मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

उत्तरप्रदेश के सरकारी स्कूलों में हो बॉयोमैट्रिक ‘प्लस’ अटैंडडेंस सिस्टम

संवेदनशील नेतृत्व के साथ अधिकारों की भी जरूरत


 उत्तरप्रदेश के परिषदीय स्कूलों (आम बोलचाल में सरकारी स्कूल) में इन दिनों ऑनलाइन/इलेक्ट्रॉनिक उपस्थिति (अटैंडडेंस) की पहल शुरू हुई है. इसके लिए विद्यालयों में टैबलेट भी आने शुरू हो गए हैं. बताया जा रहा है कि इन लैबलेट्स पर विद्यार्थियों के अलावा शिक्षकों की भी रियलटाइम आधार पर उपस्थिति लगेगी. प्रदेश के 7 जनपदों में ये पहल नवंबर से पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू हुई. इन 7 जनपदों में लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, रायबरेली, उन्नाव व श्रावस्ती को शामिल किया गया था. बाद में 1 दिसंबर से ये व्यवस्था प्रदेश के सभी जनपदों में शुरू कर दी गई है. इसकी कोशिशें पिछले कई सालों से चल रही थी लेकिन प्रदेश में शिक्षकों की संख्या और उनकी राजनैतिक शक्ति के सामने इच्छा शक्ति की कमी से अभी तक इसे लागू नहीं किया जा सका था. इस मामले में यूपी के निवर्तमान शिक्षा महानिदेशक विजय किरण आनंद अब अपने प्रयास सफल होते दिख रहे हैं (कुछ दिन पहले ही उनका विभाग बदल दिया गया है). कुल मिलाकर ये अच्छी कोशिश है, भले ही इसे देर से लागू किया जा रहा हो. हालांकि जैसा अंदेशा था, शिक्षक इसका विरोध कर रहे हैं. उनके इस विरोध को भी हम देखेंगे लेकिन उससे पहले किसी भी काम के लिए समय के महत्व पर थोड़ी/हल्की की चर्चा कर लेते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर; पंचायत का सबसे बड़ा विद्यालय, चुनावों का समय था

विद्यालयों में विद्यार्थियों से ज्यादा शिक्षकों का समय से आना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनसे ही बच्चे देर-सवेर आना शुरू कर देते हैं और फिर एक कुचक्र चल पड़ता है. एक ग्राम प्रधान (अन्य प्रदेशों में सरपंच या मुखिया कहते हैं) के रूप में हमने पाया है कि शिक्षकों का देर से विद्यालय आना और जल्दी चले जाना बहुत सामान्य और स्वीकार्य हो गया है (कॉमन और एक्सेप्टेड). इसके सामाजिक कारण हैं. इस बुराई के बारे में कोई कहने या सुनने वाला नहीं है. मसलन, हमारी पंचायत में कुल तीन विद्यालय हैं. इन सब में अभी रजिस्टर में अध्यापक समय और हस्ताक्षर करके अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं (मैन्युअल अटैंडडेंस), जो कतई विश्वसनीय नहीं होती. पंचायत के तीन विद्यालयों में से एक विद्यालय कम से कम 6-7 सालों से बंद चल रहा है, तो एक अन्य विद्यालय में महिला शिक्षिका कभी समय से नहीं आतीं. वे विद्यालय की प्रधानाचार्या भी हैं. कई बार उन्हें मौखिक चेतावनी दी गई लेकिन उनके आचरण में कोई परिवर्तन नहीं आया है. इस तरह उनकी देरी का परिणाम बच्चों को भुगतना पड़ता है. गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए नियमित और पूरे समय शिक्षिकों की उपस्थिति पहली शर्त है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी विद्यालयों में यही कहानी हो. पंचायत के सबसे बड़े विद्याल में व्यवस्था बेहतर चल रही है. ऐसा यहां शिक्षकों की खुद की निष्ठा और ग्राम-प्रधान के रूप में हमारे द्वारा नियमित देखभाल से संभव हो पाया है. लेकिन सभी विद्यालयों में नियमित देखभाल संभव नहीं हो सकती है. यहीं से इस समस्या के समाधान का विचार पनपा है, जो एक विकल्प के रूप में रखा जा रहा है.
देखा गया है कि राज्य सरकार के अन्य विभागों में ऑनलाइन
/इलेक्ट्रॉनिक अटैंडडेंस (सेल्फी इमेज या वीडियो) की व्यवस्था शुरू हुई लेकिन ठीक से काम नहीं कर सकी और कर्मचारियों ने इसका कोई न कोई तोड़ निकाल लिया था. जैसे फिंगरस्कैनर के मामले में पहली बार डेटा फीडिंग (प्री-डेटा फीडिंग) में अगर विकल्प के तौर पर तीन उंगलियां स्कैन होनी थी तो दो अपनी उंगलियां स्कैन कराई गईं और तीसरी में किसी अन्य सहकर्मी की उंगली स्कैन करा दी गई, ठीक यही दूसरे कर्मचारी के साथ किया गया. दूसरा, सेल्फी इमेज तस्वीर वाली व्यवस्थाओं के भी तोड़ निकाल लिए गए हैं. दूसरा अगर सेल्फी की व्यवस्था की गई तो फोटो से फोटो अथवा वीडियो से वीडियो लेकर इसका तोड़ भी निकाल लिया गया.
इनके असफल रहने का एक कारण अटैंडडेस की ये व्यवस्थाएं किसी थर्डपार्टी या विभाग के अपने बनाए गए सिस्टम से जुड़ी थीं, जिसमें कर्मचारी का बस उतना ही डेटा लिया जाता था, जितना विभाग के पास है और उनका सुपरविज़न में स्थानीयता को ध्यान में नहीं रखा जाता.
इस मामले में केंद्र सरकार (नई दिल्ली) के दफ्तरों में लगी बॉयोमैट्रिक-अटैंडडेंस की व्यवस्था एक बेहतरीन
/उल्लेखनीय उदाहरण है. यहां के सिस्टम में आधार का डेटा विभाग के डेटा के साथ मिलता है और अंतिम उपस्थिति की पूरी व्यवस्था काम करती है. मोटे तौर पर अभी तक ये व्यवस्था लीक प्रूफ रही है. इस अटैंडडेंस के डेटा से ही माहीने के अंत में किसी कर्मचारी का वेतन तय किया जा सकता है. जैसे सप्ताह में उसने कुल कितने घंटे काम किया, उसने कुल कितनी छुट्टियां ली और अपने पूरे सेवाकाल में कुल कितने समय दफ्तर में कम काम किया.
पूरी जानकारी एक क्लिक में जानकारी हासिल की जा सकती है कि किसी दफ्तर में कोई कर्मचारी कितने घंटे रहा या नहीं. दफ्तरों में कर्मचारियों की मौजूदगी पब्लिक इंफॉर्मेशन है, इसे निजता से जोड़कर खारिज़ नहीं किया जा सकता है. इस व्यवस्था में संबंधित विभाग के अधिकारियों को एडमिन-पॉवर देकर उन्हें अधिनस्थों पर निगाह करने में मदद मिलती है.
यही व्यवस्था परिषदीय स्कूलों में लागू किए जाने की जरूरत है. जहां ऑनलाइन
/इलेक्ट्रॉनिक अटैंडडेंस की जगह बॉयोमैट्रिक अटैंडडेंस लगे. इसमें फिंगर-स्कैनिंग के साथ फेस स्कैनिंग/रिक्गनिशन और जरूरत पड़ने पर रेटिना स्कैनिंग भी हो. इसके लिए सिर्फ डिवाइसेज़ की जरूरत पड़ेगी या यही काम टैबलेट्स से भी किया जा सकता है और चूंकि ये UIDAI और NIC के डेटा सेंटर से सिंक्रोनाइज़ (Syncronize) होंगे तो अलग या पहले से कोई अतिरिक्त डेटा फीड करने (प्री-डेटा फीडिंग) की जरूरत नहीं होगी. न डेटा की डुप्लीकेसी होगी और न ही एक कर्मचारी के आने पर उसका सहकर्मी अपनी उंगली स्कैन करवाकर अटैंडडेंस लगा सकेगा.
लेकिन सिर्फ मशीनीकरण या तकनीकीकरण ही सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकता. इसके लिए मानवीय पहलू को शामिल करना भी जरूरी है. इस मानवीय पहलू पर हम बाद में आएंगे, पहले संक्षिप्त रूप से शिक्षकों का पक्ष जान लेते हैं.

शिक्षकों का विरोध
इन परिषदीय स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के संगठन ने इसका विरोध सिम कार्ड
/नेटवर्क की उपलब्धता, सिम कार्ड अपने व्यक्तिगत दस्तावेज़ों पर न लेने, किसी कारणवश एक दिन में दूसरी बार अटेंडेंस न लगने की स्थिति (किसी विशेष/आपात स्थिति) में पूरे दिन की अनुपस्थिति लगना जैसे मसलों के कारण विरोध जताया है.
दरअसल, ये विरोध ऐसा नहीं है जिसके आधार पर प्रस्तावित व्यवस्था को रोक दिया जाए. क्योंकि सिम और इसके रिचार्ज के लिए फंड की व्यवस्था के लिए स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं. रही बात नेटवर्क की उपलब्धता की तो अब भारत के अधिकतर इलाकों में अब ये कोई समस्या नहीं है. फिर उत्तरप्रदेश जैसे मैदानी प्रदेश में तो ये समस्या और भी कम है. ये कारण इसलिए भी सतही कहा जाएगा क्योंकि ठीक इसी तरह का कारण 2023 की शरुआत में ग्राम प्रधानों ने मनरेगा में लगने वाली ऑनलाइन हाज़िरी को लेकर बताया था, लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कोई विचार करना भी उचित नहीं समझा. ग्रामीण इलाकों में नेटवर्क का कारण वहां भी एक बहाना था, यहां भी एक बहाना ही है. ऐसे में अब सिर्फ यहां दो आधार तार्किक जान पड़ते हैं एक, निजता बनाए रखने के लिए शिक्षा-विभाग को इलाके में सर्वश्रेष्ठ नेटवर्क उपलब्धता के आधार पर सिम खरीदना चाहिए और दूसरा, किसी विशेष
/आपात स्थिति में एक समय उपस्थिति से बचने की व्यवस्था होनी चाहिए. ये मांगें ठीक जान पड़ती है और विभाग को इसका समाधान भी करना चाहिए. लेकिन ये कोई इतनी बड़ी मांगें भी नहीं है कि ये खारिज़ करने का आधार ही बन जाएं.
कुछ शिक्षकों की तरफ से एक अन्य तर्क बारहमासी सड़कों के अभाव में सुदूर ग्रामीण इलाकों में स्थित विद्यालयों में समय से न पहुंचने को लेकर दिया जा रहा है. तो किसी भी सार्वजनिक सेवा में समय से न पहुंच पाने को एक नियम या एस्क्यूज़ नहीं बनाया जा सकता, शिक्षा में तो ये कतई संभव ही नहीं है. अगर आप किसी विभाग के कर्मचारी हैं तो समय से पहुंचना आपकी ड्यूटी है, देरी के कोई स्वीकार्य नहीं हो सकते.

ग्रामीण इलाकों के विद्लायलों में ग्राम प्रधानों की सुपर-विज़न की भूमिका; संवेदनशीलता+अधिकार
अब फिर से उसी बिंदू पर आते हैं कि सिर्फ मशीनीकरण या तकनीकीकरण किसी समस्या का समाधान नहीं है और कैसे इसमें मानवीय या स्थानीय पहलू जोड़ा जा सकता है. यूं तो आधार आधारित बॉयोमैट्रिक अटैंडडेंस अभी तक, इसका कोई तोड़ या बाईपास न निकलने के लिहाज़ से लीक प्रूफ ही रही है. लेकिन फिर भी विद्यालों के मामले में, इसमें सुपर-विज़न के तौर पर ग्राम प्रधान को शामिल किया जा सकता है, जो हफ्ते या माहवार आधार पर अपनी पंचायत में पड़ने वाले परिषदीय विद्यालों में शिक्षकों की अटैंडडेंस को चेक करने से आगे जाकर उसे तकनीकि रूप से ही पुष्ट (इलेक्ट्रॉनिकली बैरीफाई
/चेक) कर सके. (नगरीय इलाकों में नगरीय निकाय के जनप्रतिनिधियों को ये अधिकार दिए जा सकते हैं) उसके वैरिफिकेशन के बाद ही संबंधित विभाग वेतन की कार्यवाही को आगे बढ़ाए. ये कुछ-कुछ अटैंडडेंस में ग्राम प्रधानों को एडमिन-पॉवर देने जैसा है. इसीलिए इसे बॉयोमैट्रिक प्लस नाम दिया जा रहा है. ऐसा नहीं कि ये मांग या सुझाव बिना किसी आधार के दिए जा रहे हैं. 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायतों के सशक्तिकरण के लिए जो 29 विषय तय किए गए हैं, उसमें प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा भी शामिल है. इसमें आज की स्थिति में सिर्फ एक शिक्षा समिति बना दी जाती है लेकिन कोई कार्य तो छोड़िए गठन के बाद उसे कोई जानता भी नहीं है. जैसे-तैसे हमने अपनी पंचायत में पहली साल में शिक्षा समिति की बैठक बुलाई तो सबके लिए आश्चर्य की बात थी. समिति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (NEP-2020) को पंचायत के एक विद्यालय में लागू करने के संबंध में कुछ सिफारिशें कीं लेकिन उन सिफारिशों का अंततः बहुत ज्यादा ठोस ढंग से लागू नहीं किया जा सका क्योंकि इस संबंध में ग्राम-पंचायतों/प्रधानों को ठीक से अधिकार नहीं दिए गए हैं. पंचायत में होने वाली अन्य गतिविधियों अथवा कार्यों (संविधान में पंचायतों को दिए गए इसके अलावा अन्य 28 विषय) के लिए ग्राम प्रधान अगर सुपर-विज़न की भूमिका में हैं तो कोई कारण नहीं है कि शिक्षा-व्यवस्था में उन्हें इस भूमिका और अधिकारों से वंचित रखा जाए. आखिर एक जनप्रतिनिधि अगर सुपरवाइज़ नहीं करेगा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसके होने के मायने क्या रहेंगे? और लोकतंत्र, जिसमें उत्तरदायित्य एक अभिन्न पहलू है, वह गायब होता चला जाता है.
अटैंडडेंस सुपरविज़न से ग्राम प्रधान अपनी पंचायतों के विद्यालयों में भी रूचि लेंगे जो दुर्भाग्य से अभी तक नहीं लेते हैं. (अभी सिर्फ मिड डे मील में ग्राम प्रधानों को आधे वित्तीय अधिकार हासिल हैं, जिससे
MDM के मामले में उनका सुपरविज़न हो जाता है).
वहीं दूसरी ओर हर हफ्ते या महीने में ग्राम प्रधानों का सुपर विज़न शिक्षिकों पर भी नियमित समय विद्याय आने-जाने के साथ उनपर एक नैतिक दवाब बनाएगा कि वे विद्यालय को लेकर थोड़े गंभीर हों क्योंकि अंततः इसकी पूरी संभावना है कि गांव का जनप्रतिनिधि, औरों की अपेक्षा गांव के संसाधनहीन और गरीब बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा. इसलिए संभावना है कि अटैंड़डेंस के बहाने सुपरविज़न की ये व्यवस्था शैक्षिणिक गुणवत्ता को भी प्रभावित करने वाली हो सकती है. अटैंडडेंस में ग्राम प्रधानों के सुपरविज़न का ये प्रयोग अगर सफल होता है तो इसे अन्य परीक्षणों जैसे प्रदेश में चल रहे निपुण कार्यक्रमों में भी शामिल किया जा सकता है. इन सुझावों को पढ़ते हुए किसी के मन में ये विचार घर सकता है कि सुपरविज़न की ये व्यवस्था एक मध्यस्त बढ़ने के साथ भ्रष्टाचार बढ़ाने वाली हो सकती है क्योंकि
MDM में ग्राम प्रधानों को जो आधे वित्तीय अधिकार मिले हैं, उसमें भी ग्राम प्रधान कमीशन की अपेक्षा रखते हैं, बल्कि कुछ तो इसे अधिकार स्वरूप मांगने से भी नहीं हिचकते. तो यहां गौर करने वाली बात है कि बेहद दुर्भाग्य से इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि MDM में भी कुछ प्रधान ऐसा करते हैं लेकिन उससे कहीं ज्यादा संख्या में ग्राम प्रधान ऐसे हैं जो इन्हीं अधिकारों के बहाने MDM खाने की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करवा पाते हैं.

केंद्रीयकरण से बेहतर विकेंद्रीकरण के परिणाम

ये दुर्भाग्य है कि पिछले कुछ सालों में उ.प्र. शिक्षा विभाग, खासतौर पर बेसिक शिक्षा में केंद्रीयकरण बहुत ज्यादा बढ़ा है. इसमें जिला स्तर पर महत्वपूर्ण शक्तियां अब बहुत कम दी गई हैं या लगभग हटा दी गईं हैं, ऐसे में सब कुछ निदेशालय से ही सुपरविज़न-नियंत्रण-एक्शन होता है. इस प्रयोग ने अच्छे परिणाम नहीं दिए हैं और इस कारण किसी जनपद में तैनात शिक्षकों के मन में कर्तव्य-पलायन न करने अथवा अकर्मण्यता की स्थिति में कोई कार्रवाई होने का डर कम हुआ है. ऐसे में जरूरत है कि केंद्रीयकरण की इस प्रवृति पर ब्रेक लगाकर, ग्राम-पंचायत को शामिल करते हुए विकेंद्रीकरण का ये मॉडल अपनाया जाए. कम से कम इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर कुछ ही जिलों में लागू करके देखा जाता सकता है. लोकतंत्र की प्रक्रिया हमेशा से विकेंद्रीकरण की वक़ालत करती है और इससे बेहतर परिणाम भी बेहतर होने के ही उदाहरण ज्यादा मिले हैं. शिक्षा के मामले में ऐसा इसलिए हो सकता है कि अंततः गांव के प्रतिनिधि सोच पाते हैं कि ये गांव उनका ही अपना है और ये बच्चे भी उनके अपने ग्रामीण परिवार के ही हैं. व्यस्थाएं बेहतर करने के लिए यही संवेदनशीलता सबसे पहले जरूरी होती है और जब संवेदशीनलता कुछ अधिकारों के साथ मिलेगी तो चीजें निश्चित तौर पर ठीक ही होंगी.