मंगलवार, 27 अगस्त 2013

प्रधानमंत्री और संसद सदस्यों के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय प्रधानमंत्री जी/संसद सदस्य,
            सरकार ने हाल में सूचना के अधिकार अधिनियम के अधिकार क्षेत्र से राजनैतिक दलों को बाहर करने के लिए इस कानून में संसोधन करने के लिए एक बिल पेश किया है. इसके साथ ही कैबिनेट ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुच्छेद 8(4) पर दिए गए माननीय सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए प्रस्तावित संसोधनों के ड्राफ्ट को मंजूरी दे दी है. 


इन्ही मसलों से संबंधित ये पत्र मैं आप लोगों को लिख रहा हूँ.

आप सभी ने संसद सदस्य/मंत्री बनने से पहले कुछ शपथ ली होगी संविधान और देश की रक्षा के लिए, अपने कर्तव्यों को पूर्ण निष्ठा से निभाने की. दो मिनट रुककर उस शपथ को याद कीजिए. क्या आपके ये प्रस्तावित कदम उस शपथ के अनुरूप हैं? अगर यहाँ आप उस शपथ से इसका कोई संबंध न जोड़ पा रहें हो तो कृपया महात्मा गाँधी का वह जंतर याद कीजिए जो हर उस बच्चे की किताब के पहले पन्ने पर चस्पा रहता है जो अक्षर ज्ञान के आरंभ से स्नातक/परास्नातक तक और बाद में भी डिग्रीयां धारण करता जाता है.
क्या आपके ये प्रस्तावित कदम अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति को कुछ लाभ पहुंचाएंगे?

आम जनमानस में जनप्रतिनिधियों की क्या छवि है इसके लिए मुझे कोई उदहारण देने की आवश्यकता नहीं है. ये आप सभी भली-भांति जानते हैं. लेकिन फिर भी बहुत से लोग अभी भी संसद को 'लोकतंत्र के मंदिर' के रूप में देखते है. उनके लिए संविधान 'गीता' के सामान पवित्र है. वे चाहते हैं कि उनके 'मंदिर' और 'पवित्र ग्रंथ' पवित्र ही रहें।
अन्ना के माध्यम से इस संसद ने देश जो वादे किए थे, उनके पूरे न होने पर पहले ही आमजन निराश है, वह अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. ऐसे में आपके ये दोनों कदम जन-असंतोष बढाने के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। खासकर सजाहाफ्ता लोगों को फिर से चुनाव लड़ने योग्य बनाना कहीं से भी उचिंत नहीं है. ऐसा कर आप सभी इस मान्यता को स्वयंसिद्ध कर रहे हैं कि "निचली अदालतें सही निर्णय नहीं करती और कोई निर्दोष व्यक्ति भी वे बजह दोषी ठहराया जा सकता है". अगर ऐसा है तो फिर क्यों आम आदमी को उन अयोग्य न्यायालयों के भरोसे छोड़ा जा सकता है?
व्यवस्थाएं ऐसे नहीं चलती, लोगों के सहने की भी सीमा होती है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो लोग सड़कों पर आने को मजबूर होंगे . 

"लोकतंत्र के इन मंदिरों" को पवित्र और सम्माननीय बनाने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यालय ने एक सराहनीय प्रयास किया है. कृपया सवा  अरब लोगों के विश्वास को इन कदमों से ठोकर मत मारिए  लोग आपकी तरफ आशा से देख रहें हैं. 

सधन्यवाद 
मंगलवार, 27 अगस्त 2013 

प्रार्थी
भारतीय गणतंत्र का एक आम नागरिक 


(ये पत्र मैंने लगभग 390 संसद सदस्यों को भी मेल किया है)