रविवार, 1 अप्रैल 2018

मणिक सरकार को पत्र: यह हार आपकी नहीं

आदरणीय मणिक सरकार जी, अभिवादन स्वीकार कीजिए!
सबसे पहले तो हिंदी में पत्र लिखने के लिए माफ़ी चाहूंगा। चूंकि बीबीसी में काम करने वाले मेरे एक मित्र ने बताया था कि आप अंग्रेजी में संवाद को प्राथमिकता देते हैं, तो पहले सोचा था कि किसी की सहायता से इसे अंग्रेजी में करवा लूंगा। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। अंग्रेजी के चक्कर में ही यह पत्र आप तक पहुंचाने में देर भी कर दी। पुनः माफी चाहूंगा।

खैर... उम्मीद है कि पार्टी या पोलित ब्यूरो की औपचारिक बैठक में पार्टी क्यों हारी, इस पर मंथन चल रहा होगा। (मंथन शब्द के लिए फिर माफी चाहूंगा, विशुद्ध हिंदी भाषी शब्द का उपयोग कर रहा हूँ। आपसे ज्यादा बुरा यह उन पत्रकारों को लग रहा होगा, जिनकी बात मैं आगे करने वाला हूँ)। वैसे आप भी जानते हैं, कि हर पार्टी के हर नेता को अपनी हार, करारी हार के कारणों का पता होता है, लेकिन फिर भी "हम हार के कारणों की समीक्षा करेंगे, पार्टी अपनी हार के कारणों को खोजेगी..." जैसे औपचारिक बयान दिए जाते हैं, आडंबर किए जाते हैं।
सच कहूं तो मुझे आपसे सिम्पेथी है। आपकी हार पर लोग निराशा जताते हुए कह रहे हैं कि व्यक्तिगत सादगी और ईमानदार राजनीति के लिए समाज में कोई जगह नहीं है। औरों की तो छोड़िए, स्वयं सुनील देवधर जी ने भी इस बात को स्वीकारा है कि आप सादगी पसंद ईमानदार व्यक्ति हैं, लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। आपके पड़ोसी राज्य मणिपुर में, पिछले साल हुए चुनावों में जिस तरह इरोम शर्मिला जी हारी थीं, उसके बाद भी मुझे यही फीलिंग आई थी।
मैं हमेशा से पूर्वोत्तर आकर वहाँ के लोगों से मिलना चाहता हूँ, बातें करना चाहता हूँ। वहाँ की राजनीति समझना चाहता हूँ। पिछली साल जब मणिपुर में चुनाव थे, तो मैंने आनन-फानन में कार्यक्रम बनाया और टिकट लेकर तैयारियां करने लगा कि एकदम अंतिम समय में (दोपहर तीन बजे ट्रैन पकड़नी थी, और सुबह नौ बजे इरोम शर्मिला जी के दफ़्तर से कन्फर्म हुआ कि वे किसी भी कीमत पर मुझसे या किसी भी पत्रकार से नहीं मिलेंगी। अब मैं आना चाहूं तो मेरी मर्जी)
टिकट बहुत मंहगा था, सो कैंसल करना ही उचित समझा।
इस बार फिर आना चाहता था, सो चार मीडिया संस्थानों को अपने स्टोरी आईडियाज़ भेजे कि कुछ पैसों का इंतज़ाम कर दो, चला जाऊं, किसी को आईडिया स्वीकार नहीं हुआ। इसमें आपसे चर्चा करने का प्लान भी शामिल था।
यहाँ पर इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक बड़े से मीडिया संस्थान में जब मैं नौकरी के लिए गया और इंटरव्यू के दौरान उन्होंने जब मुझसे तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के बारे में पूछा तो मेरे दिमाग में त्रिपुरा-मेघालय-नागालैंड का नाम ही नहीं आया था! यहाँ, आप सोच सकते हैं कि पूर्वोत्तर की ठीक से ख़बर नहीं रखने वाले चुनाव देखने चले थे!
अब जो भी समझा जाए, सो जाए, मैंने दोनों स्थितियां सामने रख दी हैं।
बस एक बात और, फिर अपने मूल मुद्दे पर आपसे बात करूंगा... अभी कुछ दिन पहले आप दिल्ली आए थे। इससे पहले मैं आपसे मिलने की कोशिश कर पाता, पाता चला आप हरियाणा होते हुए वापस त्रिपुरा चले गए।
खैर... चलिए लौट कर आपकी सादगी पर आता हूँ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने आप को फकीर-चौकीदार कहते हैं। राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री पर सूटबूट का तंज कर, अपना फटा कुर्ता दिखाते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की सादगी के चर्चे भी यदा-कदा सुनने को मिलते हैं। और तो और दिल्ली के मुख्यमंत्री की सादगी, उनकी बड़ी-सी, ओपन हाफ शर्ट वाली सादगी को कौन भूल सकता है!
इसका मतलब है कि सैद्धांतिक रुप से सादगी और ईमानदारी भारतीय राजनीति में एक तरह से पूरक हैं, वे पर्याय हैं, सादगी अभी भी पूजी जाती है, भले हक़ीक़त में फसाने कुछ और ही सही!
लोग आपके बारे में कुछ भी कहें, मुझे आपकी सादगी पसंद है। भाजपा वालों को भी होगी। आरएसएस तो अपने स्वयंसेवकों से ऐसी ही सादगी की अपेक्षा करता है। लेकिन अब कोई विरोधी आपकी तारीफ़ नहीं करेगा। कोई यह स्वीकार नहीं करेगा कि एक राज्य में 25 सालों तक सत्ता में बने रहना, 20 सालों तक नेतृत्व देना कोई मामूली बात नहीं है। 33 सालों तक पश्चिम बंगाल में यदि वामपंथ ने शासन किया और फिर हारी तो यह कोई कुशासन, लाल-आंतक की हार या अंधकार का अंत नहीं था, जैसा तृणमूल दावा कर सकती है या भाजपा समर्थक दावा करते हैं। बल्कि इतने समय बाद सत्ता अगर बदलती है तो इसमें बहुत बड़ी भागीदारी एंटी-इनकमवैंसी की होती है। लोग ऊब जाते हैं एक तरह की सरकारों से, एक ही मुख्यमंत्री से, एक रंग से...! मैं यह खुले दिल से स्वीकार करता हूँ। लेकिन कुछ मेरे पेशे के सीनियर स्वीकार नहीं करते। उनके हिसाब से गुजरात की जीत में भी भाजपा की हार है। और यदि भाजपा सही में हार जाती तो यह साप्रदांयिकता की हार, मोदी की हार, भाजपा के कुशासन की हार... आदि-इत्यादि हार होती! लेकिन शुक्र है बच गए!
ऐसा नहीं कि वे लोग यह सब नहीं जानते। लेकिन क्या करें, 'जन-पत्रकारिता' जो कर रहे हैं, तो अपना 'एजेंडा' भी तो है!
फिर आपकी हार पर लौटता हूँ। दरअसल, यह हार ना तो आपकी है, ना राहुल गांधी की है। यह हार दिल्ली में बैठे उन पत्रकारों की है, जिन्होंने हमें बताया कि विश्व आर्थिक फोरम एक 'एनजीओ' से बढ़कर कुछ नहीं, अतः प्रधानमंत्री मोदी का वहाँ भाषण बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। यह हार उन पत्रकारों की है, जिनके लिए नोटबंदी स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बड़ा-सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला है, इसके बाद नोटबंदी का राजनीतिक असर 'नसबंदी' जैसा होना था। इसने किसानों को तबाह कर दिया। उन किसानों को, जिनके पास बमुश्किल 5-10 हज़ार की रकम नगदी के रुप होती है। यह हार उन पत्रकारों की हार है, जिनके हिसाब से 2जी में कोई घपला-घोटाला नहीं हुआ था, और मोदी-भाजपा की आलोचना करते-करते, वे इतना मग्न हुए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उन्होंने कब कांग्रेस की लाइन लेकर कांग्रेस के प्रवक्ता बन बैठे। यह हार दिल्ली और देश के उन तमान विश्वविद्यालयों में बैठे न्यू-बोर्न लीडर्स की है, जो 50 फीसदी से कम वोट मिलने पर भाजपा की जीत को जीत मानने से इंकार कर देते हैं। यह उन पत्रकारों की हार है, जो गुजरात मॉडल का हर छः महीनों में पोस्टमार्टम करते हैं लेकिन यह नहीं बताते है कि आपके राज्य में अभी भी सांतवा वेतन आयोग लागू नहीं किया गया है और ना ही यह बताते हैं कि कैसे पार्टी कैडर ने एक समांतर तंत्र स्थापित कर लिया है। इस चुप्पी में वे यह भी नहीं बता पाए कि त्रिपुरा राज्य मानव विकास के मामले में देश के अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करता है। बुराई ऊपर ना आए, इस चक्कर में आपकी अच्छाई भी छिप गई!
आप सोच रहे होंगे कि इन जन-पत्रकारों की पहुंच इतनी है क्या जो क्रिया की प्रतिक्रिया हो जाए? नहीं उनकी पहुँच बहुत सीमित वर्ग तक है। पढ़े-लिखे तबके तक। इंटरनेट तो लगभग अब ठीक-ठाक हाथों में पहुंच गया है लेकिन फिर भी इन जन-पत्रकारों की पहुंच सिर्फ शहरों तक है। पहले ये लोग अंग्रेजी में एक-तरफा ज्ञान देते थे, नीति-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लेकिन जब तख़्त और ताज बदले, तो भाषाएं भी बदल गईं। अब इनमें से कई लोगों ने अपनी रणनीति में परिवर्तन कर हिंदी को अपनाया है और सीधे आम-लोगों की भाषा में बात कर लोगों तक सरकार की सिर्फ और सिर्फ बुराईयों को पहुंचा रहे हैं। लेकिन फिर भी इनकी पहुँच एक निश्चित घेरे से बाहर नहीं निकलती। फिर कैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है? दरअसल जब ये लोग हर मसले पर मोदी या भाजपा को घेरते हैं, तो उनके कुछेक चुनिंदा बयानों को उठाकर, उनके विरोधी और भाजपा के समर्थक, उनको मैग्निफाई करते हैं, वायरल करवाते हैं और इस तरह हवा बनाते हैं। फिर होती है क्रिया की कई गुणा ज्यादा और तेज़ प्रतिक्रिया! न्यूटन का नियम बस टुकुर-टुकुर तांकता रह जाता है।
अब देखिए ना, सत्ता के नशे में पागल हुए लोगों ने लेनिन की मूर्ति क्या गिराई, इन लोगों ने तालिबान, भगवान बुद्ध और भगत सिंह को बीच बहस में ला खड़ा किया। ऐसे में लोग मूर्ति गिराने को तो भूल जाएंगें, इनको प्रतिक्रिया देने लगेंगे। अभी सोशल-मीडिया में प्रतिक्रिया दे रहे हैं, कल के दिन EVM में प्रतिक्रिया देंगे। अब यह बात अलग है कि जन-पत्रकारों में कोई या उच्चतम न्यायालय में वक़ील कभी-कभी इस EVM को ब्लूटूथ से जोड़कर इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिह्न लगाना नहीं भूलते। इसी 'बौद्धिकता' ने (कथित) कम्युनिस्ट-आंदोलन को किनारे लगाया है।
इनकी बहस का एक पक्ष और देखिए... आप हारे हैं तो ये यह सिद्ध करने में लगे हैं कि आपको तो 45फीसदी वोट मिले हैं जबकि भाजपा को अकेले 43फीसदी हैं तो इस तरह भाजपा अपोज़िशन को कंसोलिडेट करके चुनाव जीती है, शेष कुछ नहीं! कितना अच्छा गणित हैं! इसमें कुछ भी बुरा नहीं। रत्तीभर भी नहीं। लेकिन गौर कीजिए क्या यह बिहार में नहीं हुआ था? क्या यह दिल्ली में नहीं हुआ था? क्या यही उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस करने की कोशिश नहीं कर रही हैं? ये खुद चाहते हैं कि यूपी में सपा-बसपा-कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़ें, मोदी या भाजपा के भ्रष्टाचार की एक-एक ख़बर सुनने को बेताब रहने वाले ये जन-पत्रकार चाहते हैं कि लालू यादव को भ्रष्टाचार के मामले में भले दो-सौ सालों की सजा हो जाए लेकिन लालू सामाजिक न्याय लाने वाले अंततः 'जन-नेता' हैं। अतः कांग्रेस और राजद को एक होकर बिहार में चुनाव लड़ना चाहिए। लेकिन... यही तो इनकी विशेषता है, इनका नरैटिव देने का तरीका है। यूपी में हालिया उप-चुनावों में इन्हें जो ख़ुशी मिली है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता!
तो यह हार... आपकी नहीं है। लेकिन क्या किया जाए... अब तो नियति लिखी जा चुकी है। हार भले ही आपकी ना हो, लेकिन आलोचना आपको ही सहन करनी पड़ेगी। अब वे लोग भी आपको बुरा-भला कहेंगे  जिनको नहीं पता कि त्रिपुरा राज्य है या किसी शहर का नाम है! या वे जिनको नहीं पता कि उसकी राजधानी क्या है! और तो और वे भी आलोचना करेंगे जिनको नहीं पता कि सात-आठ बहन-भाइयों नाम से विख्यात इन राज्यों में कौन-कौन शामिल है।
संभव है, कि मेरा यह ऑबजर्वेशन बहुत ही सतही या अतिवादी लगे, जो मैं आपकी हार और भाजपा की जीत के लिए दिल्ली में बैठे पत्रकारों को जिम्मेदार ठहराऊं। लेकिन इतना सौ-फीसदी सही है कि जो आलोचना होगी, जो गालियां (मैं व्यक्तिगत रुप से गालियां नहीं देता ना उनका समर्थन करता हूँ। लेकिन बौद्धिकों को पढ़ते-पढ़ते गालियों को भी फ्रीडम ऑफ स्पीच कैटेगरी में रखने लगा हूँ। मैं उन लोगों से कतई इत्तेफाक़ नहीं रखता जो फिल्मों में सामाज का आइना कहकर गालियों को जायज ठहराते हैं, लेकिन जब हक़ीक़त में यह आइना जब उन्हीं की ओर हो जाता है, तो उसके प्रतिबिंब को असहिष्णुता कह देते हैं) पड़ेगीं, उसके लिए यह लोग जिम्मेदार होगें। अपनी इस बात के समर्थन में, मैं एक लेखिका और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की बात रखूंगा जिनके शब्दों में "नरेंद्र मोदी को दिल्ली के कुछ पत्रकार (नाम लेने से बचूंगा, वह एकदम व्यक्तिगत हो जाएगा, उम्मीद है आप समझते होंगे) हारने नहीं देंगे। ये पत्रकार जितना अधिक और जितने अंधविरोध में मोदी की आलोचना करेंगे, मोदी का काम उतना ही आसान हो जाएगा"
बस इतनी सी बात है। इसीलिए कह रहा हूँ कि यह हार आपकी हार नहीं।
यह पत्र लिखते-लिखते पता चला कि रुसी क्रांति की सौवीं वर्षगांठ पर त्रिपुरा की सरकारी इमारतों को 'लाल' बल्बों की झालर से सजाया गया था? इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है। अपने विचारधाराई पूर्वजों को याद करने में बुराई नहीं है। लेकिन यहाँ एक बात बताना चाहूता हूँ। अभी कुछ दिन पहले रुस होकर आया हूँ। रुसी-क्रांति की सौंवी वर्षगांठ पर... वहाँ साम्यवादी आंदोलन का बहुत बुरा हाल हो चुका है। मुझे पता है आपको हक़ीक़त पता होगी, आपका वहाँ के कम्युनिस्ट नेताओं से संपर्क भी होगा। लेकिन कैसे कहूं और क्या कहूं... दिल्ली में लोग अभी भी सोचते हैं कि यहाँ भी एक दिन कोई लेनिन आएगा और एकाएक सब कुछ 'लाल' हो जाएगा! तो उन लोंगों के लिए एक संदेश आपको माध्यम से भेजना चाहूंगा। उन लोगों से कहिए कि गढ़ ढह रहे हैं, रंगों के त्योहार में बहुरंग उड़ चले हैं। हर जगह लाल ही लाल अच्छा नहीं लगेगा। शायद इसीलिए त्रिपुरा की जनता ने रंग बदल दिया है।
फिर भी आने-वाले अगस्त-सितंबर में छात्रसंघ के चुनाव होंगे, आप लाल रंग की सरकार बनाकर कहिएगा... फासीवाद मुर्दाबाद, क्रांति जिंदाबाद!
जब भी फुर्सत मिले, अपने पार्क में बैठकर, चाय पीते हुए, क्या खोया, क्या पाया की सोच के साथ यह पत्र पढ़ने की कोशिश कीजिए। भाषा की परेशानी हो तो किसी की मदद ली जा सकती है। अगली बार के लिए वादा है कि भाषा की समस्या नहीं आने दूंगा।
............. सलाम पहुंचे आपको, और ये शब्द भी! उम्मीद है, जल्द आपसे पेंडिंग मुलाक़ात होगी!
भाषा और पत्र में हुई देरी के लिए माफ़ी।
और कोई भूल-चूक हो, तो माफ़ करेंगे, ऐसी अपेक्षा है।
आज के शब्द यही खत्म हुए!
विदा!