रविवार, 8 दिसंबर 2013

दिल्ली सत्ता समीकरण/संभावनाएं -एक संवैधानिक अवलोकन

दिल्ली विधानसभा चुनावों में सत्ता के समीकरणों ऐसे उलझे हैं कि एक तरफ जहाँ आम आदमी भी शीर्ष पद पर पहुँचने की सोच रहा है तो वहीँ मंझे हुए राजनैतिक दल संवैधानिक प्रावधान के चलते सरकार बनाने कि जुगत में हैं।आम आदमी पार्टी की यह जीत उनके लिए "आशा का  सूर्य"(आशा की किरण नहीं कहूंगा, क्योकि वो बहुत छोटी होती है) है जो बदलाव चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं लेकिन फिसलन भरी राहों पर कुछ दूर डगमगाकर बैठ जाते हैं या 'कुछ नहीं बदलने वाला' के मन्त्र को आत्मसात कर लौट जाते हैं।

दिल्ली विधानसभा की स्थिति पर नज़र डाली जाए तो इस समय भाजपा अपने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के साथ मिलकर 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी राजनैतिक दल के रूप में उभरी है। वहीं आम आदमी के सपनो को लेकर आगे बढ़ रही आम आदमी पार्टी के पास 28 सीटें हैं, कांग्रेस 8 के साथ तीसरे पर और एक-एक सीट जनतादल यूनाइटेड और स्वतंत्र उम्मीदबार ने जीती है। 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने के लिए 36 सीटों की जरूरत है जिसके लिए भाजपा को अगर 1 स्वतंत्र उम्मीदबार का समर्थन भी मिलता है तो उसकी संख्य़ा 33 तक ही पहुँच पाएगी, जनतादल भाजपा से संबंध तोड़ चुकी है तो उसके समर्थन कि उम्मीद पार्टी को स्वयं ही नहीं होगी।

ऐसी स्थिति में दिल्ली के उपराज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अपनी स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उपराज्यपाल सदन के सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को सरकार बनाने का निमंत्रण देकर एक निश्चित समयावधि में बहुमत सिद्ध करने के लिए कह सकते हैं।
दिल्ली विधानसभा की वर्तमान सरंचना के चलते 36 का आंकड़ा नहीं छुआ जा सकता। अब यहाँ एक बार फिर कहानी दिलचस्प हो जाती है. 
संभावना एक-
 दल परिवर्तन को रोकने के लिए 1985 में संविधान में 52वां संसोधन किया गया जिसके अनुसार किसी भी राजनैतिक दल के सदस्य सत्ता के लालच में अगर सदन के सबसे बड़े दल को समर्थन देना चाहें तो उनकी संख्या अपने दल कि संख्य़ा से कम से कम एक तिहाई होनी चाहिए। लेकिन 2003 में हुए 91वें संविधान संसोधन द्वारा दल बदल के लिए जरूरी संख्या को बढाकर दो-तिहाई कर दिया गया। इसके बाद भाजपा को अगर अन्य दलों के लोगों का मत लेना है तो उसे कांग्रेस के 8 सदस्यों में से 6 को अपने पक्ष में लाना होगा। चूंकि कांग्रेस और भाजपा परंपरागत प्रतिद्वंदी हैं तो ऐसी स्थिति में ये होना मुश्किल ही लगता है। अब यहाँ एक और संभावना बनती है
संभावना दो-
किसी भी राजनैतिक दल को अपनी सरकार बनाने के लिए सदन में बहुमत सिद्ध करना होता है जो 'उपस्थित एवं मत देने' वालों का 50 फीसदी से एक अधिक होता है। इस आधार पर जब उपराज्यपाल भाजपा से सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिए कहे तो भाजपा की सरकार उस स्थिति में बन सकती है जब कांग्रेस के सभी या कम से कम 5 विधायक वॉकआउट कर जाएं, उपस्थित ही न हो या मतदान में हिस्सा न लें। ऐसी स्थिति में 'उपस्थित एवं मत देने' वालों के संख्या घट जाएगी और बहुमत के लिए जरूरी आंकड़ा भी घटकर 33 पर आ जाएगा। जिसे भाजपा और एक स्वतंत्र उम्मीदवार मिलकर पूरा कर सकते हैं।  केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव ने इसी तिकड़म के आधार पर अपनी सरकार को लगभग 5 सालों तक चलाया था क्यों कि उन्होंने कभी विपक्ष को एकजुट ही नहीं होने दिया और हर बार बहुमत सिद्ध करने के समय कोई न कोई वॉकआउट कर जाता था। लेकिन ऐसी सरकार को आने वाले समय में किसी भी क़ानून को पारित करवाने में इसी प्रक्रिया कि जरूरत होगी। 

लेकिन ये राजनीति है, यहाँ मुश्किल तो हो सकता है लेकिन असंभव नहीं।