बुधवार, 29 मई 2013

जेएनयू का एक मोहल्ला-आईआईएमसी (पहली क़िस्त)

 मैंने आई आई एम सी (भारतीय जनसंचार संस्थान) का फॉर्म भरा था तब मुझे ये आशा थी कि अगर मेरा इसमें सिलेक्शन हो गया तो लगभग पैंतालिस-पचास हज़ार रुपयों में नौ-दस महीनों के लिए पढने के साथ-साथ रहने और खाने का इंतजाम हो जायेगा। हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए होगा ऐसा तो दिमाग में कभी आया ही नहीं था क्योकि जिस 'मोहल्ले' में ये है वहां हर तरफ हॉस्टल ही हॉस्टल हैं, ऐसे में लड़के-लड़कियों के बीच भेदभाव की बात दिमाग में भी कैसे आ सकती थी। जब इंटरव्यू के लिए मुझे बुलाया गया तो मैं लगभग एक हफ्ते पहले आई आई एम् सी आया, उद्देश्य था किसी स्टूडेंट से इंटरव्यू में पूछे जाने वाले प्रश्नों की प्रकृति जानने का। पूर्वांचल की तरफ से आया तो पहले सीधे हॉस्टल में रहने वाले स्टूडेंट से मिलना स्वाभाविक था। लेकिन वह बैठे जिंदगी का अधिकांश समय आई आई एम सी में बिता चुके ताराकांत जी (तब मैं उनका नाम नहीं जनता था) ने बताया की ये हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए है और मई-जून तक सभी स्टूडेंट हॉस्टल से जा चुके होते हैं। फिर मैंने उन्हें ही अपनी जिज्ञासा के बारे में बताया तब उन्होंने मुझे चावला सर से  मिलने की सलाह दी, साथ में ये भी कहा की वो स्टूडेंट के लिए 'देवता' जैसे हैं। सभी की समस्याएं हल कर देते हैं। चावला सर से मैं पहले भी मिल चूका था-एडमिट कार्ड के संबंध में। इस बार जब मैं उनसे मिला तो अपना नाम बताया, सर ने तुरंत बोला की आपका हिंदी वाली लिस्ट में नाम है। ऐसा लगा मानो सर को इंटरव्यू के लिए बुलाये गए छात्रों की पूरी लिस्ट याद थी..!!! इंटरव्यू से रिलेटेड अपनी जिझक जब मैंने उनको बताई तो उन्होंने बस करंट पर गौर करने को कहा और हर बार इंटरव्यू बोर्ड बदलने की बात कहकर प्रश्नों के स्वरुप के बारे में कुछ नहीं बताया। चलते-चलते मैंने हॉस्टल और लड़कियों के सम्बन्ध के बारे में फिर पूछा-ये सोच कर कि शायद ताराकांत जी को पता न हो। लेकिन अफ़सोस हॉस्टल सिर्फ लड़कियों के लिए ही था। लड़कों के लिए कटवारिया, बेर सराय और मुनिरका ही जिंदाबाद थे।

इंटरव्यू दिया तो ब्लंडर कर दिया। जिंदगी का पहला इंटरव्यू था सामने थे आनद प्रधान सर और एन के सिंह सर अभी तक सिर्फ न्यूज़ पेपरों में देखा था, उन्हें देख कर हक्का-बक्का रह गया। साथ में कोई तीसरे सर भी थे लेकिन जैसा प्रकृति का नियम है-सूर्य के आगे तारे दिखाई कहाँ देते हैं। आनंद सर और एन के सिंह सर के आभा मंडल में मुझे कुछ दिखाई नहीं दिया। 4-5 प्रश्नों में से 1-2 से ज्यादा के जबाव नहीं वो भी टूटे फूटे...!!


दस-बारह मिनट लगे होंगे मेरी छीछालेदर में और अंत मेंआनंद सर का कड़क का जबाव-धन्यवाद अमित जी आप जा सकते हैं। बिजली गिरी, सोच लिया की मौका निकल गया आई आई एम सी में पढने का। ऐसा नहीं था कि उन प्रश्नों के जबाव मुझे आते नहीं थे, कोई मुझसे कह दे तो हर प्रश्न का पाँच-पाँच सौ शब्दों में जबाव लिख दूं लेकिन मौके पर चौका नहीं लगा पाया क्योकि सामने पत्रकारिता के शोएब अख्तर बैठे थे जिनके हर प्रश्न 160 मील प्रति घंटे से आती योर्कर के सामान थे .!!मैं कब तक विकेट बचा पता!!
मानव स्वाभाव के अनुरूप रूम पर आकर सिस्टम को कोसा जो मुझ जैसे 'होनहार' का सिलेक्शन नहीं कर 'अनमोल रत्न' खोने जा रहा था!! लकिन मन में कहीं कोने में एक आशा थी कि लिखित परीक्षा अच्छी हुयी है  तो शायद हो जाए। इसीलिए इंटरव्यू के कुछ ही दिनों बाद चावला सर को रोज़ शाम को फोन कर रिजल्ट के बारे में पूछता खैर रिजल्ट आया और पहली ही लिस्ट में मेरा नाम भी आया एडमिशन लिया और साथ में शुरू हुयी मुनिरका में कमरे के लिए खोज। प्रॉस्पेक्टस के हिस्साब से 1 अगस्त से ओरिएन्तेतेद क्लास शुरू होनी थी लेकिन हुयी 30 जुलाई से। पहली अगस्त से गया तो आई आई एम सी का 'मंच' देख कर फिर अचंभित, क्योकि कि ऐसा भव्य हाल तो सिर्फ मैंने कानपुर के रेव थ्री में देखा था जो उत्तर प्रदेश की शायद सबसे लक्ज़री टाकीज थी। अगले थीं दिनों तक एक से बढ़कर एक धुनंदर आये-डॉ योगेन्द्र यादव, प्रो आनंद कुमार, परंजय गुहा, डॉ देविंदर शर्मा और न जाने कौन-कौन ...
फिर शुरू हुआ कक्षाओं का दौर। पहली क्लास मुझे आज तक नहीं भूलती जब आनंद सर ने कहा था कि आपके पास ये नौ महीने हैं जो यूँ ही निकल जायेंगे,पता भी नहीं चलेगा। उस दिन सर ने गुलाबी रंग की हाफ शर्ट पहन राखी थी। अगर कोई मेरे दिमाग को पढ़कर उस दिन की तस्वीर बनाये तो वो पूरा वीडियो बन जायेगा, इतनी अच्छी तरह याद है मुझे...               
                                                                                                                (जारी रहेगा-एक ब्रेक के बाद)