बैजयंत 'जय' पांडा उन चुनिंदा सांसदों में से हैं जिन्होंने अपने दम पर राजनीति में पहचान बनाई है. जय पांडा ने संसद में रहते हुए आठ निजी बिल पेश किये जिनमें एक बिल राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से भी संबंधित था. इसी मामले पर हाल में सर्वोच्च न्यायलय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। इसके साथ ही देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता वनाम साम्प्रदायिकता के बहस के बीच हमने अपने मित्र श्रीश चन्द्र के साथ मिलकर उनसे बात की…
अमित:-राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से संबंधित सर्वोच्च न्यायलय ने हाल में दो निर्णय दिए हैं, जिसमें दूसरे निर्णय के अनुसार अगर कोई व्यक्ति जेल में हो तो उसे चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए। आपका इस पर क्या कहना है?
जय पांडा:-देखिये व्यापक रूप से मैं इसका समर्थन करता हूँ कि जो दोषी हैं उनको चुनाव लड़ने ने रोका जाना चाहिए इसके साथ ही इनके लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स गठित किये जाएँ जो सांसद और विधायकों के मामलों की सुनवाई करें इसके साथ जिला परिषदों में बैठने वाले या ग्रामप्रधान जैसे सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों से संबंधित मामलों की सुनवाई करें। ये अदालतें नब्बे दिन या छ महीने में अपना फैसला सुना दें। लेकिन जिस स्थिति की आप बात कर रहे हैं, उसे दो भागों में बांटा जा सकता है-माइनर क्राइम और मेजर क्राइम। अगर कोई रैली में किसी का विरोध कर के गिरफ्तर कर लिया जाये तब उसे चुनाव लड़ने से रोकना सही नहीं होगा लेकिन अगर कोई हत्या, बलात्कार या डकैती जैसे व्हाइट कॉलर क्राइम में पकड़ा जाता है तो फिर ये सही है। फिर उसे रोका जाना चाहिए।
अमित:-इन दो निर्णयों के बाद न्यायपालिका-विधायिका के बीच शक्ति संतुलन की बहस फिर गर्म हो गई है। आप इसे कितना उचित मानते हैं और क्या ये सही है कि व्यवस्था के अंग भले ही अपना काम ठीक से न करें लेकिन फिर भी न्यायापलिका को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?
जय पांडा:-संविधान ने सभी अंगो की शक्तियां निर्धारित की हैं, लेकिन हमें मानना पड़ेगा की जहाँ हमारी विधायिका/कार्यपालिका अपना काम सही ढंग नहीं करती हैं तब लोगों की तरफ से मांग की जाती है कि चुनाव सुधार होने चाहिए लेकिन हमारी तरफ कोई काम नहीं किया जाता. जब विधायिका काम नहीं करती तो एक वेक्यूम बन जाता है। मैं यहाँ अपने साथियों से कहना चाहता हूँ कि हमने अपना काम न करके मैदान खली छोड़ दिया है उस पर कोई और खेल रहा है। और फिर न्यायिक सक्रियता को लोगों का समर्थन भी प्राप्त है।
श्रीश:-लोकसभा चुनाव में अब एक साल से कम समय है। मोदी के इमरजेन्स के बाद कम्युनल वर्सेज सेक्युलर की बहस तेज़ हो रही है जबकि देश में व्याप्त मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। आप इसे कैसे देखते हैं?
जय पांडा:-देखिये देश में कोई एक मुद्दा नहीं है और ये सही नहीं है कि बहस सिर्फ दो पार्टियों के बीच हो रही है। पिछले बीस सालों से क्षेत्रीय पार्टियाँ उभर रही हैं और तीन-चार सालों में जो भी सर्वे या ओपिनियन पोल हुए हैं उसमें इन क्षेत्रीय दलों को बढ़त मिलती हुयी दिख रही है। तो कम्युनिस्म एक मुद्दा है इसके साथ और भी मुद्दे हैं जैसे विकास एकदम रुक गया है, रूपए की हालत कमज़ोर हो गयी है जिसका हमें फायदा होना चाहिए लेकिन नीतियों के आभाव में हम लाभ नहीं ले पा रहे हैं। तो मुद्दे तो और भी हैं।
श्रीश:-लेकिन इस बहस में तो क्षेत्रीय पार्टियाँ भी शामिल होती दिख रही है चाहे वो जेडीयू हो, समाजवादी पार्टी हो या बीजू जनता दल.?
जय पांडा:- मैं फिर आपसे कहूँगा कि सिर्फ एक मुद्दा नहीं है कई मुद्दे है वो भी एक मुद्दा हो सकता है। जेडीयू के बारे में मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहता। क्षेत्रीय दलों की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। ये मूवमेंट (क्षेत्रीय पार्टियों का उभार) सही दिशा में है। 40-50 साल पहले जब हमारा देश युवा गणतंत्र था तब ये जरूरी था कि देश को एकजुट रखा जाए लेकिन आज कोई अलगाववादी नहीं है और क्षेत्रीय दल भी अपनी भारतीयता पर गर्व करते हैं। हम लोगों का क्षेत्रीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपना दृष्टिकोण हैं.
श्रीश:-हाल में ममता बनर्जी ने फेडरल फ्रंट की बात चलाई जिसमें आपके नवीन पटनायक, जयललिता, मुलायम आदि ने सहमती जताई है. आप इसका भविष्य कहाँ तक देखते हैं या ये भी आगे चलकर राजग या संप्रग में मिल जायेगा?
जय पांडा:-इसे आप थर्ड फ्रंट कहें या फेडरल फ्रंट एक बात तो सही है कि 120 करोड़ जनसँख्या वाले हमारे देश में बहुत से लोग, वे बहुमत में हो सकते हैं या किसी बड़े समूह में, इन सो कॉल्ड नेशनल पार्टीज को सपोर्ट नहीं करते हैं. दिल्ली में बैठ कर आप सैंकड़ों मील दूर किसी गाँव के लिए नीतियां नहीं बना सकते, डिक्टेट नहीं कर सकते। तमिलनाडु की प्राथमिकताएं अलग हैं, केरल की अलग और ओडीशा की अलग.
एक उदहारण मैं आपको और दूंगा जैसे NCTC का मसला है, इसे मीडिया ने बहुत गलत ढंग से पेश किया। केंद्र में बैठे लोग इसे ऊपर से लाना चाह रहे थे जिसका सिर्फ हमने ही विरोध नहीं किया बल्कि इन नेशनल पार्टीज के अपने मुख्यमंत्रियों ने भी किया। इसका कारण था कि बिना किसी बातचीत के ये ऐसा कर रहे थे. प्रस्तावित मॉडल पकिस्तान में हैं, रूस में था. हमें यूएसए और ब्रिटेन का उदहारण लेना चाहिए जहाँ केंद्र और राज्यों के सहयोग से न सिर्फ ऐसे मॉडल काम कर रहें हैं बल्कि आतंकवाद पर भी लगाम लगी हुयी है.
श्रीश:-अगर हम कृषि की बात करें तो अब कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात होने लगी है. आने वाले समय में भारत की स्थिति में आप इसे किस लिहाज़ से देखते हैं?
जय पांडा:-इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए
, अभी भी हमारे यहाँ 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और ये सस्टेनेबल नहीं है. किसी भी विकसित देश में ऐसा नहीं होता, वहां 3-4 प्रतिशत लोग ही कृषि में लगे रहते हैं और उसी से पूरे देश को खिला सकते हैं और निर्यात भी कर सकते हैं. कृषि विकास दर बहुत कम है. इस क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है जिसमें आप जिस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात कर रहे है वो सिर्फ एक एंगल हो सकता है. सिंचाई सुविधाओं में सुधार हो, बाजारों की उपलब्धता बढ़ाई जाए.
अमित:-आपके अनुसार कुछ स्थानीय और क्षेत्रीय आवश्यकताओं की जरूरतें पूरी करने लिए फेडरल फ्रंट का आईडिया सही है. लेकिन अगर हम कुछ घटनाओ पर गौर करें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं. जैसे श्रीलंका के साथ संबंध तमिलनाडु, बांग्लादेश के साथ संबंध पश्चिम बंगाल और अगर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार रही तो अमेरिका के साथ संबंध उत्तरप्रदेश की इच्छा से निर्धारित होंगे। क्या ये ठीक है?
जय पांडा:-देखिये अभी सिर्फ फेडरल फ्रंट की सम्भावना है. जो कुछ होना है उसमें समय है. लेकिन फिर भी ये प्रश्न महत्वपूर्ण हैं. आपको जो शंकाए हैं वे उचित हो सकती हैं लेकिन मुझे इस बात की इतनी शंका नहीं है. ये सही है कि विदेश नीति पर एक राय होनी जरूरी है लेकिन डोमेस्टिक पालिसी में आप दिल्ली में बैठ कर डिक्टेट नहीं कर सकते। आप रूस या जर्मनी को लीजिये या फिर ब्रिटेन को, वहां शीर्ष नेतृत्व को चुनाव जीतने के बाद भी अपनी नीतियों के बारे में लोगों को कन्विंस करना पड़ता है. मीडिया विपक्ष और लोगों से बात करनी पड़ती है. लेकिन हमारे यहाँ सरकारों का एट्टीट्यूड रहता है कि चुनाव जीत गए हैं अब पांच साल तक जो चाहो करो, ये लोकतंत्र नहीं है, हमें उस व्यक्ति से इच्छा के बारे में पूछना चाहिए जो इससे प्रभावित होते हैं.
अमित:-आप नीति निर्माण में जनता की भागीदारी के पक्ष में हैं लेकिन इसी बात के लिए जब सर्वोच्च न्यायलय नियमगिरि हिल्स के खनन में ग्रामसभाओं की भागीदारी के लिए कहा तब आपकी प्रदेश सरकार सिर्फ बारह ग्राम सभाओं को फैसला करने को देती है जबकि उस क्षेत्र में सौ से ज्यादा ग्राम सभाओं को शामिल करने की मांग है?
जय पांडा:-यहाँ पर इस मुद्दे को मीडिया ने गलत ढंग से रिपोर्ट किया है. हम शक्तियों के विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं लेकिन लोगों को इसमें शामिल किया जाए उसको लेकर कन्फ्यूजन है. भूमि अधिग्रहण में उसी से पूछा जाना चाहिए जिसमें इसकी जमीन जा रही हो. बीस मील दूर के लोगों से क्यों पूछा जाए? कोई एक्टिविस्ट कहता है कि अगर पचास गावों में एक भी विरोध करता है तो जमीन का अधिग्रहण नहीं हो तो. ये तो प्रैक्टिकल नहीं है न, बहुमत का मत लिया जाना चाहिए। भूमि अधिग्रहण कानून में यही है. यू कांट कन्विंस एव्री सिंगल पर्सन, इट्स नॉट प्रैक्टिकल। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में भी बहुमत का कांसेप्ट अपनाया गया है.
अमित:-नियमगिरि में वेदांत द्वारा खनन का मुद्दा बन अधिकार अधिनियम (FRA)-2006 से सम्बंधित है अगर भूमि अधिग्रहण कानून बन भी गया तो वह इस पर तो कोई प्रभाव डालेगा नहीं।
जय पांडा:-हमारे कई कानून एक दूसरे के विरोधाभाषी हैं जैसे FRA और MMDR (मिनरल एंड माइनिंग-डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट। इन कानूनों में से कुछ उद्योगों को बढ़ावा देते हैं तो कुछ पर्यावरण सरक्षण को. इनमें कभी-कभी परस्पर विरोधी बातें निकल कर आती हैं. हमें इनमे बीच का रास्ता निकलना चाहिए। ये कुछ तक विधायिका करेगी और कुछ न्यायपालिका।
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फोटो-अमित |
श्रीश:-राजनीती में आने से पहले आप कॉर्पोरेट जीवन में थे फिर राज्यसभा से होते हुए आप यहाँ तक पहुंचे। आज भारत का युवा राजनैतिक रूप से सक्रिय हो रहा है वह मीडिया और सोशल मीडिया पर एक्टिव है लेकिन इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में नहीं आ पता. इसके लिए आप क्या सुझाव देंगे?
जय पांडा:-मैं यहाँ तीन-चार बातें कहूँगा। एक तो सभी लोगों को राजनीति में नहीं आना चाहिये। अगर ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब हमारे देश में और जगह भी रोज़गार के अवसर हैं. ये नहीं होना चाहिए कि सभी लोग राजनीति करने लगें फिर तो यहाँ उदासीनता की स्थिति बन जाएगी। दूसरा, राजनीति में आना एक बात है लेकिन किसी को वोट भी न देना अलग बात, ये स्थिति सही नहीं है. और राजनीती में शामिल होने पर कहना चाहूँगा कि इस क्षेत्र में लेवल प्लेयिंग फील्ड अभी नहीं है. एक साधारण नागरिक के सामने राजनीति में आने के रस्ते में बहुत कठिनाइयाँ हैं अगर उसकी पकड़ नहीं है या कोई परिवार का सदस्य पहले से राजनीति में नहीं है तो लिए बहुत मुश्किल है. ये व्यवस्था हमें बदलनी होगी।
श्रीश:- बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जो आपने समय दिया और हमसे बात की.
जय पांडा:- जी धन्यवाद और भविष्य के लिए आप लोगों को शुभकामनाएं।
बैजयंत 'जय' पांडा, बीजू जनता दल से ओडीशा के केंद्रपाडा का 2009 से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं,
वर्ष 2000 में राज्यसभा से राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण किया, 2006 में पुनः चुने गए।
जय पांडा ने मिशीगन टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी से स्नातक किया है.
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(अरविंद केजरीवाल से हुयी बातचीत को पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें)
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