शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

बारिश में स्कूल और ऑफिस

 बारिश का मौसम अपने आप में कई कहानियां बनाता है. बारिश अगर ऐसे समय हो जब आपको अपने काम के लिए निकलना हो या स्कूल जाना हो तो झमाझम बारिश की आस भर सिर्फ एक कहानी ही नहीं बल्कि पूरी किताब लिखने के लिए जरूरी शब्द मुहैया करा देती है.
स्कूल के दिनों में जब बारिश होती थी तो उस रोज़ स्वघोषित छुट्टी होने की कल्पना को सच होने में देर नहीं लगती थी. अगर जैसे तैसे घर वाले ठेल-ठाल के स्कूल के रिक्शे में बैठा भी देते तो भी बहुत दुःख नहीं होता. क्योंकि सामान्य दिनों के विपरीत बारिश वाले दिनों में स्कूल में कम लड़कों को आना स्वाभाविक था. ऐसे में पढाई तो होनी ही नहीं थी क्योंकि स्कूल आए लड़के अपने उन साथियों का नुकसान कैसे होने देते जो अलग-अलग कारणों से नहीं आ पाए, "सर आज मत पढ़ाइए… बहुत से बच्चे नहीं आए हैं.." !!!
अब भला कौन ये कह सकता है कि बचपन में हम सिर्फ अपने बारे में ही सोचते थे, दूसरों की चिंता करने का इससे अच्छा उदहारण और क्या हो सकता था !!!
बारिश के मौसम में ऐसी कहानियां तो बहुत बनती हैं लेकिन बारिश का ये आनंद हर समय, हर कहानी में नहीं मिलता. दिल्ली में आज जब सुबह-सुबह लगभग चार बजे आँख खुली तो रज़ाई की गर्मी से मिलकर बारिश ने स्कूल के दिनों कि याद दिल दी. एक पल सोचा चलो अलार्म बंद करके सोया जाए आज तो रैनी डे हो गया, आज तो छुट्टी हो ही जाएगी... लेकिन जिस तेज़ी से ये ख़याल आया था, उसी तेज़ी से चला भी गया क्योंकि अब स्कूल नहीं ऑफिस जाना था. स्कूल के दिनों की जो इच्छाएं होती हैं वो ऑफिस के समय अनिवार्यता में बदल जाती हैं. अब मौसम कैसा भी हो ड्यूटी करनी ही है. निश्चित समय पर फोन बजता है, फोन पर आवाज़ आती है-"गाड़ी आ चुकी है.."
मन या बेमन से स्वीकार करना ही होता है कि हम बड़े हो चुके हैं. समय का यही नियम है. बचपन और स्कूल के दिन समय की चौखट को नहीं लांघ पाते, समय उनकी आहुति लेकर ही मानता है.