बुधवार, 26 दिसंबर 2012

जलवायु परिवर्तन: धरती की पुकार

हम कैसी पृथ्वी चाहते है? न विश्व और न ही भारत इस दिशा में सोचने को तैयार है।
पृथ्वी की दशा कैसी हो रही है? इसका चित्रण अगर पर्यवारंविद सुदरलाल बहुगुणा के शब्दों में किया जाए तो यह 1943 में पड़े बंगाल के उस आकाल की माँ की तस्वीर जैसी है जिसमें वह मृत्यु शय्या पर लेटे हुए भी अपने बच्चे को दूध पिला रही है। इसका मतलब धरती माँ की स्थिति भी उस माँ की तरह है जो मरते हुए भी अपने बच्चों की भूख संसाधनों से मिटाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बच्चे हैं की धरती की पीड़ा सुनने को तैयार नहीं!!

   धरती की बदलती आवो-हवा के बीच पर्यावरण को बचाने की पहली कोशिश 1972 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में जिनेवा में हुयी। उसमे सभी देशों के प्रमुखों ने भाग लिया, भारत की तरफ से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने गरीबी को सबसे बड़ा प्रदूषण बताया और कहा कि पर्यावरण सरक्षण के नाम पर गरीबी मिटाने के लक्ष्य को एक तरफ नहीं रखा जा सकता। इस सम्मलेन के बाद ही पर्यावंरण का मुद्दा पहली बार वैश्विक मंच पर उठाया गया था।
1985 में पर्यावरण परिवर्तन पर पहला महत्वपूर्ण सम्मलेन ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में हुआ जिसमें ये चेतावनी दी गयी की ग्रीन हाउस गैसों की वजह से तापमान बढ़ रहा है और 2050 तक समुद्री जल स्तर 1 मीटर तक बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन पर एक व्यवस्थित रोडमैप पर आगे बढ़ने के लिए 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) नाम से एक संधि हुयी जिसमे पर्यावरण के लिए हानिकारक ग्रीन हाउस गैसों को हानिकारक स्तर से नीचे रखने के लिए बात की गयी। इस सम्मलेन को अर्थ समिट (पृथ्वी सम्मलेन) के नाम से भी जाना जाता है, इसी में भविष्य के लिए 'एजेंडा 21' को भी स्वीकार किया गया। तब से अब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर UNFCCC  के अंतर्गत 18 सम्मलेन हो चुके हैं। इन्हें कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीस (COP) के नाम से जाना जाता है। पर्यावरण के मुद्दे को एक बार फिर से जीवित करने का श्रैय कोपनहेगन सम्मलेन को है। इस सम्मलेन में अमेरिका और बेसिक(ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत, चीन) देशोंके बीच एक गैर-बाध्यकारी समझौता हुआ, जिसका महत्वपूर्ण लक्ष्य दुनिया के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश इस सीमा को 1.5 तक ही सीमित करना चाहते हैं। इसी सम्मलेन में 2020 तक 44गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड तक उत्सर्जन की बात कही गयी थी लेकिन जैसा अभी चल रहा है उससे ये 55-56 गीगा टन तक पहुँच सकता है। विश्वबैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 2100 तक दुनिया का तापमान 4 डिग्री तक बढ़ने की संभावना है, साथ में ये चेतावनी दी है की अगर विभिन्न देशों की सरकारों ने प्रभावकारी कदम नहीं उठाये तो तापमान बढ़ने की ये सीमा 2060 में ही पहुँच जायेगी। अन्य संस्थाओं के अनुमाओं के अनुसार ये बृद्धि 6 डिग्री तक हो सकती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निबटने के लिए अंतिम 18वां सम्मलेन दिसंबर के बीच क़तर की राजधानी दोहा में हुआ। पिछला सम्मलेन दक्षिण अफ्रीका के डरबन में हुया था जिसमें किसी समझौते पर बात न बनते हुए सिर्फ बहस को जारी रखने पर सहमती बन पायी थी।
दुनिया के नेता जलवायु परिवर्तन को लेकर कितने गंभीर है इस बात का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि दोहा में दुनिया के अग्रणी देशों के नेताओं में से कोई इसमें भाग लेने नहीं गया था, भारत की तरफ से पर्यावरण मंत्रालय के सचिव ने प्रतिनिधित्व किया।
 दोहा के इस सम्मलेन में एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों  की कटौती पर कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो सका है।  विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक सहायता के लिए $100 के फंड पर भी बात हुयी लेकिन कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं बन पाया।
सम्मलेन की उपलब्धि/प्रगति के नाम पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि 2020 तक बढ़ा दी गयी है। क्योटो प्रोटोकाल 1997 में हुयी एक मात्र संधि है जो 1990 को आधार वर्ष मानकर 37 ओउद्योगिक देशों पर 16 फरबरी 2005 से 5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन पर कटौती को लागू करती है। अमेरिका इस संधि में शुरू से से शामिल नहीं रहा और कनाडा 2011 में इस सन्धि से अलग हो गया। इस संधि में सबसे बड़ी खामी यह है कि उत्सर्जन कटौती को जाचने के लिए कोई स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय निकाय नहीं है। किसी देश ने कटौती का लक्ष्य कितना हासिल किया है, इसे वह देश स्वयं ही देखता है।
वर्तमान में इस संधि को ही आगे बढ़ने से कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्यों कि-एक, 1990 से 2012 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत से अधिक बृद्धि हो चुकी है ऐसे में 1990 को आधार वर्ष मान कर कटौती करना मांग के अनुरूप वेहद कम है। दूसरा, इस संधि में शामिल 36 देशों का कुल उत्सर्जन मात्र 15 प्रतिशत है। वर्तमान में सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका, चीन और भारत इससे बाहर है। अमेरिका का मानना है की वह अपने नागरिकों के जीवन शैली से किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता। भारत और चीन जैसे देश कम प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन और गरीबी का हवाला देकर किसी भी बाध्यकारी समझौते का विरोध करते हैं।
अब सवाल उठता है क्या क्या वास्तव में पर्यावरण सुरक्षा से ज्यादा जरूरी जीवन शैली है??
        भारत के सन्दर्भ में देखें तो हमारी जनसंख्या स्थरीकरण का लक्ष्य एक झटके में वर्ष 2045 से 2070 हो जाता है, ऐसे में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन तो कम होना ही है!
अपनी एक अक्षमता का फायदा उठाकर हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहें है। चीन का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 5.8 मीट्रिक टन है जो भारत के 1.7 मीट्रिक टन से पर्याप्य ज्यादा है। वह विकासशील देशों की आड़ लेकर पर्यावरण के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता। हम सभी पर्यावरण को इस स्तर तक दूषित करने के लिए औद्योगीकृत पश्चिमी देशों को जिम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन सभी ने विकास के लिए वही पश्चमी पूंजीवादी माडल अपनाया हुआ है। मतलब वो दोषी है, लेकिन हम भी विकास करने के लिए उसी रास्ते पर चल रहे हैं, उन्ही की गलती को दोहरा रहे हैं। जो न सिर्फ मानव जगत के अस्तित्व लिए हानिकरक है बल्कि भारत की विश्व शांति की व्यापक संकल्पना के विरूद्ध है।

    वैदेशिक मामलों के विशेषज्ञ और विभिन्न देशों में भारत के राजदूत रहे जे एन दीक्षित अपनी किताब भारतीय विदेश नीति में विदेश नीति के आधार भूत तत्वों को बताते हुए विवेकानंद, महात्मा गाँधी और नेहरु को उद्धृत करते हुए कहते हैं-भविष्य में भारत को विश्व में शान्ति के दूत, न्याय एवं नैतिक आधार पर विश्व व्यवस्था के अग्रदूत की भूमिका निभानी है।"   ये  बात सही है कि  अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने देश के हितों का ध्यान रखते हुए कूटनीति  से काम लेना पड़ता है, लेकिन पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर, जिसके परिवर्तन से हमारा अस्तित्व ख़त्म हो सकता है, पर कूटनीति नहीं दिखाई जा सकती। कूटनीति से युद्ध तो जीते जा सकते हैं लेकिन पर्यावरण की समस्या नहीं सुलझाई जा सकती। हर एक देश को सीमाओं से परे सोचने का वक्त है। अगर नहीं चेते तो हम तो जायेंगे ही साथ में मानव से इतर उन जीवजंतुओं को भी ले डूबेगें जिनका इसमें कोई दोष नहीं है। विकास के नाम पर हमने जिस रास्ते को अपनाया है उसमें पृथ्वी जैसे पांच और गृहों की जरूरत पड़ेगी।
प्रधानमंत्री जी आधारभूत ढांचें में निवेश और विकास में पर्यावरण मंजूरी को बाधा मानते है। निवेश को तेज़ करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय के विरोध दरकिनार करते हुए कैविनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट को मंजूरी दे दी है। वैसे इससे पहले भी जो मंत्रिमंडलीय समूह महत्वपूर्ण निर्णय लेता था उसमें भी एक ही पर्यावरण का प्रतिनिधि होता था और उसमें निर्णय वहुमत के आधार पर लिए जाते थे तो स्वाभाविक ही था कि मंत्री का विरोध होने के बाद भी किसी परियोजना को मंजूरी मिल ही जाती थी।
हम विकास के पीछे इन्ते अंधे हो गए है की पर्यावरण की किसी को चिंता नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से ही हमने कुल भूमि पर 33% वनों का लक्ष्य रखा लेकिन सरकार के आकंड़ो में ही ही 20% के आसपास हैं। स्वतंत्र संगठनो और सेटेलाईट से लिए गए चित्रों में 13-14% पर ही ये आंकड़े सीमिट जाते हैं।
याले यूनिवर्सिटी और कोलंबिया युनिवर्सटी द्वारा हर दो सालों में जारी किये जाने वाले पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (Enviorment  Performance Index)में भारत 2006 से लगातार नीचे जा रहा है। इस साल भारत का स्थान 132 देशों में 125वां है। हम सभी क्षेत्रों में तरक्की कर रहें हैं लेकिन इस गृह को जीने योग्य बनाने वाले वन सिमिटते जा रहे हैं, ये हाल सिर्फ भारत का नहीं है पूरी दुनिया का यही हाल है। हर एक मिनट 9 हेक्टेयर वनों का विनाश किया जा रहा है। इस लेख को पढ़ते-पढ़ते कई हेक्टेयर  वन उजड़ चुके होंगे। भारत सरकार ने 2008 में नेशनल क्लाइमेट चेंज एक्शन प्लान को मंजूरी दी है जिसमें 8 मिशन हैं। नोबल पुरुषकार विजेता और द एनर्जी एण्ड रिसोर्सिस इंस्टिट्यूट (TERI) के निदेशक डॉ आर के पचौरी के अनुसार इस एक्शन प्लान के क्रियान्वयन सही न हो पाने के कारण इसकी सफलता संदिग्ध है। यह माना जाता है की प्रदूषण के मामले में भारत 2025 तक चीन को पीछे छोड़ देगा।
  जीवन के लिए सबसे पहले शुद्ध वायु चाहिए, फिर पानी और फिर भोजन। शेष चीजें द्वितीयक हैं, लेकिन हम इन मूलभूत जरूरतों को छोड़कर किसे पाने की दौड़ में दौड़े जा रहे हैं?
ग्लोबल वार्मिंग के क्या प्रभाव होगा या हो रहा है या हो सकता है। इस पर विश्व स्वस्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट गौर करने लायक है। किसके अनुसार 2011 में ही 332 प्राकृतिक आपदाओं से 31 हज़ार से अधिक लोगों की जाने गयी हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 25 वर्षों के दौरान धरती का ताप बढ़ने की दर 0.18 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति दशक रही है।
पिछले साल जापान में आई सुनामी, अमेरिका का सैंडी, भारत में नीलम प्रकृति की चेतावनियाँ है अगर हम नहीं चेते तो पंडोरा जैसे किसी गृह पर जाने के लिए तैयार रहना होगा। अंत में गांधी जी का वही कथन कि धरती के पास आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए तो संसाधन हैं लेकिन लालच की पूर्ति के लिए संसाधन न कभी थे और न कभी होंगे।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

भारतीय राजनीति में "पुनर्जागरण के पुरोधा अटल जी" का योगदान

अटल जी के 89वें जन्मदिन पर उनको याद करते हुए...

अटल जी भारतीय राजनीति में पांच दशकों से भी अधिक समय तक रहे हैं इनमें से अधिकतर समय उन्होंने विपक्ष में बैठ कर गुजारा और सत्ता में लगभग 8 सालों तक रहे जिसमें 6 सालों तक प्रधानमंत्री भी रहे। अटल जी की प्रतिभा को पहचान कर पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आरंभिक दिनों में ही ये कहा था की ये(अटल जी) राजनीति के शिखर तक जायेंगे। अटल जी ने राजनीति को साधन बनाकर देश की सेवा की। राजनैतिक क्षेत्र में ऐसे बहुत कम ही लोग होते हैं जो व्यवहार कुशल होने के साथ-साथ निर्विवाद भी हो। अटल जी ऐसे ही राजनेता हैं। अटल जी एक स्टेट्समैन हैं। जिनका कद उनकी पार्टी से भी बड़ा है।

      अटल जी ने भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को एक प्रमुख पार्टी बनाया जो जिसने उनके ही कार्यकाल में शून्य से शिखर तक सफ़र तय किया। इससे पहले तक कांग्रेस के अलावा विचारधारा के स्तर वामपंथी पार्टियाँ ही प्रमुख पार्टियाँ थी लेकिन संख्या की दृष्टि से वो संसद में हमेशा से ही कमजोर रही थी। अटल जी ने विपक्ष में रहते हुए हमेशा एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया। राष्ट्रहित की मुद्दों पर उन्होंने बिना किसी झिझक के अपने विरोधियों का भी साथ दिया। उनका मानना था की भले ही हम एक दूसरों के विचारों से असहमत हो लेकिन वैश्विक पटल पर हम एक है। अटल जी की इसी विशेषता के कारण चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में संयुक्त राष्ट्र में विपक्षी होते हुए भी उनको भारत का प्रतिनिधित्व के लिए भेजा गया।

      अटल जी ने भारत की विविधता को पहचाना। राज्यों को सत्ता में उचित भागीदारी कर, भारत में गठबंधन की राजनीति को सफलता पूर्वक राष्ट्रहित में चलाने के लिए भी अटल जी का योगदान अद्वितीय, अतुल्य है। यद्यपि भारत में उनसे पहले भी गठबंधन सरकारों का दौर रह चुका था, जनता सरकार भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पायी, अन्य गठबंधन बहुत सफल नहीं हुए थे, वे गठबंधन कार्यक्रम के स्तर पर न हो कर सत्ता के लिए थे। उनमें से अधिकतर सत्ता की लालसा में चुनाव बाद बने थे। लेकिन अटल जी ने एक संयुक्त कार्यक्रम के आधार पर गठबंधन बनाया और चुनाव लड़कर पूरे पांच सालों तक बिना-किसी खींच-तान के 23-24 दलों की सरकार सफलतापूर्वक चलाई। वे हमेशा समन्वय, सौहार्दपूर्ण राजनीति पर बल देते थे। उनके अनुसार "लोकतंत्र 51 बनाम 49 का खेल नहीं है यह मूल्यों, परम्पराओं, सहयोग और सहिष्णुता के आधार पर सता में भागीदारी करने का तंत्र है, फिर चाहे हम सत्तापक्ष में हो या विपक्ष में"। भारत के प्रथम सुरक्षा सलाहकार दिवगंत ब्रजेश मिश्रा के अनुसार अटल जी का कद उनके सभी सहयोगियों, उनकी पार्टी से ऊंचा था लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी के विपरीत वे सभी की सुनकर निर्णय लेते थे।
 
     राजनीति में छींटाकशी आज इस इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि अब नेताओं के पारिवारिक सदस्य और संबंध  इससे अछूते नहीं रह गए है, लेकिन अटल जी राजनीति में ने जैसे को तैसी नहीं  की बल्कि जैसी है वैसी ही सही की मान्यता पर जोर दिया। विरोधियों ने उन पर भले ही कितने आरोप लगाए हो लेकिन उन्होंने आलोचना की लक्षमण रेखा को नहीं लांघा। आजतक पर प्रभु चावला के साथ बात में गांधी-नेहरु परिवार पर कुछ न बोलने पर उन्होंने यही कहा था।

      अंतर्राष्ट्रीय संबंध अटल जी के प्रिय विषयों में से एक है। अगर विदेश नीति के संदर्भ में देखे तो इजराइल  से संबंधों की शुरुआत (विदेश मंत्री काल में), चीन के साथ संबंधों में सुधर और पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण की ओर बढ़ना उनकी प्रमुख उपलब्धि रही है।
जिस समय अटल जी प्रधानमंत्री बने उस समय घरेलू राजनीति के कारण देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि  बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती थी। अटल जी ने पारंपरिक  मित्र रूस से अच्छे संबंध जारी रखते हुए अमेरिका से भी संबंधों में गर्मजोशी लाने की शुरूआत की।
वैश्विक दबावों की चिंता ना करते हुए परमाणु परीक्षण किये और प्रथम प्रयोग  न करने की नीति  के  सिद्धांत से अन्य देशों को ये समझाने में कामयाब हुए की भारत के ये हथियार आत्मरक्षार्थ है न की दूसरों पर आक्रमण करने के लिए। उन्होंने दुनिया को भारत की भूमिका का एहसास कराया। वैश्विक पटल पर भारत की छवि को उभारने के कारण ही एक साप्ताहिक पत्रिका ने अटल जी को 60 महानतम भारतीयों में शामिल करते हुए पुनर्जागरण के पुरोधा  की संज्ञा दी है। एक अन्य पत्रिका और समाचार चैनल ने अटल जी को 10 महानतम भारतीयों की सूची में स्थान दिया है।
   
      अटल जी ने छात्र राजनीति (ये कम ही लोग जानते है कि अटल जी ने छात्र राजनीति की शुरुआत साम्यवादी SFI से की थी, छात्रसंघ अध्यक्ष भी वे SFI से ही रहे थे) के रूप में अपना राजनैतिक कैरियर शुरू किया। वे जन-नेता हैं, आम व्यक्ति उनसे अपना जुड़ाव महसूस करता है। इण्डिया टुडे पत्रिका द्वारा 2005-06 से कराये गए लगातार चार में से तीन सर्वेक्षणों जनता ने उन्हें प्रधानमंत्री की पहली पसंद बताया, अंतिम सर्वेक्षण में जब आमजन को ये एहसास हो गया की अटल जी अब सक्रीय राजनीति में नहीं लौट सकते तब भी वो दूसरे  स्थान पर ही बने रहे।
 वे जनता की नब्ज जानते थे। उन्होंने आम-जन तक अपनी बात पहुचाने के लिए हिंदी को मध्यम बनाया, उसे संयुक्त राष्ट्र के मंच से गौरवान्वित किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद दिए गए अपने पहले इंटरव्यू जनता की दूरी की बात पर उनकी आँखों में आंसू आ गये थे। आधुनिक राजनीति में नेता और जनता के बीच में जो दूरी आई है उसे देखते हुए एक जन नेता के रूप में अटल जी का योगदान उल्लेखनीय है।
 
       अटल बिहारी के भारतीय राजनीति में उनके योगदान को देखते ही उन पर किताब लिख चुके जगदीश विद्रोही और बलवीर सक्सेना ने ठीक ही लिखा है- "अगर ये सच है कि देश की सेवा करने का सौभाग्य सभी को नहीं मिलता तो, ये भी उतना ही सच है की देश को भी अटल जी जैसे सपूत भी मुश्किल से ही मिलते है।"
     बढती उम्र, गिरते स्वस्थ के कारण आज अटल जी इस स्थिति में नहीं हैं कि वो देश में व्याप्त असंतोष पर कुछ बोल सकें। उनकी अंतिम तस्वीर 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के साथ जन्मदिन के अवसर पर ही मीडिया में आई थी। दिसंबर 2011 में मैं जब उनसे मिला तो ये मुलाक़ात तो मुझे निराश हुयी ये मुलाक़ात एकतरफ़ा थी क्यों की अटल जी अब कुछ बोलने या पहचानने में असमर्थ हैं। संसद में राजनीति को नयी परिभाषा देने वाले, हम सब के प्रिय राष्ट्रपुरुष कभी हमारे प्रधानमंत्री रहे थे ऐसा सोचकर निश्चित ही मन को संतोष होता है लेकिन भारत की वर्तमान दशा को देखकर उनकी याद भी आती है।

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

विश्व शांति और वर्तमान परिदृश्य


विश्व शांति का अर्थ बहुत व्यापक है इसमें एक जीव से लेकर राष्ट्रों के मध्य सौहार्दपूर्ण, सह-अस्तित्व की कल्पना की जाती है विश्व शांति सभी देशों के बीच और उनके भीतर स्वतंत्रता, शांति और खुशी का एक आदर्श है. विश्व शांति में पूरी पृथ्वी पर अहिंसा स्थापित करने पर बल दिया जाता है, जिसके तहत देश या तो स्वेच्छा से या शासन की एक प्रणाली के जरिये इच्छा से सहयोग करते हैं, ताकि युद्ध को रोका जा सके. यद्यपि कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग सभी व्यक्तियों के बीच सभी तरह की शत्रुता की समाप्ति के लिए भी किया जाता है।     
       
            समय पर इसके प्रयास दुनिया के कई देशोँ के द्वारा किए गए जिनमेँ कुछ सफल हुए तो कुछ को असफलता हाथ लगी लेकिन विश्व शांति के उच्च आदर्श को प्राप्त न किया जा सका। विश्व शांति 20वीँ के बाद 21वीँ सदी की एक अपरिहार्य मांग बन गई है, विश्व शांति के लिए सर्वप्रथम व्यवस्थित प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के बाद देखने को मिले जब लीग आफ नेशंस की विजेता मित्र राष्ट्रों द्वारा स्थापना की गयी लेकिन दुनिया में बहुत दिनों तक शांति कायम न रह सकी क्यों की जिन 14 शिद्धान्तो के आधार पर लीग आफ नेशंस की बुनियाद राखी गयी थी उनका पालन करना किसी ने उचित नहीं समझा, अपनी घरेलू राजनैतिक कारणों से अमेरिका इससे अलग रहा और विचारधारा विद्वेष के कारण तत्कालीन सोवियत संघ को इससे जानबूझकर इससे बाहर रखा गया था। फिर दुनिया ने एक और युद्ध देखा जिसमे मानवता शर्मसार हुयी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के नेताओं ने फिर प्रयास किये और संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया। 
  
             लोकतंत्र समर्थक विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी देशोँ मेँ लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अनिवार्य मानते हैँ जिसमेँ आमजन की सहमति से ही राष्ट्रप्रमुख का चुनाव होता है। अब चूँकि आम व्यक्ति शांतप्रिय होता है तो उसके द्वारा चुनी गई सरकार भी दूसरे देशोँ से कम ही झगड़ा मोल लेगी। चीन और उत्तर कोरिया के उदाहरणोँ के द्वारा ये अपनी बात को बल देने की कोशिश करते हैँ जहां लोकतंत्र नहीँ है। लेकिन इस सिद्धान्त के सबसे समर्थक देश अमेरिका ही अपने हितोँ के लिए सभी मर्यादाओँ को ताक पर रखने से कभी नहीँ चूकता। 
            
             लेकिन फिर भी लोकतंत्र निश्चित ही विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति में अन्य शासन प्रणालियों से बेहतर है। अमेरिका मेँ उसकी नीतियोँ को दूषित करने मेँ विकृत पूँजीवाद अधिक जिम्मेदार है।
इसी पूँजीवाद को विश्वशांति के लिए खतरा मानने बाले माक्स्रवादियोँ और साम्यवादियोँ का कहना है दुनिया के दोनों बड़े युद्ध पूंजीवाद और साम्राज्वाद के गठजोड़ के कारण लड़े गए। लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की शीत युद्ध में एक पक्ष और अफगानिस्तान संकट में सोवियत संघ कोई पूंजीवादी देश नहीं था। 

              आज के सन्दर्भ में आर्थिक कारण ही विश्व शांति लिए गंभीर खतरा बने हुए है। सोवियत संघ के पतन के बाद इतिहास के अंत की बात कही गयी लेकिन जल्द ही सभ्यताओं का संघर्ष का सिद्धांत भी आ गया जिसमे मोटे तौर पर धर्म को भविष्य के संघर्ष के केंद्र में रखा गया है। तेल की राजनीति और उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता ने देशों के मध्य एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जो बड़ते बढ़ते युद्ध की स्थिति तक पहुँच गयी। फिर चाहे इराक या ईरान के बीच लड़ा गया खाड़ी का युद्ध हो या रासायनिक हथियारों के नाम पर अमेरिका द्वारा इराक पर हमला। इसी का ताज़ा उदाहरण है इजराइल का अमेरिका द्वारा उसके हर अनैतिक कामो का समर्थन। ब्रुकिंग्स इस्टीटयूसन इंटरनेशनल के एक सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तरी अफ्रीका और अरब देशो की बहुसंख्यक आबादी इजराइल से नफरत करती है लेकिन उन देशो की अमेरिकी कठपुतली सरकारें इजराइल का समर्थन करती हैं। ऐसे में अगर अहमदीजेनाद अगर इजराइल को दुनिया के नक़्शे से मिटाने की बात कहे तो कहाँ तक विश्व शांति कायम रह सकती है।

            परमाणु हथियारों की होड़ ने भी शांति के लिए गंभीर चुनौती पेश की है, एक तरफ पांचो महाशक्तियां निशस्त्रीकरण पर बल देती है वही दूसरी ओर खुद इन पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहती है। एनपीटी हो या सीटीबीटी, जब तक भेदभावपूर्ण प्रावधान नहीं हटाये जाते तब तक निश्त्रिकरण का लक्ष्य महज़ एक सपना ही बना रहेगा। इरान के परमाणु कार्यक्रम को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

             पर्यावरण की समस्या भी विश्व शांति के लिए खतरा है। इस खतरे का एहसास सबसे ज्यादा तीसरी दुनिया और समुद्र तटीय द्वीपीय देशो को है। लेकिन दुर्भाग्यवश न तो विकसित और न ही भारत जैसे विकासशील देश इस खतरे के प्रति चिंतित दिखाई दे रहे है। क्योटो प्रोटोकोल की अवधी इसी वर्ष ख़त्म हो रही है और आने वाले सालो में ऐसी किसी संन्धी की सम्भावना नहीं दिखती।

             अगर किसी देश विशेष के दृष्टिकोण से देखा जाए तो अमेरिका,  इरान, चीन और उत्तर कोरिया को विश्व के लिए खतरा मानता है, पश्चिम एशिया के देश अमेरिका और इजराइल को खतरा मानते है, चीन के लिए अमेरिका खतरा है, पूर्वी एशिया के जापान वियतनाम और दक्षिण कोरिया जैसे देशो के लिए चीन खतरा है, भारत के हिसाब से पकिस्तान खतरा है, परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ लगते है तो सभी देश आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा मानते है। अगर इनके कारणों पर गौर किया जाए तो सोवियत संघ के पतन के बाद जापान, चीन और भारत जैसी शक्तियों का उदय होना है। अब जबकि नए-नए देश वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बना रहे है तो ऐसे में अमेरिका को बुरा लगाना स्वाभाविक है। 
    धार्मिक दृष्टीकोण से इस्लामी जगत अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस विश्व अशांति के लिए जिम्मेदार ठहराते है।
 देशों के मध्य सीमा विवाद भी कभी-कभी इस शांति के लिए खतरा बन जाते है। भारत-पकिस्तान, उत्तर-दक्षिण कोरिया विवाद, इजराइल-फलस्तीन विवाद जैसे विवादों को हम इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते है।
अब प्रश्न उठता है कि फिर वो कौन सा मार्ग होगा जिससे स्थयी शांति प्राप्त की जा सके? मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा है- "विश्व में मानवता को अगर बढ़ाना है, स्थाई शान्ति लानी है तो हमें गाँधी के बताये गए रास्ते पर ही चलना होगा". गाँधी जी का चिंतन रोटी (भौतिक) शील (नैतिक) और आत्मा (आत्मिक) तीनों की सही और उचित अनिवार्यता पर बल देता है, इस प्रकार के जीवन में सत्य और अहिंसा अनिवार्य है, जहाँ हर एक जीव का सम्मान किया जाता है। गाँधी जी ने इस प्रकार के जीवन की शुरुआत बच्चों से करने की बात कही है क्यों की अंततः उन्ही के कंधो पर देश और समाज की जिम्मेदारी आनी है। इस प्रकार से अगर हम देखे तो विश्व शांति सिर्फ उत्तर कोरिया, चीन या पकिस्तान को नियंत्रित आरके कायम नहीं की जा सकती बल्कि इसके मूल में मुक्त व्यापार के नाम पर जो प्रकृति का और संसाधनों को कुछेक देश दोहन कर रहे हैं, उस पर नियंत्रण होना चाहिए।


(रोटरी क्लब की पत्रिका के दिसंबर अंक में प्रकाशित लेख)