शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

भारत में मानसून और मेरी पढ़ाई

'मानसून' शब्द भर से बारिश का एहसास होने लगता है
भूगोल की पढाई में मानसून को समझना शायद सबसे कठिन है। इसका कारण है कि मानसून से संबंधित घटनाओं के निर्धारण में एक नहीं बल्कि अनेक कारण शामिल होते हैं। जैसे मैदान, पहाड़-पठार, जंगल-वन, समुद्र से दूरी, पवनों की दिशा, अक्षांश-देशांतर की स्थिति, दिन-महीना-साल आदि इत्यादि।
फिर अगर बात भारतीय मानसून को समझने की हो तो इस जटिलता में और चार चाँद लग जाते हैं। इसमें चार-पांच सिद्धांत हैं। मेरा मानना है कि जिस तरह विदेशियों के लिए भारत की विविधता में एकता को समझाना एक चुनौती है वैसे ही भूगोल में ज़रा सी भी रूचि रखने वालों के लिए भारतीय मानसून का खाका खींचना मुश्किल है। ये बारिश के बाद बनने वाले उस इन्द्रधनुष के सामान है जिसे शुरू में तो देखने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है लेकिन एक बार जब दिमाग में पूरी छवि बन जाती है तो सातों रंग अपनी आभा बिखेरते हुए स्पष्ट नज़र आते हैं।
मेरे लिए मानसून समझना हमेशा से ही एक रोचक विषय रहा है। विभिन्न परीक्षाओं के लिए भूगोल पड़ना ही पड़ता है और जब भूगोल है तो पवने भी चलेगीं, बारिश भी होगी और मानसून भी आएगा।जाएगा।
औरों के सामान मेरे लिए भी मानसून को समझना नामुंकिन नहीं तो मुश्किल जरूर था। 3-4 बार सर खपाने के बाद भी परिणाम वाही ढाक के तीन पात वाला रहा। फिर मैंने सोचा कि क्यों न जब बारिश हो तभी इस विषय को पढ़ा जाए। मैंने ऐसा ही किया। जब भी वारिश होती, मेरी भूगोल की किताब खुल जाती। पहले जितना सर खपाना पड़ता था अब उससे कम में ही काम चल जाता और समझने में भी आसानी होने लगी।
पेड़ का पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा
 लेकिन आज पांसा पलट गया। पहले जहाँ मैं बारिश होने पर मानसून समझने की कोशिश करता तो वही आज मानसून के बारे में पड़ते हुए दिल्ली भीग रही है। इसे महज़ इत्तेफाक़ ही कहा जाएगा। अपने रूम के अन्दर बैठे हुए भी मुझे ये लिखते हुए लग रहा है कि मानो जैसे मेरे रूम के बाहर पेड़-पौधे सुबह की इस बारिश से ताज़ा हो गए हैं वैसे ही मैं भी हो गया हूँ। घनघोर काले-काले बदरवा छाए हैं। और हाँ अंत में हिंदी के प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में "विश्व स्तरीय दिल्ली वारिश के कारण जाम में फंस गई है"। न्यूज़ चेनलों को कुछ घंटों के लिए ही सही सचिन के बाद सेकेण्ड टॉप लीड वारिश की खबर मिल गई है।