बुधवार, 26 सितंबर 2012

कहाँ है जनहित/देशहित...??

स्वतंत्रता दिवस या अन्य अवसरों पर राष्ट्र के नाम संबोधनों में प्रधानमंत्रियों द्वारा देशहित और जनहित की बात हमेशा की जाती है। ऐसा ही कुछ सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों (बहुब्राण्ड में निवेश, डीजल और एल पी जी से सम्बंधित) पर सफाई देते हुए प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान फिर कहा। लेकिन वास्तिविकता में देखें तो ये देशहित या जनहित भाषणों में ही दिखता है, व्यवहार में इसे खोजना नामुमकिन भले ही न हो लेकिन मुश्किल जरूर होता है।

-देशहित के लिए ही 1951 से वनों का 33% का लक्ष्य सिर्फ लक्ष्य ही बना रहता है।
-देशहित में राजभाषा हिंदी सीमित होती चली जा रही है, चपरासी से लेकर आई. ए. एस. सभी में अंग्रेजी अनिवार्य हो गयी है। ब्रिक्स सम्मलेन में अन्य सभी देश अपनी-अपनी भाषा में बोलते है लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी अंग्रेजी में व्याख्यान देते है। 65 सालों में लोकसभा में हिंदी के विकास के लिए/आधिकारिक प्रवेश के लिए कोई  राजभाषा समिति नही बनी। 
-देशहित के लिए ही लोकपाल कानून 1967 से 9 बार आया लेकिन पास नहीं हो पाया। पहले और दूसरे, दोनों प्रसाशनिक सुधार आयोग ने इसकी अनुसंशा की है।
-देशहित में ही सीवीसी के पद पर पी जे थामस की नियुक्ति की गयी। सीबीआई को नियंत्रण मुक्त नहीं किया जाता।
-इसी देशहित में व्हिसिल ब्लोअर बिल 2004-05 से "चर्चा में है"। 
-इसी जनहित में गरीबी रेखा सिकुड़ती चली जाती है। 
-जनहित में ही बड़े-बड़े बांध और नाभिकीय सयंत्रों की स्थापना सारे विरोध को दरकिनार करके की जाती है, बावजूद सौर और पवन ऊर्जा की अपार संभावनाओं के होते हुए। 
-जनहित में ही सांसदों के वेतन भत्ते एक झटके में बढ़ जाते हैं।
-देशहित के लिए जल्दी में कोयला ब्लाकों का आवंटन नीलामी से नहीं किया जाता लेकिन फिर भी खनन शुरू नहीं होता और जो एकाध कंपनियां खनन करके बिजली उत्पादन करती भी है तो देशहित में ही उनकी बिजली मंहगी रहती है।
-देशहित में ही 2G स्पेक्ट्रुम का मनमाने तरीके से आवंटन कर दिया गया।
-देशहित में ही संविधान के नीति निर्देशक तत्व धूल खा रहे है।
-देशहित में ही पहले अपराध का राजनीतिकरण हुआ, फिर राजनीति का अपराधीकरण लेकिन चुनाव सुधार करना किसी भी राजनैतिक दलों की कार्यसूची में नहीं।
-सैकड़ों रिपोर्टों को दरकिनार करते हुए जीन संबर्धित बैगन को लाने की तैयारी चल रही है।
-इसी जनहित/किसान हित में बहुब्राण्ड में निवेश को अनुमति दे दी जाती है, ये जानते हुए भी अमेरिका में इसके तथाकथित लाभ के बाद भी किसानो को भारी सरकारी सब्सिडी क्यों दी जा रही है।
-देशहित में ही 1894 के क़ानून से अभी तक भूमि का अधिगृहण किया जा रहा है।


हो सकता है की अभी जनहित/देशहित के और भी कार्य किये जाने शेष हो लेकिन मेरे स्मृति में इतने ही आ रहे है, कुछ अन्य अगर आपके दिमाग में आ रहे हो तो स्वागत है आपका...




सोमवार, 24 सितंबर 2012

अभिव्यक्ति के नाम पर...

असम हिंसा के बाद देश के बिभिन्न हिस्सों में जिस तरह पूर्वोत्तर के लोगो को लेकर एक अफवाह फैली और जिसकी परिणति यहाँ के लोगो का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन हुआ और कई जगहों पर हिंसा भी भड़की तो सरकार ने इन अफवाहों की जांच के लिए एक कमेटी गठित की जिसने अपनी रिपोर्ट में बताया इन अफवाहों को फ़ैलाने में सोशल मीडिया और थोक मोबाइल संदेशो की प्रमुख भूमिका रही है। फोरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार 13 जुलाई से ही बिभिन्न वेब साइटों पर हिंसा के लिए  भड़काने बाली तस्वीरें, बीडियो या अन्य प्रकार की सामग्री मौजूद थी। साथ ही यह तथ्य भी सामने आया की इनमे से बहुत से कारकों का संचालन पडोसी देश पकिस्तान से हो रहा था।
देश के अन्य हिस्सों में  इस तरह की हिंसा की घटनाओं को रोकने के लिए  सरकार ने 300 से अधिक वेब साइटों पर प्रतिबन्ध लगाया जो सरकार के अनुसार इन पर भड़काऊ सामग्री थी जिसमे से कुछ पकिस्तान से भी संचालित हो रहे थी। लेकिन मीडिया में आ रही ख़बरों के अनुसार प्रतिबंधित की गयी वेब साईटों में बहुत सी स्वतंत्र पत्रकारों, गैर सरकारी संगठनो की है जिनकी देश भक्ति पर किसी भी प्रकार की शंका नहीं की जा सकती और सरकार इसी बहाने अपनी आलोचना को दबा रही है। आगे बड़ते हुए सरकार ने सोशल मिडिया पर निगरानी की आवश्यकता पर बल दिया। इत्तेफाक से इसी समय  युवा कर्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भारत माता और राष्ट्रीय चिन्हो के कुछ कार्टून बना दिये, जिसको अपराध की श्रैणी में रखते हुये असीम को देशद्रोह के अंर्तगत गिरिफ्तार किया गया। सोशल मीडिया पर निगरानी पर पहले से ही आलोचनाओं से घिरी सरकार पर असीम प्रकरण ने एक बार फिर विरोधियों को एक हथियार उपलब्ध करा दिया। दूसरा इत्तेफाक तब हुआ जब अमेरिका में बनी एक फिल्म "इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स" को लेकर एक सिमित वर्ग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना तो मुस्लिम देशों में इससे उपजे विरोध ने 45 से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। इससे पहले तीसरा इत्तेफाक हो मैं आपको इतिहास में अभिव्यक्ति को लेकर घटी कुछ घटनाओं की याद दिलाना चाहता हूँ। इसी स्वतंत्रता के नाम पर जमा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी 'प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस' दोहराने की धमकी देते है, उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री आज़म खान भारत माता को डायन कहते है, चित्त्रकार एम एफ हुसैन हिन्दू देवी-देवताओं की अश्लील चित्र बनाते है, अरुधंति राय कश्मीर लेकर भारत को चुनौती देती है, जसवंत सिंह विभाजन के लिए नेहरु को दोषी मानते है, मायावती गाँधी के कार्यों को नौटंकी बताती है। लेकिन फिर इत्तेफाक देखिये हुसैन के पक्ष में अभिव्यक्ति का झंडा बुलंद करने बाले न तो अमेरिका में बनी फिल्म पर कुछ बोलते है, न बुखारी के वयान पर कुछ बोलते है, और न ही आज़म के वयान पर.... है न इत्तेफाक...!!!

भारत में प्रतिबंधित होने से पहले मैंने इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स का 120 सेकंड का वीडियो देखा। इसकी अश्लीलता देख कर मैं इस बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि किसी को ऐसी स्वतंत्र नहीं दी जा सकती जो किसी की धार्मिक भावनाओं के प्रति इतना असंवेदनशील हो। भारत सरकार ने उसे प्रतिबंधित किया वो सही है।

न सिर्फ भारत के संविधान में बल्कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्र को राज्य और समाज के हित में कुछ निर्बन्धन लगाए गए है,या ऐसा करने की छूट भी दी गयी है। अगर हम आम बोलचाल की भाषा में कहे तो ये निर्बन्धन भी उसी कथन को सही साबित करते है जिसमे दूसरों की नाक शुरू होने से पहले अपनी स्वतंत्रता को सीमित करने की बात कही जाती है। लेकिन ऊपर जो घटनाएं बताईं गयी है उसके हिसाब से मुझे लगता है कि अलग-अलग मामलो में ये नाक छोटी-बड़ी होती रहती है।
आखिर क्यों हम इस स्वतंत्रता को लेकर दोहरे मानदंड अपनाते है? एम एफ हुसैन ने जो भी आपत्ति जनक बनाया हो उसका विरोध हो, इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स की भी आलोचना हो। अभिव्यक्ति के नाम पर हम ऐसी कुछ ऐसा न करें जो देश की संप्रभुता या अखंडता को चुनौती दे, धर्म विशेष के लोगों को आहत करे। इसके बाद अगर ऐसा कोई करता है तो विना जाति या धर्म देखे उसकी आलोचना होनी चाहिए। हम विविधता से भरे देश में रहते है, ऐसी स्वतंत्रतायें भले ही हमे न तोड़ पायें लेकिन फिर भी हमारे बीच खटास तो पैदा कर ही सकती है।
अब प्रश्न आप से- भारत में रहते हुए आप असीमित स्वतंत्रता के पक्ष में है या भारत की अखंठता के.... फैसला आपका...

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हम भारत के लोग...

भारत ने स्वतंत्रता के बाद लोकतान्त्रिक, गणराज्य की शासन प्रणाली को अपनाया जिसका मतलब है की यहाँ लोगो के द्वारा चुनी हुयी सरकार होगी और यहाँ का प्रधान भी लोगो द्वारा ही चुना जायेगा। दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों के संविधान की तरह ही हमारे भारत का संविधान भी "हम भारत के लोग..." से शरू होता है। यह संविधान की प्रस्तावना में है जो पूरे संविधान का एक दर्पण है, संविधान के सार को समझने के लिए अगर आप प्रस्तावना को ही पढ़ ले तो आप एक राज्य के मूल्यों और उद्देश्यों के बारे में एक मोटा-मोटा अनुमान लगा सकते है। जवाहर लाल नेहरु ने संविधान के इस भाग को "संविधान की आत्मा" कहा है। जिन शब्दों से संविधान की शुरूआत होती है उससे ये स्पष्ट हो जाना चाहिए की हम जिस राज्य में रह रहे है उसकी शक्ति का स्रोत इसकी अपनी जनता में निहित है। लोकतंत्र का जो भी प्रासंगिक रूप हम अपना सकते थे हमने अपनाया। लेकिन कुछ की नज़र (शासक वर्ग, पूंजीपति वर्ग) में यही "वास्तिविक लोकतंत्र" है जबकिकुछ(तथाकथित नक्सली) इसे "लोकतंत्र के नाम पर धोखा" मानते है।
      
       अन्ना और रामदेव के आंदोलनों के दौरान उन्होंने ये बात बार-बार दोहराई गयी कि भारत में राज्य की शक्ति का स्रोत जनता है, वही संप्रभु है, वही इस देश की मालिक है। और जब जानता कुछ मांग करे तो इसे मानना संसद की बाध्यता है। लेकिन दूसरी ओर लगभग सभी नेताओं (पार्टी लाइन से हटकर सभी में अदभुत एकता है) का कहना है कि जनता ने संसद में अपने प्रतिनिधियों को चुना है, अपनी शक्ति का प्रयोग वह इन प्रतिनिधिओं के माध्यम के से ही कर सकती है अतः जनता अपनी मांगो को "संसद पर थोप नहीं सकती" और ऐसा करना लोकतंत्र पर हमला है। यह बात सबसे पहले टीम अन्ना के सदस्य एवं सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े ने की थी। वहीँ दूसरी ओर एक सम्मलेन में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाड़िया का कहा कि (लोगों द्वारा) अपने को शक्ति का स्रोत कहकर कोई भी सरकार से अपनी बात मनवा सकता है, जो समाज, राष्ट्र, संविधान के लिए खतरनाक हो सकता है। यदि इसका बहुत ज्यादा गूढ़ अर्थ में न जाया जाए तो ये स्पष्ट  है कि वे भी संसद को ही सर्वोच्च मानते है, ना की जनता को। लेकिन जे एन यूं के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पन्त के शब्दों में "ये ठीक है की संसद सर्वोच्च है, लेकिन संसद क्या सिर्फ ईंट-पत्थरों का भवन है, जिसे हम बिना कुछ कहे सर्वोच्च मान ले या ये जनता के उन नुमाइंदो से मिलकर बनती है, जो जनता की ही बात सुन ने को तैयार नहीं है।" कपिल सिब्बल जनता के इस तर्क को नकारते हुए कहते है आखिर देश की जनता के कितने प्रतिशत लोग ऐसी मांग करते है, इस पर पुष्पेश पन्त का कहना है बीज गणित और अंक गणित का हिसाब लगाने वाले इन मंत्रियों से अगर ये पूछा जाए की संसद में बैठने वाले 800 सांसद देश की जनसँख्या के कितने  प्रतिशत है तो इनका क्या जबाब होगा...?"
वास्तिविकता में देखा जाए तो सर्वोच्चता के प्रश्न पर संसद वनाम जनता का ये द्वन्द सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं ने अपने स्वार्थ वश ही पैदा किया गया है। संसद कानून निर्माण के लिए सर्वोच्च है इस पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए लेकिन उस संसद के मूल में हमेशा जनता ही होती है तो स्वाभाविक है की वास्तिविक शक्ति उसी में मानी जाए। अंत में मैं अब्राहम लिंकन के प्रसिद्ध कथन से अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि-लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार है" इससे भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शक्ति किसमें है।