बुधवार, 26 दिसंबर 2012

जलवायु परिवर्तन: धरती की पुकार

हम कैसी पृथ्वी चाहते है? न विश्व और न ही भारत इस दिशा में सोचने को तैयार है।
पृथ्वी की दशा कैसी हो रही है? इसका चित्रण अगर पर्यवारंविद सुदरलाल बहुगुणा के शब्दों में किया जाए तो यह 1943 में पड़े बंगाल के उस आकाल की माँ की तस्वीर जैसी है जिसमें वह मृत्यु शय्या पर लेटे हुए भी अपने बच्चे को दूध पिला रही है। इसका मतलब धरती माँ की स्थिति भी उस माँ की तरह है जो मरते हुए भी अपने बच्चों की भूख संसाधनों से मिटाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बच्चे हैं की धरती की पीड़ा सुनने को तैयार नहीं!!

   धरती की बदलती आवो-हवा के बीच पर्यावरण को बचाने की पहली कोशिश 1972 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में जिनेवा में हुयी। उसमे सभी देशों के प्रमुखों ने भाग लिया, भारत की तरफ से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने गरीबी को सबसे बड़ा प्रदूषण बताया और कहा कि पर्यावरण सरक्षण के नाम पर गरीबी मिटाने के लक्ष्य को एक तरफ नहीं रखा जा सकता। इस सम्मलेन के बाद ही पर्यावंरण का मुद्दा पहली बार वैश्विक मंच पर उठाया गया था।
1985 में पर्यावरण परिवर्तन पर पहला महत्वपूर्ण सम्मलेन ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में हुआ जिसमें ये चेतावनी दी गयी की ग्रीन हाउस गैसों की वजह से तापमान बढ़ रहा है और 2050 तक समुद्री जल स्तर 1 मीटर तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर एक व्यवस्थित रोडमैप पर आगे बढ़ने के लिए 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) नाम से एक संधि हुयी जिसमे पर्यावरण के लिए हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों को हानिकारक स्तर से नीचे रखने के लिए बात की गयी। इस सम्मलेन को अर्थ समिट (पृथ्वी सम्मलेन) के नाम से भी जाना जाता है, इसी में भविष्य के लिए 'एजेंडा 21' को भी स्वीकार किया गया। तब से अब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर UNFCCC  के अंतर्गत 18 सम्मलेन हो चुके हैं। इन्हें कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीस (COP) के नाम से जाना जाता है। पर्यावरण के मुद्दे को एक बार फिर से जीवित करने का श्रैय कोपनहेगन सम्मलेन को है। इस सम्मलेन में अमेरिका और बेसिक(ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन) देशोंके बीच एक गैर-बाध्यकारी समझौता हुआ, जिसका महत्वपूर्ण लक्ष्य दुनिया के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश इस सीमा को 1.5 तक ही सीमित करना चाहते हैं। इसी सम्मलेन में 2020 तक 44गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड तक उत्सर्जन की बात कही गयी थी लेकिन जैसा अभी चल रहा है उससे ये 55-56 गीगा टन तक पहुँच सकता है। विश्वबैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2100 तक दुनिया का तापमान 4 डिग्री तक बढ़ने की संभावना है, साथ में ये चेतावनी दी है की अगर विभिन्न देशों की सरकारों ने प्रभावकारी कदम नहीं उठाये तो तापमान बढ़ने की ये सीमा 2060 में ही पहुँच जायेगी। अन्य संस्थाओं के अनुमाओं के अनुसार ये बृद्धि 6 डिग्री तक हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने के लिए अंतिम 18वां सम्मलेन दिसंबर के बीच क़तर की राजधानी दोहा में हुआ। पिछला सम्मलेन दक्षिण अफ्रीका के डरबन में हुया था जिसमें किसी समझौते पर बात न बनते हुए सिर्फ बहस को जारी रखने पर सहमती बन पायी थी।
दुनिया के नेता जलवायु परिवर्तन को लेकर कितने गंभीर है इस बात का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि दोहा में दुनिया के अग्रणी देशों के नेताओं में से कोई इसमें भाग लेने नहीं गया था, भारत की तरफ से पर्यावरण मंत्रालय के सचिव ने प्रतिनिधित्व किया।
 दोहा के इस सम्मलेन में एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों  की कटौती पर कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो सका है।  विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक सहायता के लिए $100 के फंड पर भी बात हुयी लेकिन कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं बन पाया।
सम्मलेन की उपलब्धि/प्रगति के नाम पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि 2020 तक बढ़ा दी गयी है। क्योटो प्रोटोकाल 1997 में हुयी एक मात्र संधि है जो 1990 को आधार वर्ष मानकर 37 ओउद्योगिक देशों पर 16 फरबरी 2005 से 5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन पर कटौती को लागू करती है। अमेरिका इस संधि में शुरू से से शामिल नहीं रहा और कनाडा 2011 में इस सन्धि से अलग हो गया। इस संधि में सबसे बड़ी खामी यह है कि उत्सर्जन कटौती को जाचने के लिए कोई स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय निकाय नहीं है। किसी देश ने कटौती का लक्ष्य कितना हासिल किया है, इसे वह देश स्वयं ही देखता है।
वर्तमान में इस संधि को ही आगे बढ़ने से कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्यों कि-एक, 1990 से 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत से अधिक बृद्धि हो चुकी है ऐसे में 1990 को आधार वर्ष मान कर कटौती करना मांग के अनुरूप वेहद कम है। दूसरा, इस संधि में शामिल 36 देशों का कुल उत्सर्जन मात्र 15 प्रतिशत है। वर्तमान में सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका, चीन और भारत इससे बाहर है। अमेरिका का मानना है की वह अपने नागरिकों के जीवन शैली से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता। भारत और चीन जैसे देश कम प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन और गरीबी का हवाला देकर किसी भी बाध्यकारी समझौते का विरोध करते हैं।
अब सवाल उठता है क्या क्या वास्तव में पर्यावरण सुरक्षा से ज्यादा जरूरी जीवन शैली है??
        भारत के सन्दर्भ में देखें तो हमारी जनसंख्या स्थरीकरण का लक्ष्य एक झटके में वर्ष 2045 से 2070 हो जाता है, ऐसे में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन तो कम होना ही है!
अपनी एक अक्षमता का फायदा उठाकर हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहें है। चीन का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 5.8 मीट्रिक टन है जो भारत के 1.7 मीट्रिक टन से पर्याप्य ज्यादा है। वह विकासशील देशों की आड़ लेकर पर्यावरण के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। हम सभी पर्यावरण को इस स्तर तक दूषित करने के लिए औद्योगीकृत पश्चिमी देशों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन सभी ने विकास के लिए वही पश्चमी पूंजीवादी माडल अपनाया हुआ है। मतलब वो दोषी है, लेकिन हम भी विकास करने के लिए उसी रास्ते पर चल रहे हैं, उन्ही की गलती को दोहरा रहे हैं। जो न सिर्फ मानव जगत के अस्तित्व लिए हानिकरक है बल्कि भारत की विश्व शांति की व्यापक संकल्पना के विरूद्ध है।

    वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञ और विभिन्न देशों में भारत के राजदूत रहे जे एन दीक्षित अपनी किताब भारतीय विदेश नीति में विदेश नीति के आधार भूत तत्वों को बताते हुए विवेकानंद, महात्मा गाँधी और नेहरु को उद्धृत करते हुए कहते हैं-भविष्य में भारत को विश्व में शान्ति के दूत, न्याय एवं नैतिक आधार पर विश्व व्यवस्था के अग्रदूत की भूमिका निभानी है।"   ये  बात सही है कि  अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने देश के हितों का ध्यान रखते हुए कूटनीति  से काम लेना पड़ता है, लेकिन पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर, जिसके परिवर्तन से हमारा अस्तित्व ख़त्म हो सकता है, पर कूटनीति नहीं दिखाई जा सकती। कूटनीति से युद्ध तो जीते जा सकते हैं लेकिन पर्यावरण की समस्या नहीं सुलझाई जा सकती। हर एक देश को सीमाओं से परे सोचने का वक्त है। अगर नहीं चेते तो हम तो जायेंगे ही साथ में मानव से इतर उन जीवजंतुओं को भी ले डूबेगें जिनका इसमें कोई दोष नहीं है। विकास के नाम पर हमने जिस रास्ते को अपनाया है उसमें पृथ्वी जैसे पांच और गृहों की जरूरत पड़ेगी।
प्रधानमंत्री जी आधारभूत ढांचें में निवेश और विकास में पर्यावरण मंजूरी को बाधा मानते है। निवेश को तेज़ करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय के विरोध दरकिनार करते हुए कैविनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट को मंजूरी दे दी है। वैसे इससे पहले भी जो मंत्रिमंडलीय समूह महत्वपूर्ण निर्णय लेता था उसमें भी एक ही पर्यावरण का प्रतिनिधि होता था और उसमें निर्णय वहुमत के आधार पर लिए जाते थे तो स्वाभाविक ही था कि मंत्री का विरोध होने के बाद भी किसी परियोजना को मंजूरी मिल ही जाती थी।
हम विकास के पीछे इन्ते अंधे हो गए है की पर्यावरण की किसी को चिंता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही हमने कुल भूमि पर 33% वनों का लक्ष्य रखा लेकिन सरकार के आकंड़ो में ही ही 20% के आसपास हैं। स्वतंत्र संगठनो और सेटेलाईट से लिए गए चित्रों में 13-14% पर ही ये आंकड़े सीमिट जाते हैं।
याले यूनिवर्सिटी और कोलंबिया युनिवर्सटी द्वारा हर दो सालों में जारी किये जाने वाले पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (Enviorment  Performance Index)में भारत 2006 से लगातार नीचे जा रहा है। इस साल भारत का स्थान 132 देशों में 125वां है। हम सभी क्षेत्रों में तरक्की कर रहें हैं लेकिन इस गृह को जीने योग्य बनाने वाले वन सिमिटते जा रहे हैं, ये हाल सिर्फ भारत का नहीं है पूरी दुनिया का यही हाल है। हर एक मिनट 9 हेक्टेयर वनों का विनाश किया जा रहा है। इस लेख को पढ़ते-पढ़ते कई हेक्टेयर  वन उजड़ चुके होंगे। भारत सरकार ने 2008 में नेशनल क्लाइमेट चेंज एक्शन प्लान को मंजूरी दी है जिसमें 8 मिशन हैं। नोबल पुरुषकार विजेता और द एनर्जी एण्ड रिसोर्सिस इंस्टिट्यूट (TERI) के निदेशक डॉ आर के पचौरी के अनुसार इस एक्शन प्लान के क्रियान्वयन सही न हो पाने के कारण इसकी सफलता संदिग्ध है। यह माना जाता है की प्रदूषण के मामले में भारत 2025 तक चीन को पीछे छोड़ देगा।
  जीवन के लिए सबसे पहले शुद्ध वायु चाहिए, फिर पानी और फिर भोजन। शेष चीजें द्वितीयक हैं, लेकिन हम इन मूलभूत जरूरतों को छोड़कर किसे पाने की दौड़ में दौड़े जा रहे हैं?
ग्लोबल वार्मिंग के क्या प्रभाव होगा या हो रहा है या हो सकता है। इस पर विश्व स्वस्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट गौर करने लायक है। किसके अनुसार 2011 में ही 332 प्राकृतिक आपदाओं से 31 हज़ार से अधिक लोगों की जाने गयी हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 25 वर्षों के दौरान धरती का ताप बढ़ने की दर 0.18 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक रही है।
पिछले साल जापान में आई सुनामी, अमेरिका का सैंडी, भारत में नीलम प्रकृति की चेतावनियाँ है अगर हम नहीं चेते तो पंडोरा जैसे किसी गृह पर जाने के लिए तैयार रहना होगा। अंत में गांधी जी का वही कथन कि धरती के पास आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए तो संसाधन हैं लेकिन लालच की पूर्ति के लिए संसाधन न कभी थे और न कभी होंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें