांडा:-संविधान ने सभी अंगो की शक्तियां निर्धारित की हैं, लेकिन हमें मानना पड़ेगा की जहाँ हमारी विधायिका/कार्यपालिका अपना काम सही ढंग नहीं करती हैं तब लोगों की तरफ से मांग की जाती है कि चुनाव सुधार होने चाहिए लेकिन हमारी तरफ कोई काम नहीं किया जाता. जब विधायिका काम नहीं करती तो एक वेक्यूम बन जाता है। मैं यहाँ अपने साथियों से कहना चाहता हूँ कि हमने अपना काम न करके मैदान खली छोड़ दिया है उस पर कोई और खेल रहा है। और फिर न्यायिक सक्रियता को लोगों का समर्थन भी प्राप्त है।

श्रीश:-लोकसभा चुनाव में अब एक साल से कम समय है। मोदी के इमरजेन्स के बाद कम्युनल वर्सेज सेक्युलर की बहस तेज़ हो रही है जबकि देश में व्याप्त मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। आप इसे कैसे देखते हैं?
जय पांडा:-देखिये देश में कोई एक मुद्दा नहीं है और ये सही नहीं है कि बहस सिर्फ दो पार्टियों के बीच हो रही है। पिछले बीस सालों से क्षेत्रीय पार्टियाँ उभर रही हैं और तीन-चार सालों में जो भी सर्वे या ओपिनियन पोल हुए हैं उसमें इन क्षेत्रीय दलों को बढ़त मिलती हुयी दिख रही है। तो कम्युनिस्म एक मुद्दा है इसके साथ और भी मुद्दे हैं जैसे विकास एकदम रुक गया है, रूपए की हालत कमज़ोर हो गयी है जिसका हमें फायदा होना चाहिए लेकिन नीतियों के आभाव में हम लाभ नहीं ले पा रहे हैं। तो मुद्दे तो और भी हैं।

श्रीश:-लेकिन इस बहस में तो क्षेत्रीय पार्टियाँ भी शामिल होती दिख रही है चाहे वो जेडीयू हो, समाजवादी पार्टी हो या बीजू जनता दल.?
जय पांडा:- मैं फिर आपसे कहूँगा कि सिर्फ एक मुद्दा नहीं है कई मुद्दे है वो भी एक मुद्दा हो सकता है। जेडीयू के बारे में मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहता। क्षेत्रीय दलों की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। ये मूवमेंट (क्षेत्रीय पार्टियों का उभार) सही दिशा में है। 40-50 साल पहले जब हमारा देश युवा गणतंत्र था तब ये जरूरी था कि देश को एकजुट रखा जाए लेकिन आज कोई अलगाववादी नहीं है और क्षेत्रीय दल भी अपनी भारतीयता पर गर्व करते हैं। हम लोगों का क्षेत्रीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपना दृष्टिकोण हैं.

श्रीश:-हाल में ममता बनर्जी ने फेडरल फ्रंट की बात चलाई जिसमें आपके नवीन पटनायक, जयललिता, मुलायम आदि ने सहमती जताई है. आप इसका भविष्य कहाँ तक देखते हैं या ये भी आगे चलकर राजग या संप्रग में मिल जायेगा?
जय पांडा:-इसे आप थर्ड फ्रंट कहें या फेडरल फ्रंट एक बात तो सही है कि 120 करोड़ जनसँख्या वाले हमारे देश में बहुत से लोग, वे बहुमत में हो सकते हैं या किसी बड़े समूह में, इन सो कॉल्ड नेशनल पार्टीज को सपोर्ट नहीं करते हैं. दिल्ली में बैठ कर आप सैंकड़ों मील दूर किसी गाँव के लिए नीतियां नहीं बना सकते, डिक्टेट नहीं कर सकते। तमिलनाडु की प्राथमिकताएं अलग हैं, केरल की अलग और ओडीशा की अलग.
एक उदहारण मैं आपको और दूंगा जैसे NCTC का मसला है, इसे मीडिया ने बहुत गलत ढंग से पेश किया। केंद्र में बैठे लोग इसे ऊपर से लाना चाह रहे थे जिसका सिर्फ हमने ही विरोध नहीं किया बल्कि इन नेशनल पार्टीज के अपने मुख्यमंत्रियों ने भी किया। इसका कारण था कि बिना किसी बातचीत के ये ऐसा कर रहे थे. प्रस्तावित मॉडल पकिस्तान में हैं, रूस में था. हमें यूएसए और ब्रिटेन का उदहारण लेना चाहिए जहाँ केंद्र और राज्यों के सहयोग से न सिर्फ ऐसे मॉडल काम कर रहें हैं बल्कि आतंकवाद पर भी लगाम लगी हुयी है.

श्रीश:-अगर हम कृषि की बात करें तो अब कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात होने लगी है. आने वाले समय में भारत की स्थिति में आप इसे किस लिहाज़ से देखते हैं?
जय पांडा:-इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिएअभी भी हमारे यहाँ 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और ये सस्टेनेबल नहीं है. किसी भी विकसित देश में ऐसा नहीं होता, वहां 3-4 प्रतिशत लोग ही कृषि में लगे रहते हैं और उसी से पूरे देश को खिला सकते हैं और निर्यात भी कर सकते हैं. कृषि विकास दर बहुत कम है. इस क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है जिसमें आप जिस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात कर रहे है वो सिर्फ एक एंगल हो सकता है. सिंचाई सुविधाओं में सुधार हो, बाजारों की उपलब्धता बढ़ाई जाए.

अमित:-आपके अनुसार कुछ स्थानीय और क्षेत्रीय आवश्यकताओं की जरूरतें पूरी करने लिए फेडरल फ्रंट का आईडिया सही है.  लेकिन अगर हम कुछ घटनाओ पर गौर करें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं. जैसे श्रीलंका के साथ संबंध तमिलनाडु, बांग्लादेश के साथ संबंध पश्चिम बंगाल और अगर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार रही तो अमेरिका के साथ संबंध उत्तरप्रदेश की इच्छा से निर्धारित होंगे। क्या ये ठीक है?
जय पांडा:-देखिये अभी सिर्फ फेडरल फ्रंट की सम्भावना है. जो कुछ होना है उसमें समय है. लेकिन फिर भी ये प्रश्न महत्वपूर्ण हैं. आपको जो शंकाए हैं वे उचित हो सकती हैं लेकिन मुझे इस बात की इतनी शंका नहीं है. ये सही है कि विदेश नीति पर एक राय होनी जरूरी है लेकिन डोमेस्टिक पालिसी में आप दिल्ली में बैठ कर डिक्टेट नहीं कर सकते। आप रूस या जर्मनी को लीजिये या फिर ब्रिटेन को, वहां शीर्ष नेतृत्व को चुनाव जीतने के बाद भी अपनी नीतियों के बारे में लोगों को कन्विंस करना पड़ता है. मीडिया विपक्ष और लोगों से बात करनी पड़ती है. लेकिन हमारे यहाँ सरकारों का एट्टीट्यूड रहता है कि चुनाव जीत गए हैं अब पांच साल तक जो चाहो करो, ये लोकतंत्र नहीं है, हमें उस व्यक्ति से इच्छा के बारे में पूछना चाहिए जो इससे प्रभावित होते हैं.

अमित:-आप नीति निर्माण में जनता की भागीदारी के पक्ष में हैं लेकिन इसी बात के लिए जब सर्वोच्च न्यायलय नियमगिरि हिल्स के खनन में ग्रामसभाओं की भागीदारी के लिए कहा तब आपकी प्रदेश सरकार सिर्फ बारह ग्राम सभाओं को फैसला करने को देती है जबकि उस क्षेत्र में सौ से ज्यादा ग्राम सभाओं को शामिल करने की मांग है?
जय पांडा:-यहाँ पर इस मुद्दे को मीडिया ने गलत ढंग से रिपोर्ट किया है. हम शक्तियों के विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं लेकिन लोगों को इसमें शामिल किया जाए उसको लेकर कन्फ्यूजन है. भूमि अधिग्रहण में उसी से पूछा जाना चाहिए जिसमें इसकी जमीन जा रही हो. बीस मील दूर के लोगों से क्यों पूछा जाए? कोई एक्टिविस्ट कहता है कि अगर पचास गावों में एक भी विरोध करता है तो जमीन का अधिग्रहण नहीं हो तो. ये तो प्रैक्टिकल नहीं है न, बहुमत का मत लिया जाना चाहिए। भूमि अधिग्रहण कानून में यही है. यू कांट कन्विंस एव्री सिंगल पर्सन, इट्स नॉट प्रैक्टिकल। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में भी बहुमत का कांसेप्ट अपनाया गया है.

अमित:-नियमगिरि में वेदांत द्वारा खनन का मुद्दा बन अधिकार अधिनियम (FRA)-2006 से सम्बंधित है अगर भूमि अधिग्रहण कानून बन भी गया तो वह इस पर तो कोई प्रभाव डालेगा नहीं।
जय पांडा:-हमारे कई कानून एक दूसरे के विरोधाभाषी हैं जैसे FRA और MMDR (मिनरल एंड माइनिंग-डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट। इन कानूनों में से कुछ उद्योगों को बढ़ावा देते हैं तो कुछ पर्यावरण सरक्षण को. इनमें कभी-कभी परस्पर विरोधी बातें निकल कर आती हैं. हमें इनमे बीच का रास्ता निकलना चाहिए। ये  कुछ तक विधायिका करेगी और कुछ न्यायपालिका।

                                                               फोटो-अमित 
श्रीश:-राजनीती में आने से पहले आप कॉर्पोरेट जीवन में थे फिर राज्यसभा से होते हुए आप यहाँ तक पहुंचे। आज भारत का युवा राजनैतिक रूप से सक्रिय हो रहा है वह मीडिया और सोशल मीडिया पर एक्टिव है लेकिन इलेक्टोरल पॉलिटिक्स  में नहीं आ पता. इसके लिए आप क्या सुझाव देंगे?
जय पांडा:-मैं यहाँ तीन-चार बातें कहूँगा। एक तो सभी लोगों को राजनीति  में नहीं आना चाहिये। अगर ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब हमारे देश में और जगह भी रोज़गार के अवसर हैं. ये नहीं होना चाहिए कि सभी लोग राजनीति करने लगें फिर तो यहाँ उदासीनता की स्थिति बन जाएगी। दूसरा, राजनीति में आना एक बात है लेकिन किसी को वोट भी न देना अलग बात, ये स्थिति सही नहीं है. और राजनीती में शामिल होने पर कहना चाहूँगा कि इस क्षेत्र में लेवल प्लेयिंग फील्ड अभी नहीं है. एक साधारण नागरिक के सामने राजनीति में आने के रस्ते में बहुत कठिनाइयाँ हैं अगर उसकी पकड़ नहीं है या कोई परिवार का सदस्य पहले से राजनीति में नहीं है तो लिए बहुत मुश्किल है. ये व्यवस्था हमें बदलनी होगी।

श्रीश:- बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जो आपने समय दिया और हमसे बात की.
जय पांडा:- जी धन्यवाद और भविष्य के लिए आप लोगों को शुभकामनाएं। 


बैजयंत 'जय' पांडा, बीजू जनता दल से ओडीशा के केंद्रपाडा का 2009 से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं,
वर्ष 2000 में राज्यसभा से राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण किया, 2006 में पुनः चुने गए। 
जय पांडा ने मिशीगन टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी से स्नातक किया है. 
facebook- https://www.facebook.com/Baijayant.Jay.Panda
twitter-https://twitter.com/Panda_Jay
website-http://bj.panda.name/

(अरविंद केजरीवाल से हुयी बातचीत को पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें)
http://amitantarnaad.blogspot.in/2013/02/blog-post.html

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

ये (ब्रिटिशर्स) हमें सभ्य बनाने आए थे.!!

अंग्रेज भारत में आने और राज करने को ईश्वर का आदेश मानते थे. उनका मानना था कि दुनिया में ईसाई धर्म ही सबसे प्रगतिशील और मानव कल्याण करने वाला है अतः इसी के माध्यम से हम नए नए क्षेत्रों में लोगों को 'सभ्य' बनायेंगे। यूरोप में औद्योगिकीकरण के बाद नए नए उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें इंग्लैंड अन्य यूरोपीयदेशों से अपेक्षाकृत कुछ कदम आगे निकल गया और उसने भारत जैसे धनवान देश पर साम-दाम-दंड-भेद
अपना कर अपना तम्बू ताना जो समय के साथ बढ़ता ही गया. 1833 के चार्टर से ईसाई धर्म प्रचारकों को अपने धर्म का प्रचार करने और लोगों को ईसाई बनाकर सभ्य बनाने का लाइसेंस मिल गया.

1857 में जब अंग्रेजो को अपने राज पर खतरा महसूस हुआ तो घबराए/बौखलाए हुए अंग्रेजों में से एक और कम्पनी
के नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष मैंगल्स ने ब्रिटिश संसद में कहा-" ईश्वर ने भारत का विशाल साम्राज्य अंग्रेजों को ईसामसीह की विजय पताका फहराने को दिया है है अतः प्रत्येक अंग्रेज को इसे बचाने में अपनी पूरी क्षमता लगा देनी चाहिए". मतलब बहाना धर्म प्रसार का था लेकिन उद्धेश्य कुछ और था.

सभ्य बनाने की इस कोशिश में अंग्रेजों ने यहाँ डाक-तार की शुरुआत की, रेलें चलाई, नए-नए विश्वविद्यालय खोले। सुधारों का ये क्रम 1857  बाद कुछ तेज़ होता हुआ प्रतीत भर हुआ क्योंकि सभ्य बनाना तो एक बहाना भर था अपने साम्राज्य की वैद्यता बनाये रखने के लिए. दरअसल उनका प्रमुख उद्देश्य यहाँ के संसाधनों से अपने देश की तिजोरियां भरना था. जॉन सुल्विन के अनुसार-"हमारी प्रणाली स्पंज की तरह कार्य करती है जो गंगा का पानी सोखकर टेम्स के किनारे बर्षा करती है". बाद  स्पष्ट हो गया की अंग्रेज अगर यहाँ मुस्कराते भी थे  इसमें उनके अपने हित थे.

कुछ औपनिवेशिक दृष्टिकोण वाले इतिहास कारों के मतानुसार अगर अंग्रेज भारत न आये होते तो यहाँ मध्ययुगीन इस्लामी राजशाही ही बनी रहती जिसमे हिन्दू प्रजा शोषित होती और अन्य इस्लामी देशों के सामान यहाँ भी गणतंत्र-लोकतंत्र न पनपता।

इस मानसिकता के इतिहासकार अंग्रेजों के राज को सही ठहराते वक़्त ये भूल जाते हैं इतिहास में "ऐसा न होता तो वैसा होता" का स्थान नहीं होता। अतः अंग्रेज न आये होते तो हम कैसी हालत में होते? ये प्रश्न समय की बर्बादी  ज्यादा कुछ नहीं है.

दुनिया को सभ्य बनाने निकले इन परोपकारी ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए की ये खुद प्रकृति के किस नियम के तहत एक परिवार की गुलामी कर रहें हैं? सपेरों और बाबाओं के देश भारत ने राजव्यवस्था की गणतंत्रात्मक पद्दति अपना ली लेकिन ब्रिटेनवासियों ने क्या किया। स्त्रियों को जहाँ दुसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था उस देश ने 1966 में ही एक महिला को देश का नेतृत्व दे दिया और सभ्यता के ठेकेदारों की घडी इस मामले में बारह-तेरह साल
पीछे थी.

यहाँ कुछेक घटनाओं का जिक्र कर भारत की महानता या उपलब्धियों का गुणगान करना उद्देश्य नहीं बल्कि यहाँ उद्देश्य उस मानसिकता का उजागर करना है जो दुनिया के सामने तो वैज्ञानिकता की आड़ लेकर अपने कुतर्कों को उचित ठहरती है लेकिन जब अपने घर में सुधारों की बात आये तो हर कोई एक परिवार के सामने नतमस्तक नज़र आता है.

आखिर क्यों एक परिवार विशेष के व्यक्तियों और उसमे नवागंतुकों को सामान्य से अलग देखा जाए? धर्म के ठेकेदारफिर किस आधार पर कह सकते हैं की दुनिया में हर कोई एक समान किस्मत लेकर आता है? यहाँ वैज्ञानिकता कहाँ चली जाती है? फिर तो यहाँ बन्शानुगत श्रेष्ठता पर बल देने वाला लैमार्कवाद की ही पुष्टि होती है.
ब्रिटेन में केट-विलियम के बच्चे को अपने को सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह हमेशा अपने-अपने क्षेत्र के महारथियों से घिरा रहेगा। आखिर ये सब उसे सोने की थाली में परोस कर क्यों दिया जायेगा? इसलिए की उसके पूर्वजों ने ब्रिटेन की भूमि को किसी विदेशी शक्ति के हाथों में नहीं जाने दिया गया और छल-कपट से साम्राज्य को इतना बड़ा कर दिया की उसमे सूरज ही नहीं डूबता था? अगर भूभाग जीतना ही महानता का पैमाना होता तो दुनिया मेंगाँधी और मंडेला न पूजे जाते।

लोगो अपने कार्यों से अपने कुल/परिवार/राष्ट्र और अपना नाम रोशन करते हैं यहाँ नवजात बच्चे ने बिना कुछ किये 'जार्ज', अलेक्जेंडर', और 'लुई' के कार्यों की उपलब्धियां हासिल कर ली. और पूरा ब्रिटेन उसके लिए पलकें बिछाए है.

अंत में 1685 में फंसी के तख़्त पर खड़े अंग्रेज नागरिक राम्बोल्ड की
 बात से अपनी बात समाप्त करूँगा-
"मैं नहीं मान सकता की ईश्वर ने कुछ लोगों को दुनिया में इस प्रकार तैयार करके भेजा है की वे हमेशा सवारी गांठे और करोडो लोगों को इसलिए भेजा है की वे घोड़ों की तरह हमेशा उनका बोझ ढोने के लिए तैयार रहें"

सोमवार, 15 जुलाई 2013

एक तार जो पहुँच न सका


अंग्रेजी राज का सहायक 
अंग्रेजी राज ने तार की शुरुआत भारत में
अपने किलों को सुरक्षित रखने के लिए की थी। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दबाने में अंग्रेजो का अगर किसी ने बखूबी साथ दिया था तो वो तार की सक्रियता ही थी। अंग्रेज हमारे प्रयास को दबाने में सफल हो गए।
तार के माध्यम से कोई सन्देश दस से पंद्रह मिनट में एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जा सकता था। इसमें और पारंपरिक डाक भेजने में जो समय की बचत होती है वो डाक के भौतिक रूप से चलने के कारण होती है। मतलब तार को एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए किसी रेल या मोटर गाड़ी की यात्रा नहीं करनी पड़ती। यह सीधे विद्युत तरंगो से अपनी यात्रा कर ये समय बचा लेता था।

तार की अंतिम यात्रा की खबर मैंने शायद सबसे पहले टेलीग्राफ या गार्जियन अखबार वेबसाइट में 10-11 जून के आसपास पढ़ी, जिसमे इसके इतिहास पर हलकी सी चर्चा करते हुए इसके 15जुलाई तक चलने की बात कही गयी थी। तब मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि 15 जुलाई निकल चुकी है और मैं इसके 162-63 साल के इतिहास का हिस्सा बनने से चूक गया। लेकिन एक-दो दिन में जब इसकी चर्चा लगभग सभी समाचार माध्यमो में होने लगी तो याद आया की अभी तो जून चल रहा है और जुलाई तो आने वाली है। मैं हमेशा से ही कम से कम एक बार तार भेजने का अनुभव लेना चाहता था तो तुरंत मैंने अपने एक मित्र को फोन घुमाया और तारों की अदला-बदली के लिए 26 जून के बाद कोई भी डेट फिक्स कर ली। 26 के बाद मुझे झाँसी होते हुए घर जाना था। अपने जिले में टेलीग्राम ऑफिस होने या न होने के रिस्क से बचने के लिए मैंने झाँसी से दिल्ली में बैठे अपने मित्र को 28 जून की तार भेजा। अन्य सरकारी दफ्तरों के विपरीत टेलीग्राम ऑफिस में सन्नाटा था। सन्देश लिखने लिए जो फॉर्म मुझे दिया गया उसमें हर शब्द के लिये एक आयताकार खाना था और ऐसे खानों की संख्या कोई 32-35 रही होगी लेकिन मैंने इतने में ही लगभग 39-40 शब्द 'एडजस्ट' कर दिए और ₹70 का भुगतान किया।
'अपने तार' से बिदाई का गम 
अगले दिन से ही तार का जबाब मिलने का इंतज़ार करने लगा। मेरे मित्र की ये शर्त थी की वे मेरे सन्देश के अनुसार ही जबाब भेजेंगे। मतलब जब उन्हें मेरा तार मिलेगा तब वे मुझे तार भेजेंगे।
 दिन बीतते गए लेकिन मेरा तार दिए हुए पते पर न पहुँच सका। अब तार भेजने की अंतिम सीमा पार हो चुकी है। अब इतना तो तय है कि मैं तार प्राप्त नहीं कर पाऊंगा। इसके लिए मैं बीएसएनएल और अपने मित्र दोनों को दोष दूंगा। बीएसएनएल ने जहाँ अपना कार्य ढंग से नहीं किया तो मित्र महोदय अपनी शर्त के साथ
बैठे रहे।
खैर, मैं तो तार भेजकर इतिहास बनते हुए इसके एक अध्याय में कहीं चिपकने में सफल हो गया लेकिन कोई तार प्राप्त नहीं कर पाया तो लगता है कि इसके गौरवशाली इतिहास के सिर्फ आउटगोइंग वॉल्यूम में जगह बना पाया, इनकमिंग वॉल्यूम में नहीं...

क्या आपने भी किसी को तार भेजा है और क्या वो पहुंचा है ...?

पुनश्च:
अब मैं पुनः पहले पैराग्राफ पर आता हूँ कि काश वर्तमान बीएसएनएल जैसा विभाग तब भी रहा होता और जैसे मेरे मित्र महोदय ने तार भेजने में "सक्रियता" दिखाई वैसी स्थिति अगर राज के समय में रही होती तो क्या अंग्रेज अपने राज को बचाने में सफल हो पाते ??? तो शायद हमारा स्वतंत्रता दिवस पंद्रह अगस्त न होता। लेकिन 1857 1857 था, तार तार था, बीएसएनएल बीएसएनएल है, हमारे मित्र श्रीश हैं। लेकिन इतिहास में if, but किन्तु परन्तु का स्थान नहीं होता।

चलते-चलते
बारिश की बूंदो से गीली धरती की भीनी-भीनी खुशबू के साथ दरवाजे की दहलीज़ पर दस्तक दे रहे सावन के सुहवने महीने में मित्र प्रभात द्वारा लिखी एक कविता की कुछ पंक्तिया-
तरवा न आई सखी, चिठिया न आई 
बीते जाए सवनवा, पिया घरवा न आई सखी...

(प्रभात भोजपुरी के 'अंकुरित होते हुए कवि' हैं और उनके अनुसार ये कविता कालजयी होने वाली है)

शनिवार, 6 जुलाई 2013

लोकतंत्र कैसा हो? उसमें जनता की भागीदारी कैसे बढ़े?

लोकतंत्र-जहाँ शक्तियां जनता में निहित होती हैं और उत्तरदायित्य भी 
लोकतंत्र की परिभाषाओं पर अगर गौर किया जाए तो अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी परिभाषा-"लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा शासन" शायद सबसे
सटीक और प्रसिद्द है। लोकतांत्रिक प्रणाली के मूल में शासन का उत्तरदायित्य स्वयं जनता का ही आता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो व्यक्ति और समाज के लिए क्या कायदे-कानून होंगे इसका निर्णय जनता ही करती है।


लोकतंत्र-स्वतंत्रता, भागीदारी,विकल्प,अधिकार,प्रतिनिधित्व
लोकतंत्र के दो रूप प्रचलित है एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष। लोकतंत्र की सफलता उसमें जनता की भागीदारी पर करती है, उसका स्वरुप भले ही कुछ भी हो। जनता अगर स्वयं शासन  करने में सक्षम हो तो प्रत्यक्ष लोकतंत्र स्थापित हो सकता है लेकिन अगर जनता सक्षम न हो तो  फिर प्रतिनिधि लोकतंत्र ही संभव हो सकताहै। प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए जनसंख्या आकर का जितना छोटा होगा उतना ही अच्छ रहेगा या फिर किसी बड़े भौगोलिक इकाई पर शासन करने के लिए उसे कई छोटे-छोटे भागों में बांटना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ये किसी गावों की बहुलता वाले देश में ग्रामसभाओं को मजबूत करने जैसा है। सत्ता को विकेंद्रीकृत कर गांधी जी के ग्राम-स्वराज को लाया जा सकता है। भारत में पेसा-1996 (Panchayat Extension to Scheduled area Act) और फेरा-2006 (Forest Right Act) जैसे कानून इस दिशा में मज़बूत कदम हो सकते हैं। प्रत्यक्ष लोकतंत्र वैसे तो आदर्श स्थिति ही अधिक लगती है लेकिन फिर भी कुछ हद तक इसका प्रतिबिम्ब स्वित्ज़रलैंड में देखने मिलता है जहाँ कानून बनाने, उसमें संसोधन करने और किसी कनून को वापस (हटाने) करने से संबंधी मुद्दों पर जनता की राय ली जाती है। लेकिन वास्तविक रूप से प्रत्यक्ष लोकतंत्र वर्तमान में कहीं नहीं मिलता।

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की आलोचना करता हुआ एक कार्टून
ऐसी स्थिति में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को ही अधिक जन्नौमुखी बनाने की जरुरत है। उसमे जनता की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है। वैसे तो भारत 65-66 साल के अपने इतिहास में कई गौरवमयी लोकतांत्रिक उपलब्धियों को समेटे हुए है लेकिन फिर भी 'लोकतंत्र के मंदिरों' {संसद/विधानमंडल} में बढ़ता बहुबल और धनबल भारत के नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से दूर कर रहा है। इस स्थिति को और बिगड़ने से पहले हमे कुछ कदम उठाने की जरूरत है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में अगर सुधारों की बात की जाये तो सबसे पहले मतदान को मूल कर्तव्यों में शामिल किया जाए। भले ही कर्त्तव्यों का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य नहीं होता लेकिन फिर भी कर्तव्य एक नैतिक दबाव तो डालते ही हैं। ऐसी ही अनुशंसा 2000 में गठित संविधान समीक्षा आयोग ने भी की थी। 
आर्थिक उदारीकरण के बाद में उच्च/मध्यम वर्ग के आकार में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है जिसकी चुनाव में निर्णायक भूमिका हो सकती है और है भी। ऐसा इसलिए कि एक यह वर्ग तो संख्या के हिसाब से और दूसरा ये वर्ग शिक्षित/जागरूक होने के कारण धर्म या जाति जैसे संकीर्ण मुद्दों से हटकर वोट कर सकता है। लेकिन अभी यह (उच्च/मध्यम) वर्ग दो कारणों से वोट डालने नहीं जाता-एक, वह सोचता है कि उसके पास पर्याप्त संसाधन है और सरकार के कार्यों का उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं है, चुनाव लड़ने वाले से उसका सीधा संबंध नहीं है। फिर क्यों 'झंझट' में पड़ा जाए.!! दूसरा, जैसे-तैसे अगर वह पांच वर्षों में वोट डालने की हिम्मत भी करे तो चुनाव में उतरे प्रत्याशियों की 'आपराधिक पृष्ठभूमि' देखकर वह हताश-निराश होकर घर से नहीं निकलता।

भारतीय लोकतंत्र में चुनावी मुद्दे-आलोचना का कारण
मतदान न करने की इस समस्या से निपटने में (दिल्ली बलात्कार के मामले में गठित) न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की वह सिफारिश महत्वपूर्ण हो सकती है जिसमें उन्होंने जन प्रतिनिधि कानून-1951 में अबिलम्ब संसोधन करते हुए प्रथम दृष्टया दोषी पाए गए (सेशन/जिला न्यालय में) व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराये जाने की बात की है, उच्च/सर्वोच्च न्यायलय में अंतिम अपील का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करना स्वच्छ लोगों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित  करेगा। दूसरे, अब अगर चुनाव लड़ने वाले सही हों तो जनता का ये कर्तव्य बनता है कि वो हर हालत में मतदान करे। इसके लिए मतदान के सभी संभव माध्यमो का उपयोग हो-पारंपरिक जैसे ईवीएम से मतदान, संचार के आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करते हुए इन्टरनेट या एसएमएस से, डाक से मतदान करना संभव बनाया जाए। लेकिन मतदान प्रतिशत अधिक करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। दुनिया में लोकतंत्र का सफल उदहारण माने जाने वाले अमेरिका में मतदान  करने के कई विकल्प होते हैं लेकिन फिर भी वहां 1972 के राष्ट्रपति चुनावों से किसी भी बार मतदान प्रतिशत 56-57 से अधिक नहीं रहा है, इस बार ये 57.1 प्रतिशत रहा। जो निश्चित ही अच्छा नहीं कहा जा सकता। भारत के हालात भी सही नहीं कहे जा सकते। यह 2009 लोकसभा चुनावों में 59.7% रहा। लोकसभा के लिए भारत में मतदान का अधिकतम प्रतिशत 1984 के चुनावों में 63.56 रहा था। अब प्रश्न उठता है- फिर क्या किया जाए?

हार नहीं, रार नई ठाननी होगी
इसके जबाव के लिए हमें थोडा कठोर होने की जरूरत है। मसलन लोकतंत्र  दो या दो से अधिक विकल्पों में से किसी एक सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आज़ादी देता है और अगर आपको उन विकल्पों में कोई भी उपयुक्त नहीं है तो 'सभी को नकारने" का विकल्प भी होना चाहिए। (सभी को नकारने का विकल्प ईवीएम में नहीं है लेकिन पीठाशीन अधिकारी से चुनाव नियम सहिंता-1961 के नियम 49-O के तहत कोई मतदाता फॉर्म भर कर ऐसा कर सकता है). अब यहां कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिसकी संभावना बनती हो। इतना होने के बाद भी अगर कोई लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी कर अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकता तो राज्य को ये शक्ति होनी चाहिए वो ऐसा करने वालों को कुछ सार्वजनिक सेवाओं से वंचित कर सके। जैसे उसे सब्सिडी का लाभ न दिया जाए। यह पेट्रोलियम या सार्वजनिक वितरण से संबंधित हो सकती है। हालांकि ये विकल्प थोड़े मुश्किल लग सकते हैं और ये व्यवहार्यता की कसौटी पर असहज भी हो सकते हैं लेकिन ऐसे ही अन्य संभावित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है।
'लोक' भागीदारी हो तो 'तंत्र' में परिवर्तन संभव है
लोकतंत्र की सफलता के लिए सिर्फ जनता के जागरूक होने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं की जागरूकता महत्व पूर्ण नहीं है लेकिन इसके लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। अगर इंतज़ार किया गया तो चीजें और बिगड़ सकती हैं। कहीं ऐसा न तो कि तब तक लोकतंत्र बहुबल या धनबल की कठपुतली बन जाए। हमें हर हाल में लोकतंत्र के इन मंदिरों को पवित्र रखना है। 'संस्थागत पवित्रता' {Institutional Integrity- Hon,ble SC In PJ Thomas Case} सुनिश्चित करने के लिए सुधारों की ज़िम्मेदारी संसद और विधानसभाओं में बैठने वाले हमारे प्रतिनिधियों की तो है ही, लेकिन जनता भी अपने को कर्तव्यों से मुक्त नहीं कर सकती आखिर जो सुधार हम देखना लाना चाहते हैं उसकी शुरुआत हमसे ही होनी चाहिए। लोकतंत्र के मूल में तो जनता ही है।


शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

एक और (गेम चेंजर) लाली पॉप-खाद्य सुरक्षा

RTI,RTE,MgNREGA,DBT के बाद अब खाद्य सुरक्षा 
देश के लोगों को किस चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है, इसकी जानकारी अगर किसी पार्टी को है तो वो कांग्रेस के अलावा और कोई हो ही नहीं सकती। यूँ ही कांग्रेस ने 65 में से 55-56 साल शासन नहीं किया। अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से अगर पूछा जाए की कौन से किताब में इस तरह की मुफ्त रेवड़ियों को अर्थव्यवस्था में उत्पादक मानकर उनका समर्थन किया गया है, तो यकीन मानिये अर्थशास्त्र के जनक/कहे जाने वाले एडम स्मिथ (कोई जे एम कीन्स या चाणक्य को भी मान सकता है) को भी इसका जबाब देते नहीं बनेगा।
लेकिन फिर भी 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कृषि ऋण माफ़ करने के नाम पर मुफ्त लाली पॉप दिया गया। इसमें कितनी गड़बड़ी हुयी इस पर CAG की रिपोर्ट का जबाब पूरी कांग्रेस पार्टी को देते नहीं बन रहा है। इसी कड़ी में खाद्य सुरक्षा कानून को भी शामिल किया जा सकता है। अध्यादेश पारित होने के बाद देश में 67% परिवारों में प्रति सदस्य प्रति माह पांच किलो अनाज दिया जायेगा, जिसमें चावल तीन रूपए, गेहूँ दो रूपए और मोटा अनाज एक रूपए प्रति किलो के हिसाब से दिया जाएगा।

"कांग्रेस: चुनाव जीतने की मशीनरी"-एक पूर्व कैबिनेट सचिव 
देश भ्रष्टाचार-लोकपाल चिल्लाये तो दसियों संसद-सत्र जनता की आवाज़ सुनने को कम पड़ जाते हैं। लोकपाल पारित करने में (1967-68 से) 45 साल भी कम हैं और अभी भी लोकपाल "चर्चा" में है। किसी को अध्यादेश लाने की जल्दी नहीं है। क्यों? क्यों की एक सत्ता की कुर्सी तक पहुंचता है तो दूसरा जेल तक की यात्रा सुनिश्चित करता है।

अव्यवस्था नहीं रोकनी है 
वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में क्या-क्या खामियां है, इसे दोहराने की जरूरत  नहीं है। खुद योजना आयोग मनाता है की 58-60% PDS सीधे बाजारों में बेंच दिया जाता है(2005 में किये गए एक शोध के अनुसार). दूसरे निर्धनता रेखा से ऊपर के परिवार राशन कार्ड होने के बावजूद (गेहूं, चावल, तेल) कुछ भी लेने ही नहीं जाते। इस वर्ग के लोगों को PDS दुकान से सामान लाना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के विपरीत लगता है। फिर खाद्य सुरक्षा के नाम पर इस वर्ग को क्यों शामिल किया गया है? देश की 67 % आबादी को कवर करने वाले इस कानून में सरकारी हिसाब से ही अगर माना जाए तो आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से ऊपर (APL) वालों की होगी। अब उस वर्ग को भी निर्धनता के नीचे वालों (BPL)की श्रेणी में कर दिया गया है। जो लोग पहले ही अपने हिस्से का राशन लेने नहीं जाते थे उनके लिये अब और रियायत दी गयी है। मतलब कालाबाजारी करने वालों का पेट अब और अच्छे से भरेगा, नौकरशाही भी अधिक लाभ की स्थिति में आग जाएगी!! दो दशक से चल रहे आर्थिक सुधारों का ये फल है। यहाँ पर आज ही प्रकाशित हुयी सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की चर्चा भी जरूरी है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1994-2010 की कालावधि में गरीबी 16% घटी है। ऐसे में आखिर क्यों सामान्य परिवारों को भी लाली पॉप दी जा रही है? इन भिन्न-भिन्न आंकड़ो से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी सरकारें अपनी अक्षमताओं को छिपाने और राजनैतिक लाभ के लिए (बिना सोच-विचार किये) कोई भी कानून बना सकती हैं।
सब कुछ है फिर भी पहुँच से बाहर

यहाँ इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता की ये कुछ पक्तियां उल्लेखनीय हैं-
"...Political classes around the world know the art of throwing lollipops to fool and calm down people angry with their inability to govern. In the UPA's dictionary, you can spell lollipop as "lawlipop". It cannot address rural distress, so you have a law for employment guarantee. It cannot provide food for the hungry while the granaries are full, so you will be given a right to food law. Go eat that law if a corrupt political-bureaucratic-contractor nexus steals your grain. Now there will be a homestead law, and then, maybe a right to better nourishment act, and why stop there? A right to iron and folic acid law and, surely, a right to Vitamin D, since, as an eminent nominated member has already informed the Rajya Sabha, we Indians are widely deficient in the sunshine vitamin. You may find this facetious, but if you look at the record of the UPA and our Parliament in general, all ridiculous, unimplementable or sheer bad laws like these pass without debate. Nobody wants to be on the "other" side of a populist bad law..."

भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या कई अफ़्रीकी देशों से ज्यादा है 
यह ठीक है कि इतने प्रयासों के बाद भी भारत में 40-42% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इसे दूर करने के लिए उन्हें पूर्ण आहार मिलना जरूरी है। लेकिन पहले से ही मौजूद PDS की खामियों को दूर न कर एक नया कानून बना देना कहाँ तक बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जा सकता है? वर्तमान में प्रमुख आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन ने भी किसी नई प्रणाली/योजना के स्थान पर PDS की खामियों को दूर करने की बात की थी। कालाबाजारी रोकने के लिए श्रीलंका का उदाहरण दिया जा सकता है। जहाँ कूपन सिस्टम से जरूरी चीजें वितरित की जाती हैं। सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर 2006 में गठित वाधवा समिति ने भी कालाबाजारी/भ्रष्टाचार पर चिंता जताई थी। जिसे दूर करने के लिए इस नए क़ानून में कुछ भी नया या क्रांतिकारी नहीं है।

रविवार, 2 जून 2013

लोग, जिन्होंने (संवैधानिक/वैधानिक) संस्थाओं को पहचान दिलाई



भारतीय संविधान में कई ऐसी संस्थाएं हैं जिन्हें संविधान पूर्ण स्वायत्ता देकर संविधान और राष्ट्र की रक्षा का दायित्व डालता है वहीँ इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जो पूर्ण  स्वतंत्र तो नहीं है लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण हैं। इनमें कुछ संवैधानिक हैं तो कुछ वैधानिक दर्जे वालीं।

चुनाव आयोग और टी एन शेषन:-संवैधानिक संस्थाओं में अगर चुनाव आयोग को सबसे महत्वपूर्ण कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि लोकतंत्र स्वच्छ चुनावों पर निर्भर हैं और इसकी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर आती है। 1990 से आयोग और इसकी शक्तियों के बारे में आम लोग बहुत नहीं जानते थे। लेकिन दसवें चुनाव आयुक्त टी एन शेषन के कार्यकाल (Dec 1990-Dec1996) में लोग इससे परिचित हुए की स्वस्थ/निष्पक्ष चुनाव किसे कहते हैं। आचार सहिंता का पालन करना नेताओं के लिए कष्टकारी हो गया, जहाँ थोड़ी सी भी गड़बड़ी हुयी वहां पुनर्मतदान का आदेश दे दिया जाता। शेषन ने दिखा  दिया कि अगर आयोग अपनी शक्ति का प्रयोग करे तो "परिंदा भी पर न मार सके" वाली कहावत अक्षरश सही होती है। चुनाव आयोग की ये पहचान जे एम  लिंगदोह ने  बनाए रखी। उनके कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनावों का आयोजन और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से विवाद के बाद आयोग की शक्ति का एहसास हुआ, समय से पहले चुनाव करने की मांग लिंगदोह ने ठुकरा दी जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया। बाद में चुनाव आयोग की शक्ति का एक बार प्रदर्शन फिर एन गोपालस्वामी के कार्यकाल में देखने को मिला। गोपालस्वामी के कार्यकाल में बिहार के लोगों को लालू की गुंडई से मुक्ति मिली तो 2007 में उत्तरप्रदेश वालों को दद्दा के गुंडों से। हालांकि बाद में कुरैशी साहब ने भी अपने छोटे से कार्यकाल में जो भी चुनाव हुए वो निष्पक्षता  करवाए लेकिन आयोग की शक्तियों की वास्तविक समझ टी एन शेषन ने ही दी। टी एन शेषन ने 1997 में राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा और भाजपा का समर्थन भी हासिल किया लेकिन कांग्रेस ने दलित कार्ड खेलते हुए के. आर. नारायणन को प्रत्याशी बना दिया, शेषन चुनाव हार गए। कहने को तो बाद में जो भी चुनाव आयुक्त बनाये गए उन्होंने आयोग की शक्ति का उपयोग राष्ट्रहित में किया लेकिन  ने आयोग को "टेक ऑफ"  किया। शायद इसीलिए टी एन शेषन के कार्य  याद कियें जायेंगे।
लोकायुक्त और एन संतोष हेगड़े:-लोकायुक्त का पद संवैधानिक संस्था नहीं है। इसका गठन भारतीय प्रसाशनिक सुधार आयोग (1966-70) की अनुशंसा पर किया गया। 1971 में पहली बार भारत के किसी राज्य में लोकायुक्त नियुक्त किया गया और ये राज्य महाराष्ट्र था। फिर धीरे-धीरे अन्य राज्यों ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया। लेकिन लोकायुक्त की शक्तियों को पहचान दिलाई कर्नाटक  में एन संतोष हेगड़े ने। हेगड़े की कार्यवाही में तत्कालीन मुख्यमंत्री को जेल जाना पड़ा।  एन संतोष हेगड़े ने भ्रष्टाचार के जो मामले उजागर किये उसके जो परिणाम हुए वे हमारे सामने हैं।
भारतीय प्रेस परिषद और मार्कंडेय काटजू:-ऐसे ही 1966 में गठित भारतीय प्रेस परिषद को पहचान दिलाई वर्तमान अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू साहब ने। कहते हैं पहले तो प्रेस परिषद् के पास बोलने के लिए जुबान भी नहीं थी लेकिन काटजू साहब ने इसे बोलने लायक बनाया, भले ही काटने के लिए अभी दांत न उगे हों।
सीवीसी और विवादस्पद नियुक्ति:-अब बात एक अन्य संस्था केंद्रीय आयोग की। CVC का 1962 में बनी संथानम कमेटी की अनुशंसा पर 1964 में हुआ और 2003 में इसे वैधानिक दर्ज़ा दिया गया। लेकिन औरों के विपरीत इसे विख्यात इस संस्था पर बैठे इसके प्रमुख के कार्यों ने नहीं बनाया बल्कि इसे  पहचान दिलाई इसपर होने वाली विवादस्पद नियुक्ति ने। जब सुप्रीम कोर्ट में सरकार पराजित हुयी तब आम लोगों को एहसास हुआ कि भ्रष्टाचारियों पर निगाह रखने के लिए  CVC जैसी भी कोई संस्था होती है।
कैग और विनोद राय:-अब अगर बात करें भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानि कैग की। तो इसको चर्चा में लाने वाले सबसे पहले वी नरहरी राव थे  जिहोने भारत के प्रथम घोटाले,जीप घोटाले को उजागर किया। तत्कालीन रक्षामंत्री ने लेख परिक्षण   के नाम पर शासन चलाने का आरोप लगाया। दूसरी बार ये संस्था ए के रॉय के कार्यकाल में चर्चा में आई जब 1962 युद्ध में नार्थ ईस्ट फ्रतियर की पराजय में रक्षा तैयारियों में पूरी गंभीरता न दिखने, उच्च गुणबत्ता की बस्तुएं न खरीदने जैसे आरोप लगाये और रक्षा मंत्री के इस्तीफे के साथ इस विवाद का अंत हुआ।
लेकिन 1984-1990 तक कैग के पद पर रहने वाले टी एन चतुर्वेदी का कार्यकाल सबसे रोचक रहा। और हो भी क्यों न क्योकि वह टी एन चतुर्वेदी हीथे जिन्होंने वी पी सिंह के रक्षा मंत्री रहते हुए भारतीय राजनीति में भूचाल लाने वाले बोफोर्स तोप की खरीद में घोटाले को उजागर किया। लेकिन टी एन चतुर्वेदी की ये लोकप्रियता उस समय कम हो गयी जब बोफोर्स सम्बन्धी रिपोर्ट संसद के पटल पर रखे जाने से पहले ही मीडिया में लीक हो गयी और अगले दिन ही उन्होंने कैग से इस्तीफ़ा देकर राजनैतिक पार्टी से   जुड़ गए और चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गए। कैग को एक बार फिर सुर्ख़ियों में लाने वाले निवर्तमान कैग विनोद राय हैं जिनके 1.76 और 1.86 लाख करोड़ के घपलों के आंकड़ो में लोग अक्सर एक-दो शून्य रखने की गलती करदेते हों लेकिन इन आंकड़ों को अंतिम पंक्ति में पंक्ति में खड़ाअंतिम व्यक्ति भी जानता होगा। राय ने विना आलोचना की परवाह किये निडरता और निष्क्षता से अपना काम किया और हमें बता दिया की कैग सिर्फ अकाउंटेंट नहीं है बल्कि  उसे भी कुछ शक्तियां प्राप्त हैं। सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में  कहा जाये तो कैग मुनीम नहीं है। विनोद राय इसी महीने की 23 तारिख को सेवानिवृत हुए उनका ये कार्यकाल 2008 से शुरू हुआ था। विनोद राय को संयुक्त राष्ट्र में लेख परिक्षण की समिति का दिसंबर 2012 में  दूसरी बार प्रमुख नियुक्त किया गया।


बुधवार, 29 मई 2013

जेएनयू का एक मोहल्ला-आईआईएमसी (पहली क़िस्त)

 मैंने आई आई एम सी (भारतीय जनसंचार संस्थान) का फॉर्म भरा था तब मुझे ये आशा थी कि अगर मेरा इसमें सिलेक्शन हो गया तो लगभग पैंतालिस-पचास हज़ार रुपयों में नौ-दस महीनों के लिए पढने के साथ-साथ रहने और खाने का इंतजाम हो जायेगा। हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए होगा ऐसा तो दिमाग में कभी आया ही नहीं था क्योकि जिस 'मोहल्ले' में ये है वहां हर तरफ हॉस्टल ही हॉस्टल हैं, ऐसे में लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव की बात दिमाग में भी कैसे आ सकती थी। जब इंटरव्यू के लिए मुझे बुलाया गया तो मैं लगभग एक हफ्ते पहले आई आई एम् सी आया, उद्देश्य था किसी स्टूडेंट से इंटरव्यू में पूछे जाने वाले प्रश्नों की प्रकृति जानने का। पूर्वांचल की तरफ से आया तो पहले सीधे हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट से मिलना स्वाभाविक था। लेकिन वह बैठे जिंदगी का अधिकांश समय आई आई एम सी में बिता चुके ताराकांत जी (तब मैं उनका नाम नहीं जनता था) ने बताया की ये हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए है और मई-जून तक सभी स्टूडेंट हॉस्टल से जा चुके होते हैं। फिर मैंने उन्हें ही अपनी जिज्ञासा के बारे में बताया तब उन्होंने मुझे चावला सर से  मिलने की सलाह दी, साथ में ये भी कहा की वो स्टूडेंट के लिए 'देवता' जैसे हैं। सभी की समस्याएं हल कर देते हैं। चावला सर से मैं पहले भी मिल चूका था-एडमिट कार्ड के संबंध में। इस बार जब मैं उनसे मिला तो अपना नाम बताया, सर ने तुरंत बोला की आपका हिंदी वाली लिस्ट में नाम है। ऐसा लगा मानो सर को इंटरव्यू के लिए बुलाये गए छात्रों की पूरी लिस्ट याद थी..!!! इंटरव्यू से रिलेटेड अपनी जिझक जब मैंने उनको बताई तो उन्होंने बस करंट पर गौर करने को कहा और हर बार इंटरव्यू बोर्ड बदलने की बात कहकर प्रश्नों के स्वरुप के बारे में कुछ नहीं बताया। चलते-चलते मैंने हॉस्टल और लड़कियों के सम्बन्ध के बारे में फिर पूछा-ये सोच कर कि शायद ताराकांत जी को पता न हो। लेकिन अफ़सोस हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए ही था। लड़कों के लिए कटवारिया, बेर सराय और मुनिरका ही जिंदाबाद थे।

इंटरव्यू दिया तो ब्लंडर कर दिया। जिंदगी का पहला इंटरव्यू था सामने थे आनद प्रधान सर और एन के सिंह सर अभी तक सिर्फ न्यूज़ पेपरों में देखा था, उन्हें देख कर हक्का-बक्का रह गया। साथ में कोई तीसरे सर भी थे लेकिन जैसा प्रकृति का नियम है-सूर्य के आगे तारे दिखाई कहाँ देते हैं। आनंद सर और एन के सिंह सर के आभा मंडल में मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया। 4-5 प्रश्नों में से 1-2 से ज्यादा के जबाव नहीं वो भी टूटे फूटे...!!


दस-बारह मिनट लगे होंगे मेरी छीछालेदर में और अंत मेंआनंद सर का कड़क का जबाव-धन्यवाद अमित जी आप जा सकते हैं। बिजली गिरी, सोच लिया की मौका निकल गया आई आई एम सी में पढने का। ऐसा नहीं था कि उन प्रश्नों के जबाव मुझे आते नहीं थे, कोई मुझसे कह दे तो हर प्रश्न का पाँच-पाँच सौ शब्दों में जबाव लिख दूं लेकिन मौके पर चौका नहीं लगा पाया क्योकि सामने पत्रकारिता के शोएब अख्तर बैठे थे जिनके हर प्रश्न 160 मील प्रति घंटे से आती योर्कर के सामान थे .!!मैं कब तक विकेट बचा पता!!
मानव स्वाभाव के अनुरूप रूम पर आकर सिस्टम को कोसा जो मुझ जैसे 'होनहार' का सिलेक्शन नहीं कर 'अनमोल रत्न' खोने जा रहा था!! लकिन मन में कहीं कोने में एक आशा थी कि लिखित परीक्षा अच्छी हुयी है  तो शायद हो जाए। इसीलिए इंटरव्यू के कुछ ही दिनों बाद चावला सर को रोज़ शाम को फोन कर रिजल्ट के बारे में पूछता खैर रिजल्ट आया और पहली ही लिस्ट में मेरा नाम भी आया एडमिशन लिया और साथ में शुरू हुयी मुनिरका में कमरे के लिए खोज। प्रॉस्पेक्टस के हिस्साब से 1 अगस्त से ओरिएन्तेतेद क्लास शुरू होनी थी लेकिन हुयी 30 जुलाई से। पहली अगस्त से गया तो आई आई एम सी का 'मंच' देख कर फिर अचंभित, क्योकि कि ऐसा भव्य हाल तो सिर्फ मैंने कानपुर के रेव थ्री में देखा था जो उत्तर प्रदेश की शायद सबसे लक्ज़री टाकीज थी। अगले थीं दिनों तक एक से बढ़कर एक धुनंदर आये-डॉ योगेन्द्र यादव, प्रो आनंद कुमार, परंजय गुहा, डॉ देविंदर शर्मा और न जाने कौन-कौन ...
फिर शुरू हुआ कक्षाओं का दौर। पहली क्लास मुझे आज तक नहीं भूलती जब आनंद सर ने कहा था कि आपके पास ये नौ महीने हैं जो यूँ ही निकल जायेंगे,पता भी नहीं चलेगा। उस दिन सर ने गुलाबी रंग की हाफ शर्ट पहन राखी थी। अगर कोई मेरे दिमाग को पढ़कर उस दिन की तस्वीर बनाये तो वो पूरा वीडियो बन जायेगा, इतनी अच्छी तरह याद है मुझे...               
                                                                                                                (जारी रहेगा-एक ब्रेक के बाद)


गुरुवार, 7 मार्च 2013

रहिमन पानी बिक रहा सौदागर के हाथ...


प्राकृतिक संसाधनों का कुछ मुट्ठीभर लोगों द्वारा, कुछ मुट्ठीभर लोगों की 'अय्याशी' (तथाकथित 'समावेशी' विकास) के लिए दोहन...




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 (जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की एक दीवार पर पेंटिंग)

मालगाड़ी पर लदा कोयला                          आज उनकी देह छोटी हो गई है 
भरी है आग कोयले में                                भूख लेकिन बढ़ गई है 
छुपी है आग में बिजली                               सोख लेते वे नदी नद झील सागर 
कि जिससे मालगाड़ी                                  चर गए सब खेत जंगल 
चल रही है                                               पी गयीं सारी हवाएं 
और यह कोयला कभी जो था                       भावना की भूमि तक में 
घना जंगल, जहाँ विचरते थे डायनासोर         घुस गए हैं डायनासोर 
कि जिनसे बच के जिन्दा बने रहना              और उनकी दाढ़ में अब 
तब नहीं इतना असंभव था                         लग चुका है स्वाद सपनो का  
कि जितना आज 
                                                                                        दिनेश कुमार शुक्ल 


गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

"आपका बजट, आपके हाथ" - लक्ष्य 2014




वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम ने 2009 दोहराकर 2014 फ़तह करने की योजना के साथ ये बजट पेश किया है। वित्तमंत्री ने "आपका बजट, आपके हाथ" से अपना बजट भाषण शुरू करके विना कुछ कहे सब कुछ कह दिया है। बढ़ते राजकोषीय घटे के बीच वित्तमंत्री ने सभी फ्लैगशिप कार्यक्रमों में धन का आवंटन बढ़ाया है। किसानो के लिए विशेष रियायती दर पर ऋण की योजना को जारी रखते हुए इसके बजट में बढ़ोत्तरी प्रसंशनीय है लेकिन इसके आधिकतम भाग तक ज़रूरतमंद किसानों की पहुँच सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही माध्यम वर्ग को आयकर में मामूली छूट, घर की खरीद में छूट से लुभाने की कोशिश की है। विरोध को दरकिनार करते हुए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को पूरे देश में लागू कर सरकार इस योजना को 'वोटों की मशीन' के रूप में देख रही है। बालात्कार पीड़िता के नाम पर फंड की घोषणा और महिलाओं के लिए विशेष योजनायें चुनाव में माध्यम वर्ग की भूमिका को ध्यान में रखकर ही बनाई गयीं है।
सालाना एक करोड़ से अधिक आय पर दस प्रतिशत का सरचार्ज लगाया जाना भी महत्वपूर्ण है लेकिन कर संग्रहण तंत्र में सुधार की जरूरत है। लेकिन अगर सरकार राजकोषीय घाटे को लेकर वास्तिविक गंभीर है तो रक्षा बजट में बढ़ोत्तरी का निर्णय क्यों लिया गया? चालू खाते के घाटे को नियंत्रित करने के लिए सोने का आयात हतोत्साहित करने की जरूरत थी लेकिन ज्वेलरी को सस्ता करने करने का निर्णय इसके विरोधाभाषी है। इसके साथ ही वित्तमंत्री ने कोयले के बढ़ते आयात को चालू खाते के लिए चिंता का कारण बताया लेकिन दूसरी ओर कोयले का निर्यात दस लाख टन को पार कर रहा है।
हाल ही में प्रकाशित रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत में मंहगाई की दर दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा सबसे ज़्यादा है लेकिन सरकार हर बजट में इसको कम करने की कसमें खाती दिखाई देना चाहती है लेकिन वास्तिविकता कमर तोडती मंहगाई नित नए आयाम छू रही है। डीटीसी मामला आगे न बढ़ना भी समझ से परे है।

(भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) के "बजट-2013-14" के स्पेशल अंक के संपादकीय पृष्ट पर प्रकाशित त्वरित टिप्पणी)

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

इतिहास की पटरी पर भारतीय रेल

अंग्रेंजों ने अपने हितों के लिए भारत में रेलों की शुरुआत की। इस समय रेलों को भारत में लाने का उद्देश्य कच्छे माल को देश के अन्दर अन्य बंदरगाहों तक पहुचना था। रेल निर्माण की दिशा में पहला प्रयास डलहौजी ने 1846 में किया था लेकिन भारत में पहली रेल 16 अप्रैल 1853 में मुंबई (तत्कालीन बम्बई) से थाणे के बीच 34 किमी चली थी। इस समय कार्ल मार्क्स के अनुसार रेलवे व्यवस्था ही भारत के विकास की अग्रदूत बनेगी। रेलवे के प्रसार में अंग्रेज इंजीनियर रोबर्ट मैटलैंड की भूमिका उल्लेखनीय रही थी। पहली सवारी गाड़ी हावड़ा से हुगली के बीच 15 अगस्त 1854 को चली। यह 24 मील की यात्रा थी। मुंबई से कोलकाता के बीच सीधी रेल यात्रा की शुरुआत 1870 में हुई। दक्षिण में पहली रेल 1 जुलाई 1856 में मद्रास रेलवे कंपनी द्वारा व्यासर्पदी जीवा निलयम से वालाजाह रोड के बीच चलाई गई। भारत में रेलों के जाल बिछाने के लिए ग्रेट इंडियन पेनिन्सुला रेलवे नामक कम्पनी बनाई गई, 1900 में इसे सरकार ने खरीद लिया। इस समय विभिन्न रियासतों की अपनी-अपनी रेल कम्पनियां थी लेकिन 1907 तक लगभग सभी कम्पनियों को सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया।
1900 के करीब कर्जन के समय भारत में रेलवे का सर्वाधिक विस्तार हुआ।
 रेल में शौचालय की सुविधा की शुरुआत प्रथम श्रेणी में 1891 और निचले दर्जे में 1907 में हुई।
भारत में पहली विद्दुत रेलगाड़ी 3 फरबरी 1925 बॉम्बे वीटी से कुरला के बीच चली।
 1924 रेल विभाग के लिए कोई अलग से प्रावधान नहीं था इसके लिए धन आम बजट में से किसी अन्य मंत्रलय जैसे ही धन का आवंटन किया जाता था लेकिन 1921 ईस्ट इंडियन रेलवे समिति ने इसे अलग करने की सिफारिश की, फलस्वरूप 1924 से रेलवे के लिए वित्त मंत्रालय से अलग कर दिया गया तभी से इसके लिए अलग से बजट का प्रावधान कर दिया गया 1924 में रेल का बजट भारत के आम बजट का लगभग 70 प्रतिशत था जो आज लगभग 14-15 प्रतिशंत तक रह गया है।
दुरंतो का डिजायन ममता बनर्जी ने स्वयं बनाया है
नई-दिल्ली भोपाल शताब्दी भारत में सबसे तेज़ चलने वाली रेलगाड़ी है जो सात घंटे चालीस मिनट में 704 किमी दूरी तय करती है। रेलवे में कम्प्यूटरी कृत आरक्षण प्रणाली की शुरुआत दिल्ली में 1986 में हुई।
 भारतीय रेल (आईआर) एशिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है तथा एकल प्रबंधनाधीन यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। 
यह 150 वर्षों से भी अधिक समय तक भारत के परिवहन क्षेत्र का मुख्य संघटक रहा है। विश्व का दूसरा और एशिया का सबसे बड़ा रेल नेटवर्क  है। यह नेटवर्क लगभग  63,000 कि.मी.से अधिक मार्ग की लंबाई पर 7,100 से अधिक स्‍टेशन पर फैला हुआ है। भारत में इस समय तीन तरह की रेल लाइने हैं- जिसमें ब्राड गेज 1.676 मीटर, गेज 1 मीटर और नैरो गेज 0.762-0.610  मीटर है। भारत में सबसे लम्बी रेलगाड़ी डिब्रूगढ़ से कन्याकुमारी के बीच चलने वाली विवेक एक्सप्रेस है, जो 8286 किमी की दूरी तय करती है।
जल्द ही डबल डेकर ट्रेने भी दौड़ती नज़र आएंगी 

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

वार्षिक वित्तीय विवरण-'बजट'

हम सभी हर वर्ष फरबरी के अंत में बजट शब्द खूब सुनते हैं।-"बजट सत्र फलां तारीख से शुरू होगा", "सरकार बजट में इस बार क्या क्या सस्ता करेगी, क्या क्या महगा करेगी", "इस बार का बजट लोकलुभावन है", या "इस बजट से मंहगाई बढ़ेगी" आदि-आदि।

बजट सत्र में रेल बजट, आर्थिक सर्वेक्षण और आम बजट आते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार द्वारा तैयार किया जाता है जो इस समय राघुराम राजन जी हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे संविधान में कहीं भी 'बजट' शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। तो फिर ये बजट-बजट आखिर है क्या??
दरअसल बजट शब्द फ्रांसीसी भाषा के bougette शब्द से निकला है जिसका अर्थ होताहै-चमड़े का थैला. 
1733 इंग्लैंड के वित्तमंत्री (चांसलर ऑफ एक्सचेकर) बजट से सम्बंधित कुछ कागजात एक बैग में लेकर संसद में गए तो अगले दिन समाचार पत्र में एक कार्टून प्रकाशित किया और उसमें लिखा 'बजट खोला गया'। तभी से बजट शब्द चलन में आया और ये हिंदी में भी बजट ही रहा। 
ये तो हुयी बजट शब्द की बात अब ये हमारे यहाँ क्यों प्रयोग में लाया जाता है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 112 के अनुसार राष्ट्रपति हर वर्ष सरकार से संसद के दोनों सदनों में "वार्षिक वित्तीय विवरण" रखने के लिए कहते है जिसके अंतर्गत ही जो विवरण सरकार रखती है उसे ही हम आम बोल-चाल की भाषा में बजट कहते हैं। बजट में मुख्यतया आने वाले वर्ष के लिए आय और व्यय का लेख जोखा होता है। यह वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च तक होता है। 1967 के पहले ये अवधि 1 मई से 30 अप्रैल तक होती थी लेकिन क्योकि भारत एक कृषि प्रधान देश है तो कृषि में उत्पादन के हिसाब से ये नयी अवधी तय की गयी है। फ्रांस और बेल्जियम जैसे देशों में ये 1 जनबरी से 31 दिसंबर के बीच होता है।
बजट सत्र किसी वर्ष का पहला सत्र होता है अतः संविधान के अनुसार इस सत्र का आरम्भ दोनों सदनों में राष्ट्रपति जी के अभिभाषण से होता है।
एक बजट में कुल तीन वर्षों के आकड़े होते हैं। जैसे जब इस वर्ष का आम बजट पेश किया जाएगा तो उसमें 2011-12 के वास्तविक आकड़े, 2012-13 के संसोधित अनुमान, और 2013-14 के लिए आय और व्यय के रूपरेखा रहती है। बजट में कुल 109 मांगे होती है जिसमें 103 मांगे लोक व्यय से और 6 मांगे रक्षा व्यय से सम्बंधित होती है।
एनडीए सरकार (अटल जी की सरकार) के पहले बजट शाम को 5 बजे पेश किया जाता था। बजट को शाम 5 बजे पेश करने की पृथा अंग्रेजों के जमाने से ही चल रही थी, इसका कारण था कि यहाँ के शाम के पाँच बजे ब्रिटेन में सुबह 11:30बजे संसद का सत्र शुरू होता था तो अंग्रेज अपने यहाँ की संसद के अनुसार यहाँ भी व्यवहार करते थे।
एनडीए सरकार ने 1999 में गुलामी की इस पृथा को बदलते हुए इसके पेश करने का समय भारतीय समयानुसार सुबह 11 बजे कर दिया। (11 बजे ही संसद में कार्यवाही शुरू होती है)
बजट के बारे में एक तथ्य यह भी है कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री बने तो उन्होंने बजट पर वित्तमंत्री का नाम लिखने की परंपरा शुरू की, इससे पहले किसी भी मंत्री का नाम बजट पर नहीं होता था।

वित्तमंत्री के रूप में पी चिदंबरम "bougette"लिए संसद जाते हुए 
भारत में पहला बजट 7 अप्रैल 1860 में जेम्स विल्सन द्वारा पेश किया गया। किसी भारतीय द्वारा पहला बजट 26 जनबरी 1947 को पेश किया गया, ये पहले भारतीय आर. के. षणमुखम शेट्टी थे। ये बजट अंतरिम बजट था (अंतरिम बजट तब आता है जब लोकसभा का विघटन हो  चुका हो या हाल में ही नई सरकार ने कार्यभार संभाला हो) और गणतंत्र भारत का पहला बजट जान मथाई ने फरबरी 1950 में पेश किया था।
बजट संसद में पेश होने और मंत्री के भाषण के बाद संसद में सत्र का स्थगन हो जाता है, फिर कुछ दिनों के अंतराल के बाद  विभिन्न मंत्रालय की जो भी मांगे होती हैं उन पर मतदान होता है। बजट सत्र में इस अंतराल के दौरान संसद की विभिन्न समितियां मंत्रालयों की मांग पर चर्चा करती है। उसमें उन्हें जो राशि अनावश्यक लगती है उसे वे काट देतीं हैं। संसद की ये स्थायी समितियों में सभी दलों के सदस्य होते हैं और ये सदस्य पार्टी लाइन से उपर उठकर निर्णय लेते हैं। विभिन्न दलों के इस सदस्यों पर पार्टी व्हिप का भी कोई असर नहीं करता, यहाँ अगर कोई सदस्य पार्टी के विचार से हटकर राय रखता है तो उस पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। सरकार यदि संसद में बजट पारित करवाने में असफल रहती है तो माना जाता है कि सरकार ने बहुमत खो दिया और उसे इस्तीफ़ा देना होता है।
अभी तक सबसे ज्यादा बार बजट पेश करने का श्रेय मोरार जी देसाई को है जिन्होंने 10 बार बजट पेश किया था, पी चिदंबरम जी अगर अगले वर्ष भी बजट पेश करेंगे तो वो भो 10 के क्लब में शामिल हो जायेंगे।