मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

उत्तरप्रदेश के सरकारी स्कूलों में हो बॉयोमैट्रिक ‘प्लस’ अटैंडडेंस सिस्टम

संवेदनशील नेतृत्व के साथ अधिकारों की भी जरूरत


 उत्तरप्रदेश के परिषदीय स्कूलों (आम बोलचाल में सरकारी स्कूल) में इन दिनों ऑनलाइन/इलेक्ट्रॉनिक उपस्थिति (अटैंडडेंस) की पहल शुरू हुई है. इसके लिए विद्यालयों में टैबलेट भी आने शुरू हो गए हैं. बताया जा रहा है कि इन लैबलेट्स पर विद्यार्थियों के अलावा शिक्षकों की भी रियलटाइम आधार पर उपस्थिति लगेगी. प्रदेश के 7 जनपदों में ये पहल नवंबर से पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू हुई. इन 7 जनपदों में लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, रायबरेली, उन्नाव व श्रावस्ती को शामिल किया गया था. बाद में 1 दिसंबर से ये व्यवस्था प्रदेश के सभी जनपदों में शुरू कर दी गई है. इसकी कोशिशें पिछले कई सालों से चल रही थी लेकिन प्रदेश में शिक्षकों की संख्या और उनकी राजनैतिक शक्ति के सामने इच्छा शक्ति की कमी से अभी तक इसे लागू नहीं किया जा सका था. इस मामले में यूपी के निवर्तमान शिक्षा महानिदेशक विजय किरण आनंद अब अपने प्रयास सफल होते दिख रहे हैं (कुछ दिन पहले ही उनका विभाग बदल दिया गया है). कुल मिलाकर ये अच्छी कोशिश है, भले ही इसे देर से लागू किया जा रहा हो. हालांकि जैसा अंदेशा था, शिक्षक इसका विरोध कर रहे हैं. उनके इस विरोध को भी हम देखेंगे लेकिन उससे पहले किसी भी काम के लिए समय के महत्व पर थोड़ी/हल्की की चर्चा कर लेते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर; पंचायत का सबसे बड़ा विद्यालय, चुनावों का समय था

विद्यालयों में विद्यार्थियों से ज्यादा शिक्षकों का समय से आना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनसे ही बच्चे देर-सवेर आना शुरू कर देते हैं और फिर एक कुचक्र चल पड़ता है. एक ग्राम प्रधान (अन्य प्रदेशों में सरपंच या मुखिया कहते हैं) के रूप में हमने पाया है कि शिक्षकों का देर से विद्यालय आना और जल्दी चले जाना बहुत सामान्य और स्वीकार्य हो गया है (कॉमन और एक्सेप्टेड). इसके सामाजिक कारण हैं. इस बुराई के बारे में कोई कहने या सुनने वाला नहीं है. मसलन, हमारी पंचायत में कुल तीन विद्यालय हैं. इन सब में अभी रजिस्टर में अध्यापक समय और हस्ताक्षर करके अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं (मैन्युअल अटैंडडेंस), जो कतई विश्वसनीय नहीं होती. पंचायत के तीन विद्यालयों में से एक विद्यालय कम से कम 6-7 सालों से बंद चल रहा है, तो एक अन्य विद्यालय में महिला शिक्षिका कभी समय से नहीं आतीं. वे विद्यालय की प्रधानाचार्या भी हैं. कई बार उन्हें मौखिक चेतावनी दी गई लेकिन उनके आचरण में कोई परिवर्तन नहीं आया है. इस तरह उनकी देरी का परिणाम बच्चों को भुगतना पड़ता है. गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए नियमित और पूरे समय शिक्षिकों की उपस्थिति पहली शर्त है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी विद्यालयों में यही कहानी हो. पंचायत के सबसे बड़े विद्याल में व्यवस्था बेहतर चल रही है. ऐसा यहां शिक्षकों की खुद की निष्ठा और ग्राम-प्रधान के रूप में हमारे द्वारा नियमित देखभाल से संभव हो पाया है. लेकिन सभी विद्यालयों में नियमित देखभाल संभव नहीं हो सकती है. यहीं से इस समस्या के समाधान का विचार पनपा है, जो एक विकल्प के रूप में रखा जा रहा है.
देखा गया है कि राज्य सरकार के अन्य विभागों में ऑनलाइन
/इलेक्ट्रॉनिक अटैंडडेंस (सेल्फी इमेज या वीडियो) की व्यवस्था शुरू हुई लेकिन ठीक से काम नहीं कर सकी और कर्मचारियों ने इसका कोई न कोई तोड़ निकाल लिया था. जैसे फिंगरस्कैनर के मामले में पहली बार डेटा फीडिंग (प्री-डेटा फीडिंग) में अगर विकल्प के तौर पर तीन उंगलियां स्कैन होनी थी तो दो अपनी उंगलियां स्कैन कराई गईं और तीसरी में किसी अन्य सहकर्मी की उंगली स्कैन करा दी गई, ठीक यही दूसरे कर्मचारी के साथ किया गया. दूसरा, सेल्फी इमेज तस्वीर वाली व्यवस्थाओं के भी तोड़ निकाल लिए गए हैं. दूसरा अगर सेल्फी की व्यवस्था की गई तो फोटो से फोटो अथवा वीडियो से वीडियो लेकर इसका तोड़ भी निकाल लिया गया.
इनके असफल रहने का एक कारण अटैंडडेस की ये व्यवस्थाएं किसी थर्डपार्टी या विभाग के अपने बनाए गए सिस्टम से जुड़ी थीं, जिसमें कर्मचारी का बस उतना ही डेटा लिया जाता था, जितना विभाग के पास है और उनका सुपरविज़न में स्थानीयता को ध्यान में नहीं रखा जाता.
इस मामले में केंद्र सरकार (नई दिल्ली) के दफ्तरों में लगी बॉयोमैट्रिक-अटैंडडेंस की व्यवस्था एक बेहतरीन
/उल्लेखनीय उदाहरण है. यहां के सिस्टम में आधार का डेटा विभाग के डेटा के साथ मिलता है और अंतिम उपस्थिति की पूरी व्यवस्था काम करती है. मोटे तौर पर अभी तक ये व्यवस्था लीक प्रूफ रही है. इस अटैंडडेंस के डेटा से ही माहीने के अंत में किसी कर्मचारी का वेतन तय किया जा सकता है. जैसे सप्ताह में उसने कुल कितने घंटे काम किया, उसने कुल कितनी छुट्टियां ली और अपने पूरे सेवाकाल में कुल कितने समय दफ्तर में कम काम किया.
पूरी जानकारी एक क्लिक में जानकारी हासिल की जा सकती है कि किसी दफ्तर में कोई कर्मचारी कितने घंटे रहा या नहीं. दफ्तरों में कर्मचारियों की मौजूदगी पब्लिक इंफॉर्मेशन है, इसे निजता से जोड़कर खारिज़ नहीं किया जा सकता है. इस व्यवस्था में संबंधित विभाग के अधिकारियों को एडमिन-पॉवर देकर उन्हें अधिनस्थों पर निगाह करने में मदद मिलती है.
यही व्यवस्था परिषदीय स्कूलों में लागू किए जाने की जरूरत है. जहां ऑनलाइन
/इलेक्ट्रॉनिक अटैंडडेंस की जगह बॉयोमैट्रिक अटैंडडेंस लगे. इसमें फिंगर-स्कैनिंग के साथ फेस स्कैनिंग/रिक्गनिशन और जरूरत पड़ने पर रेटिना स्कैनिंग भी हो. इसके लिए सिर्फ डिवाइसेज़ की जरूरत पड़ेगी या यही काम टैबलेट्स से भी किया जा सकता है और चूंकि ये UIDAI और NIC के डेटा सेंटर से सिंक्रोनाइज़ (Syncronize) होंगे तो अलग या पहले से कोई अतिरिक्त डेटा फीड करने (प्री-डेटा फीडिंग) की जरूरत नहीं होगी. न डेटा की डुप्लीकेसी होगी और न ही एक कर्मचारी के आने पर उसका सहकर्मी अपनी उंगली स्कैन करवाकर अटैंडडेंस लगा सकेगा.
लेकिन सिर्फ मशीनीकरण या तकनीकीकरण ही सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर सकता. इसके लिए मानवीय पहलू को शामिल करना भी जरूरी है. इस मानवीय पहलू पर हम बाद में आएंगे, पहले संक्षिप्त रूप से शिक्षकों का पक्ष जान लेते हैं.

शिक्षकों का विरोध
इन परिषदीय स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के संगठन ने इसका विरोध सिम कार्ड
/नेटवर्क की उपलब्धता, सिम कार्ड अपने व्यक्तिगत दस्तावेज़ों पर न लेने, किसी कारणवश एक दिन में दूसरी बार अटेंडेंस न लगने की स्थिति (किसी विशेष/आपात स्थिति) में पूरे दिन की अनुपस्थिति लगना जैसे मसलों के कारण विरोध जताया है.
दरअसल, ये विरोध ऐसा नहीं है जिसके आधार पर प्रस्तावित व्यवस्था को रोक दिया जाए. क्योंकि सिम और इसके रिचार्ज के लिए फंड की व्यवस्था के लिए स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं. रही बात नेटवर्क की उपलब्धता की तो अब भारत के अधिकतर इलाकों में अब ये कोई समस्या नहीं है. फिर उत्तरप्रदेश जैसे मैदानी प्रदेश में तो ये समस्या और भी कम है. ये कारण इसलिए भी सतही कहा जाएगा क्योंकि ठीक इसी तरह का कारण 2023 की शरुआत में ग्राम प्रधानों ने मनरेगा में लगने वाली ऑनलाइन हाज़िरी को लेकर बताया था, लेकिन ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कोई विचार करना भी उचित नहीं समझा. ग्रामीण इलाकों में नेटवर्क का कारण वहां भी एक बहाना था, यहां भी एक बहाना ही है. ऐसे में अब सिर्फ यहां दो आधार तार्किक जान पड़ते हैं एक, निजता बनाए रखने के लिए शिक्षा-विभाग को इलाके में सर्वश्रेष्ठ नेटवर्क उपलब्धता के आधार पर सिम खरीदना चाहिए और दूसरा, किसी विशेष
/आपात स्थिति में एक समय उपस्थिति से बचने की व्यवस्था होनी चाहिए. ये मांगें ठीक जान पड़ती है और विभाग को इसका समाधान भी करना चाहिए. लेकिन ये कोई इतनी बड़ी मांगें भी नहीं है कि ये खारिज़ करने का आधार ही बन जाएं.
कुछ शिक्षकों की तरफ से एक अन्य तर्क बारहमासी सड़कों के अभाव में सुदूर ग्रामीण इलाकों में स्थित विद्यालयों में समय से न पहुंचने को लेकर दिया जा रहा है. तो किसी भी सार्वजनिक सेवा में समय से न पहुंच पाने को एक नियम या एस्क्यूज़ नहीं बनाया जा सकता, शिक्षा में तो ये कतई संभव ही नहीं है. अगर आप किसी विभाग के कर्मचारी हैं तो समय से पहुंचना आपकी ड्यूटी है, देरी के कोई स्वीकार्य नहीं हो सकते.

ग्रामीण इलाकों के विद्लायलों में ग्राम प्रधानों की सुपर-विज़न की भूमिका; संवेदनशीलता+अधिकार
अब फिर से उसी बिंदू पर आते हैं कि सिर्फ मशीनीकरण या तकनीकीकरण किसी समस्या का समाधान नहीं है और कैसे इसमें मानवीय या स्थानीय पहलू जोड़ा जा सकता है. यूं तो आधार आधारित बॉयोमैट्रिक अटैंडडेंस अभी तक, इसका कोई तोड़ या बाईपास न निकलने के लिहाज़ से लीक प्रूफ ही रही है. लेकिन फिर भी विद्यालों के मामले में, इसमें सुपर-विज़न के तौर पर ग्राम प्रधान को शामिल किया जा सकता है, जो हफ्ते या माहवार आधार पर अपनी पंचायत में पड़ने वाले परिषदीय विद्यालों में शिक्षकों की अटैंडडेंस को चेक करने से आगे जाकर उसे तकनीकि रूप से ही पुष्ट (इलेक्ट्रॉनिकली बैरीफाई
/चेक) कर सके. (नगरीय इलाकों में नगरीय निकाय के जनप्रतिनिधियों को ये अधिकार दिए जा सकते हैं) उसके वैरिफिकेशन के बाद ही संबंधित विभाग वेतन की कार्यवाही को आगे बढ़ाए. ये कुछ-कुछ अटैंडडेंस में ग्राम प्रधानों को एडमिन-पॉवर देने जैसा है. इसीलिए इसे बॉयोमैट्रिक प्लस नाम दिया जा रहा है. ऐसा नहीं कि ये मांग या सुझाव बिना किसी आधार के दिए जा रहे हैं. 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायतों के सशक्तिकरण के लिए जो 29 विषय तय किए गए हैं, उसमें प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा भी शामिल है. इसमें आज की स्थिति में सिर्फ एक शिक्षा समिति बना दी जाती है लेकिन कोई कार्य तो छोड़िए गठन के बाद उसे कोई जानता भी नहीं है. जैसे-तैसे हमने अपनी पंचायत में पहली साल में शिक्षा समिति की बैठक बुलाई तो सबके लिए आश्चर्य की बात थी. समिति ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (NEP-2020) को पंचायत के एक विद्यालय में लागू करने के संबंध में कुछ सिफारिशें कीं लेकिन उन सिफारिशों का अंततः बहुत ज्यादा ठोस ढंग से लागू नहीं किया जा सका क्योंकि इस संबंध में ग्राम-पंचायतों/प्रधानों को ठीक से अधिकार नहीं दिए गए हैं. पंचायत में होने वाली अन्य गतिविधियों अथवा कार्यों (संविधान में पंचायतों को दिए गए इसके अलावा अन्य 28 विषय) के लिए ग्राम प्रधान अगर सुपर-विज़न की भूमिका में हैं तो कोई कारण नहीं है कि शिक्षा-व्यवस्था में उन्हें इस भूमिका और अधिकारों से वंचित रखा जाए. आखिर एक जनप्रतिनिधि अगर सुपरवाइज़ नहीं करेगा तो फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसके होने के मायने क्या रहेंगे? और लोकतंत्र, जिसमें उत्तरदायित्य एक अभिन्न पहलू है, वह गायब होता चला जाता है.
अटैंडडेंस सुपरविज़न से ग्राम प्रधान अपनी पंचायतों के विद्यालयों में भी रूचि लेंगे जो दुर्भाग्य से अभी तक नहीं लेते हैं. (अभी सिर्फ मिड डे मील में ग्राम प्रधानों को आधे वित्तीय अधिकार हासिल हैं, जिससे
MDM के मामले में उनका सुपरविज़न हो जाता है).
वहीं दूसरी ओर हर हफ्ते या महीने में ग्राम प्रधानों का सुपर विज़न शिक्षिकों पर भी नियमित समय विद्याय आने-जाने के साथ उनपर एक नैतिक दवाब बनाएगा कि वे विद्यालय को लेकर थोड़े गंभीर हों क्योंकि अंततः इसकी पूरी संभावना है कि गांव का जनप्रतिनिधि, औरों की अपेक्षा गांव के संसाधनहीन और गरीब बच्चों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा. इसलिए संभावना है कि अटैंड़डेंस के बहाने सुपरविज़न की ये व्यवस्था शैक्षिणिक गुणवत्ता को भी प्रभावित करने वाली हो सकती है. अटैंडडेंस में ग्राम प्रधानों के सुपरविज़न का ये प्रयोग अगर सफल होता है तो इसे अन्य परीक्षणों जैसे प्रदेश में चल रहे निपुण कार्यक्रमों में भी शामिल किया जा सकता है. इन सुझावों को पढ़ते हुए किसी के मन में ये विचार घर सकता है कि सुपरविज़न की ये व्यवस्था एक मध्यस्त बढ़ने के साथ भ्रष्टाचार बढ़ाने वाली हो सकती है क्योंकि
MDM में ग्राम प्रधानों को जो आधे वित्तीय अधिकार मिले हैं, उसमें भी ग्राम प्रधान कमीशन की अपेक्षा रखते हैं, बल्कि कुछ तो इसे अधिकार स्वरूप मांगने से भी नहीं हिचकते. तो यहां गौर करने वाली बात है कि बेहद दुर्भाग्य से इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि MDM में भी कुछ प्रधान ऐसा करते हैं लेकिन उससे कहीं ज्यादा संख्या में ग्राम प्रधान ऐसे हैं जो इन्हीं अधिकारों के बहाने MDM खाने की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करवा पाते हैं.

केंद्रीयकरण से बेहतर विकेंद्रीकरण के परिणाम

ये दुर्भाग्य है कि पिछले कुछ सालों में उ.प्र. शिक्षा विभाग, खासतौर पर बेसिक शिक्षा में केंद्रीयकरण बहुत ज्यादा बढ़ा है. इसमें जिला स्तर पर महत्वपूर्ण शक्तियां अब बहुत कम दी गई हैं या लगभग हटा दी गईं हैं, ऐसे में सब कुछ निदेशालय से ही सुपरविज़न-नियंत्रण-एक्शन होता है. इस प्रयोग ने अच्छे परिणाम नहीं दिए हैं और इस कारण किसी जनपद में तैनात शिक्षकों के मन में कर्तव्य-पलायन न करने अथवा अकर्मण्यता की स्थिति में कोई कार्रवाई होने का डर कम हुआ है. ऐसे में जरूरत है कि केंद्रीयकरण की इस प्रवृति पर ब्रेक लगाकर, ग्राम-पंचायत को शामिल करते हुए विकेंद्रीकरण का ये मॉडल अपनाया जाए. कम से कम इसे पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर कुछ ही जिलों में लागू करके देखा जाता सकता है. लोकतंत्र की प्रक्रिया हमेशा से विकेंद्रीकरण की वक़ालत करती है और इससे बेहतर परिणाम भी बेहतर होने के ही उदाहरण ज्यादा मिले हैं. शिक्षा के मामले में ऐसा इसलिए हो सकता है कि अंततः गांव के प्रतिनिधि सोच पाते हैं कि ये गांव उनका ही अपना है और ये बच्चे भी उनके अपने ग्रामीण परिवार के ही हैं. व्यस्थाएं बेहतर करने के लिए यही संवेदनशीलता सबसे पहले जरूरी होती है और जब संवेदशीनलता कुछ अधिकारों के साथ मिलेगी तो चीजें निश्चित तौर पर ठीक ही होंगी.

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

इतिहास ने कहा, 'तब भारत सो रहा था'

सत्ता और साम्राज्य के लिए एक राजा दूसरे राजा को तीसरे या चौथे राजा से युद्ध होने की स्थिति में धोखा देते आए हैं। यह सिर्फ भारतीय इतिहास का 'एक्सक्लुसिव' लक्षण नहीं है। शत्रु का शत्रु आपका मित्र होता है, यह सिद्धांत इसी की उपज है या इसके उल्टा भी... जो भी मान लिया जाए।
लेकिन यह कहानी राजा-रानियों की नहीं है। यह प्रजा की है, जो अब 'भाग्य-विधाता' बन चुकी है।
ठंड के मामले में 1990 की सर्दियां भी कुछ अलग नहीं रही होंगी। हमारे गाँव में तब भी दरवाजे पर अलाव पर देश-समाज-राजनीति पर चर्चा होती रही होगी। ऐसे कितने ही अलाव उत्तर भारत के कितने की गाँवों में जलते रहे होंगे... तब क्या चर्चा चलती होगी उन लोगों के बीच? वीपी सिंह वास्तव में राजा नहीं फकीर हैं... अब राजीव गांधी क्या बोफोर्स में जेल जाएंगे? या जनता दल का पहिया की कितनी दूरी तय कर पाएगा...?
इन सब पर चर्चा होती होगी लेकिन इतना पक्का है कि एक विषय पर चर्चा नहीं हुई थी, वह था कश्मीर और वहाँ से भगाए जाने वाले कश्मीरी पंडित...
सत्ता पाने के लिए राजा एक-दूसरे को धोखा देते आए थे, एक-दूसरे की पीठ में छुरा भोंकतें आए हैं लेकिन जनवरी 1990 में जो कुछ हुआ उसमें 'पड़ोसी के घर आग लगने पर हमें नींद आ गई' का सिद्धांत लागू हुआ। 19 जनवरी 1990 की उस रात को जम्मू के राज भवन में सभी फोन पूरी रात घनघनाते रहे, जगमोहन साहब जितना सुन सकते थे, फोन सुने। जम्मू से श्रीनगर में जितने आदेश दे सकते थे, दिए। दिल्ली में गृह मंत्रालय में भी उस रात फोन लगतार बजते रहे... सब के सब श्रीनगर और कश्मीर के अन्य इलाकों से आ रहे थे। फोन पर लोग तो अलग-२ होते थे लेकिन सब की गुहार एक होती थी, उनके शब्द एक जैसे थे... उनके वे शब्द खून और आंसुओं में लथपथ होते थे।
इसके अलावा शेष भारत में कहीं किसी को कोई कोई ख़बर नहीं थी कि कश्मीर में क्या चल रहा है? संविधान की उद्देशिका में भी जुड़ा सेक्युलर शब्द यूं तो 232 इतना पुराना नहीं हुआ था जो तब की मीडिया या नेताओं की जुबान पर 'परफेक्ट' रूप से चढ़ गया हो। हाँ, यह अलग बात है कि दो-तीन साल बाद वह संविधान की 'मूल आत्मा' जैसा जरूर बन गया था।
पहले भी कहा है, फिर दोहराना हो जाए कि 80-90 करोड़ की आबादी में 1000-1500 मार दिए जाएं या 3-4 लाख लोगों को उनके घरों से निकाल दिया जाए तो किसे फर्क़ पड़ता है? अब इन भारत भूषण धर की कहानी ही देख लीजिए... 50 साल के हो चुके हैं। एक किडनी के सहारे चल रहे हैं। 4 सदस्यों वाले इसके  परिवार को 'मुफ़्त' में 12-13 हज़ार हर महीने मिलते हैं। इसके अलावा कुछ राशन भी मिल जाता है। यह सब उन्हें 1990 से ही मिल रहा है। श्रीनगर से 70 किमी दूर उनका गाँव में घर था, खेत थे, बाग थे। अपना कमाते-अपना खाते थे। लेकिन देश के सेक्युलर फेब्रिक में सतरंगी रंगों को धुंधला करके एक रंग को चटख किया गया और भारत जम्मू के कैंप में आ गए। एक साल बाद इसी कैंप में उनकी शादी हुई... कितनी और कहानी बताई जाए...? जब वे अपनी कहानी सुना रहे थे तो उनकी पत्नी रोने में लगी। हम कुछ नहीं कहने की स्थिति में नहीं थे, करना तो दूर की बात है... थोड़ी देर बाद बोलते-२ भारत भूषण जी का गला भी भर आया... अब क्या किया जाए.? तो उन्होंने 5-6 बार सिर्फ एक ही वाक्य दोहराया... "हमें अब नहीं जीना है, देश अपने नागरिकों को भूल चुका है। हमारे साथ क्या बीती, भारत के लोगों को कुछ नहीं पता। हमें आधी रात को घरों से भगाया गया। अब हमें नहीं जीना है, भगवान हमारा अंत कर दे। हम दुनिया से ऊब चुके हैं।"
5-6 बार यही बात दोहराए जा रहे थे।
अब मैं यह भी बता दूं कि वे कितने साल कैंप में रहे, कितने साल एक कमरे वाले फाइबर सेड में और अब चार लोगों की ज़िंदगी एक कमरे वाले 'शरणार्थियों वाले' घरों में बीत रही है तो क्या कुछ फर्क़ पड़ जाएगा?
यह सही कि पंडित समुदाय आपनी शिक्षा के बल पर उस त्रासदी से उबर गया है और दुनिया के अलग-२ हिस्सों में बिखरा है। लेकिन इसका मतलब कि उनके जनसंहार को भूल जाएं? उन 1000-1500 मौतों के लिए एक भी व्यक्ति को दोषी न ठहराया जा सका। डेढ़-दो साल पहले SC भी कह चुका है 'इतने पुराने मामले' की जांच अब नहीं हो सकती।
भारत भूषण जब बार-२ मरने की बात कर रहे थे तो मेरे मन में एक ही सवाल आ रहा था... उन दिनों शेष भारत क्या कर रहा था जो कश्मीर से निकली चीखें सुनाई नहीं दीं? विज्ञान तो कहता है कि ठंडे मौसम में ध्वनि (आवाज़) दूर तक जाती है?
तभी इतिहास ने धीरे से कान में कहा... बेटा, तब तुम और भारत सो रहे थे। बहुत गहरी नींद में।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

क्रिकेट से कश्मीर को समझिए

तीन दशक पहले, दो पत्रकार, दोनों कश्मीरी, दो मैच, दो कहानियां, एक सवाल



#कहानी_एक- जम्मू-कश्मीर राज्य में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का पहला मैच श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम में खेला गया था। साल 1983 का था, महीना अक्टूबर का और तारीख़ 13 थी। इसी साल भारत अपना पहला क्रिकेट विश्वकप जीत चुका था। श्रीनगर में होने वाला क्रिकेट मैच भी भारत और वेस्टइंडीज के बीच था। मेरा दोस्त रवि किसी तरह दो टिकट ले आया, हम समय से बहुत पहले ही स्टेडियम पहुंच गए। हम लोगों ने अपनी सीटें खोजी और बैठ गई। इन सीटों को हाल ही में हरे रंग से पोता गया था। मैदान में दोनों कप्तान आए, टॉस हुआ। टॉस वेस्टइंडीज ने जीता, और पहले गेंदबाजी करने का फैसला किया। कुछ क्षण बाद जैसे ही ओपनिंग के लिए सुनील गावास्कर और के. श्रीकांत आए, मैं जश्न में चिल्लाया।
और फिर कहानी शुरु हुई।
हम (मैं और रवि) शिगूफ़े में थे, जल्द ही यह टूट गया। पूरा स्टेडियम पाकिस्तान ज़िंदाबाद के शोर में सराबोर था। पाकिस्तान और जमात-ए-इस्लामी के हरे झंडों से स्टेडियम पटा था। स्टेडियम में तमाम लोग पाकिस्तानी क्रिकेटरों के पोस्टर भी लहरा रहे थे। इस सबसे के बीच भारतीय क्रिकेटरों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो चुकी थी, उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि करना क्या है। (Rabbits cought in headlights)
अपनी पारी की सोलहवीं गेंद पर सुनील गवास्कार अपना कैच दे बैठे। भारत की पूरी पारी 41 ओवरों में 176 रनों पर सिमिट गई। फिर जब फील्डिंग की बारी आई तो भारतीय क्रिकेटरों को मैदान पर छींटाकशी (शोषण) का सामना करना पड़ा। दिलीप वेंकसरकर पर किसी ने आधा खाया हुआ सेब फेंका, जो उनकी पीठ पर जाकर लगा।
भारत मैच हार गया था।
कई वर्षों बाद जब मैं बतौर पत्रकार एक पार्टी में कीर्ति आज़ाद से मिला और उस मैच की यादें ताज़ा करने की कोशिश की, तो उन्होंने याद करते हुए कहा "मानो हम पाकिस्तान में पाकिस्तान के ही खिलाफ़ खेल रहे थे"
मैं और रवि एक-दूसरे से बिना कुछ बोले, चुपचाप अपने घर की ओर बढ़े। मेरा मन बहलाने के लिए रवि ने मुझे कोल्डड्रिंक पिलाई।
अगले दिन मैंने रहमान से बचने की कोशिश की। लेकिन मुझे पता था कि मैं बच नहीं पाउंगा। रहमान हमारा दूधिया था। अगले दिन सुबह-सुबह वह दरवाजे पर आया, आवाज़ लगाई। अधिकतर मैं ही दरवाजे पर आता था, और अक्सर मेरी उससे क्रिकेट और पाकिस्तान को लेकर तकरार होती थी। हालांकि यह सब मजाकिया होता था लेकिन कभी-कभी मैं इसे बहुत सीरियसली ले लेता था।
लेकिन उस दिन मैं दरवाजे के पीछे छिप गया। मेरी माँ दूध लेने गईं। रहमान ने उनसे पूछा... वह (मैं) कहा हैं?
ऐसा लगा मानो उसे एहसास हो गया था कि मैं दरवाजे के पीछे छिपा हूँ। उसने जोर से कहा... पाकिस्तान ज़िंदाबाद!
माँ मुस्कराई...
रहमान ने माँ से कहा... अपने बच्चे से कहना कि पाकिस्तानी गेंदबाजों के सामने गवास्कर मेमना है।
अब मुझसे रहा नहीं गया। हालांकि मैं गावास्कर का फैन नहीं था लेकिन मुझे लगा कि उन्हें डिफेंड करना चाहिए।
आंखों में आंसू लिए मैंने कहा- श्रीकांत के सामने तु्म्हारे सारे पाकिस्तानी हीरो डरते हैं।
ओह... तो तुम यहाँ छिपे थे! तुम दाल खाने वाले इंडियंस कभी पाकिस्तान का मुक़ाबला नहीं कर सकते!
माँ ने बीच में टोकते हुए रहमान से कहा... क्यों बचपना दिखा रहे हो?
रहमान ने मेरी तरफ मुस्कराकर जवाब दिया- यह युद्ध है बहनाई!
(साभार; Our Moon Has Blood Clots, राहुल पंडिता) 
#कहानी_दो- साल 1986 की बात है। संयुक्त अरब अमीरात में क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में भारत-पाकिस्तान की भिड़ंत हो रही थी। मैच वाले दिन, जिस बस से मैं स्कूल जाता था, उसमें माहौल एकदम उद्वेलित (Charged) था। आदमी, औरतें और बच्चे, कुछ खड़े थे, कुछ सीटों पर बैठे थे, सब के सब बस में रेडियो सेटों के आसपास अपने कान लगाए थे और मैच की कमेंटरी का हर-एक शब्द बड़े गौर से सुन रहे थे। भारत द्वारा दिए गए मुश्किल लक्ष्य का पाकिस्तान पीछा कर रहा था, और स्कोर पाने के लिए बची गेंदों की संख्या बहुत तेज़ी से घटती जा रही थी। मैं ड्राइवर सीट के ठीक पीछे खड़ा था। एक तरफ ड्राइवर अपने पैर से जोर से एक्सीलेटर दबाए जा रहा था, तो वहीं बीच-बीच में स्टीयरिंग को छोड़कर अपने हाथ को बार-बार डैशबोर्ड पर लगे रेडियो के वॉल्यूम पर ले जा रहा था। मैच का क्लाइमैक्स देखने की सबको जल्दी थी, इसीलिए हर कोई जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहता था। जब-जब जावेद मिंयादाद गेंद मिस करते, बस में सन्नाटा पसर जाता और जैसे ही किसी गेंद को हिट करने के बाद रन लेते, पूरी बस जश्न में डूब जाती।
मेरे घर के पास वाले बाज़ार में बस का स्टॉप था, बस रुकती है, मैच की कमेंटरी सुनने के लिए घर के पास में अबु कसाई की दुकान और मेडिकल स्टोर पर भीड़ इकठ्ठी है। मैच समाप्ति की ओर है। बूढ़े अबु मन ही मन कुछ बुदबुदा रहे हैं। मैं दौड़ लगाते हुए घर में अपना बस्ता फेंकता हूँ। डायनिंग हॉल में दादा, चाची और मेरी माँ रेडियो को घेरे हुई बैठी हैं। दादी नमाज पढ़ने वाली चटाई पर मक्का की ओर बैठकर पाकिस्तान की जीत के लिए दुआएं मांग रही हैं। बाहर अबु कसाई अपने होंठ चबाए जा रहे हैं। रेडियो पर कमेंटेटर की आवाज़ आती है- इस मैच को जीतने के लिए पाकिस्तान को एक गेंद में तीन रन चाहिए। जावेद मिंयादाद के लिए स्टेडियम छोर से चेतन शर्मा गेंदबाजी कर रहे हैं। मैं बाहर की ओर भागता हूँ। भीड़ बहुत बुरी तरह चिंतित है, खामोशी छाई है। अबु अपने हाथों को ढीला छोड़ते हुए कहते हैं "अब कोई चांस नहीं, कोई चांस नहीं" फिर वे अपने रोडियो को उठाकर सड़क पर फेंक देते हैं। सड़क पर रे़डियो के अस्थि-पंजर बिखर जाते हैं। अब हम मेडिकल स्टोर वाले आमीन के रेडियो सेट को घेर कर खड़े हो जाते हैं। चेतन शर्मा मैच की निर्णायक गेंद फेंकने के लिए तैयार हैं। कमेंटेटर बता रहा है मिंयादाद पूरे मैदान का मुआयना कर रहे हैं कि उन्हें गेंद कहाँ पहुंचानी है। गेंद का सामना करने से पहले मिंयादाद ने पश्चिम दिशा में मक्का की ओर बैठकर प्रार्थना की, फिर वे उठे और अब सामना करने के लिए तैयार हैं। चेतन शर्मा ने दौड़ना शुरु किया, मिंयादाद के चेहरे पर दवाब दिख रहा है। स्टेडियम में सन्नाटा है। शर्मा ने गेंद फेंकी, फुलटॉस गेंद... मिंयादाद ने बल्ला घुमाया... रेडियो पर मैच सुन रहे लोग थोड़ा पीछे हटे और इंतज़ार... आमीन ने इसी बीच अपनी शर्ट की बाहें कोहनी के ऊपर खींची... अबु अभी भी अपने होंठ चबाए जा रहे हैं। मैं अपनी बाएं हथेली में दाहिने हाथ से मुक्का मारता हूँ। कमेंटेटर की आवाज़ आती है... इट्स अ सिक्स! पाकिस्तान ने मैच जीत लिया है। उन्होंने जीत के लिए निर्धारित रनों से तीन रन ज्यादा बनाए।
लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं, उछलते हैं, नाचते हैं, और फिर पटाखों की आवाज़ों के बीच चिल्लाते हैं।
इससे पहले वाले पैरा में लेखक ने लिखा है... भारत और पाकिस्तान के हर क्रिकेट मैच को हम देखते थे। हमने कभी भारत के लिए जश्न नहीं मनाया। अगर मैच भारत-पाकिस्तान के बीच होता, तो हम पाकिस्तान का समर्थन करते। अगर भारत-वेस्ट इंडीज के खिलाफ हो तो हम वेस्ट इंडीज का समर्थन करते, इंग्लैंड के खिलाफ हो तो इंग्लैंड का समर्थन।
(साभार; The Cerfewed Nights, बशारत पीर)
राहुल पंडिता और बशारत पीर, दोनों ही पत्रकार हैं। दोनों कश्मीर से हैं।
आप सोच रहे होंगे कि यह इतनी लंबी कहानी किस लिए? जावेद मियांदाद वाली दूसरे कहानी तो सबको पता है।
हाँ, यह सबको पता है। जो इस दौर में होश संभाल चुके थे, और जो तब थे भी नहीं, उन्हें भी उस रोमांचक मैच की यह कहानी पता है।
अब एक बार समय पर गौर कीजिए। ये साल 1883 और 1986 की बातें हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद के कश्मीर के इतिहास में नज़र डालें तो हम पाएंगे कि 1947 से लेकर 1987 तक कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता थी। (यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं) माहौल में परिवर्तन आया 1987 में हुए विधानसभा चुनावों के साथ। इन्हें वाटरशेड मूमेंट की संज्ञा दी गई है। कहा जाता है कि इन चुनावों में तत्कालीन संघ सरकार ने जमकर धांधली कराई और चुनाव परिणाम फारुख़ अब्दुल्ला (नेशनल कॉन्फेंस) के पक्ष में मोड़े गए। हम यहाँ बिना लाग-लपेट के कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि 1987 के विधानसभा चुनावों में सरकारी मशीनरी द्वारा धांधली की गई थी, जिस कारण चीज़ें बिगड़ी और फिर इतनी बिगड़ती चली गईं जो सेना लगानी पड़ी और फिर सैन्य शासन के बाद लोग भारत से आज़ादी मांगने लगे।
अब यहाँ यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि सेना का कथित अत्याचार से कश्मीर भारत से दूर जा रहा है तो 1987 के पहले कौन से कारक थे, जो वहाँ की अवाम में इस हद तक नफ़रत भरी थी भारत के खिलाफ़?
शाह फैसल ने भारत की सबसे बड़ी और सबके कठिन परीक्षा पास की है, वे जो भी कहेंगे, उस पर सवाल उठाना किसी के लिए आसान नहीं है। इसीलिए हम उनके ऑबज़रवेशन को यहीं छोड़ते हैं।
स्वयं से, और उन लोगों से प्रश्न पूछते हैं जो कश्मीर समस्या को मज़हबी आंदोलन ना मानकर इसे महज़ राजनीतिक मसला मानते हैं और अलगाववादियों से बातचीत से पक्षधर हैं कि, भारत के प्रति कश्मीरियों में यह नफ़रत क्या मज़हब के कारण नहीं है? अगर मज़हब इस पूरी समस्या के कोर  में नहीं तो पाकिस्तान से मिलने की ऐसी कोई सी दूसरी वजह दिखाई देती है? अगर इस समस्या की जड़े जिहादी ज़मीन में धंसी हैं तो क्या हम फिर से यह लड़ाई हारेंगे? जब सवाल ही कठिन हैं तो हल तो कठिन होगा ही।
ध्यान रखिए, यह सवाल हम 1983-1986 में जाकर कर रहे हैं।

(नोट: उपर्युक्त दोनों किताबें अंग्रेजी में हैं। भावानुवाद करने की कोशिश की गई है। संभव है कि कुछ गलतियां हों लेकिन मोटे तौर पर कहानियां यही हैं)

शुक्रवार, 18 मई 2018

अटल जी: जब वे लड़ाईयां हारे लेकिन युद्ध जीतते गए

मुझे उन लोगों से नफ़रत है जिन्हें राजनीति से नफ़रत है। वह पीढ़ी जो, नाक को थोड़ा ऊपर उठाकर कहती है आई हेट पॉलिटिक्स! ऐसा कहने वालों के लिए यह मानो स्वर्णिम काल है। और हो भी क्यों ना, राजनीति ने उन्हें मौका दिया है। जो अपनी बात में तर्क करते हुए कहते हैं कि देखो, यह सब जो हो रहा है इसीलिए मैं नफ़रत करता हूँ। राजनीति से, जो जॉर्ज बर्नाड शॉ को कोट करते हैं, जिनके लिए राजनीति धूर्तों का अंतिम व्यवसाय/लक्ष्य होता है।
वर्तमान राजनीति को देखकर एक डर लगता है। बहुत ज्यादा निराशा होती है। 'आज से कल अच्छा होगा', यह सोचते-सोचते आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है।
कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, क्या वह सब ठीक है? सत्ता पाने के लिए कुछ भी करना, कुछ भी करना जस्टीफाई  किया जा सकता है? प्रश्न को दिमाग में रखिए, उत्तर पर बाद में आएंगे, पहले कर्नाटक का रुख़ करते हैं।
राज्यपाल ने किसे मौका दिया, किसे देना चाहिए था, और राज्यों में क्या हुआ था, कब किस राष्ट्रपति-राज्यपाल ने क्या गलत किया था, क्या ठीक किया था, दोनों पक्षों ने अपने-2 तर्क़ों से (सोशल) मीडिया को पाट दिया है। आज जो अनैतिक है, बीते हुए कल में उसके उलट अनैतिक था। संविधान, परंपराएं, इतिहास, व्यवहारिक उदाहरण... इनकी भूल-भुलैया में आप इस बहस के अंत तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। चूंकि कांग्रेस ने ज्यादा समय तक देश पर शासन किया तो स्वाभाविक है कि उसके बुरे उदाहरण कुछ ज्यादा ही मिलेंगे। यह ठीक वैसा ही है जैसे इस समय देश के अधिकतर हिस्सों में भाजपा की सरकारें हैं तो उसके शासित राज्यों में होने वाली एक-एक घटनाएं भी बहुत जान पड़ती हैं।

लेकिन इन सबके बीच एक-दो उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जो वर्तमान भाजपा को सबक देने वाले और कांग्रेस का वह चेहरा याद दिलाने वाले हो सकते हैं जिसे छिपाकर आज वह लोकतंत्र में नैतिकता-सुचिता का ढोल पीटकर आम-जनमानस की सहानुभूति लेने की कोशिश कर रही है।
ज्यादा पीछे मत जाइए। बात 1996 से शुरु करते हैं।
देश में 'कांग्रेसी' राष्ट्रपति थे (वे भले कांग्रेसी ना हों लेकिन किसी भी लिहाज़ से भाजपाई या संघ से तो कतई नहीं थे) लोकसभा के चुनावों में किसी को भी दल को बहुमत नहीं था लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाकर चुनावों में उतरी भारतीय जनता पार्टी को 161 सीटें मिलीं, जो थीं तो सबसे ज्यादा लेकिन बहुमत से बहुत कम थीं। राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ने अपने 'विवेक से परिपाटी' को आगे बढ़ाते हुए अटल जी को शपथ दिलाई और फिर 31 मई तक सदन में अपना विश्वास मत सिद्ध करने के लिए निर्देशित किया।
इंदिरा जी के समय से ही समर्पण की हर मांग अस्वीकार कर, पल-पल करेंगे प्रतिकार करने  वाले वाजपेयी जी ने इस निर्धारित समय सीमा से पांच दिन पहले यानि 26 मई को ही सदन में विश्वास मत मांगा और जो कुछ बोला वह लोकसभा की बहसों में स्वर्णिम अक्षरों से दर्ज़ हुआ। उन्हें घोड़ों के व्यापार वाली राजनीति पसंद नहीं थी। क्योंकि उन्हें भी श्रीराम की भांति मृत्यु के भय से लोक-लाज का भय ज्यादा बड़ा लगता था।
अगले दिन यानि निर्धारित समय सीमा से चार दिन पहले ही अटल जी ने राष्ट्रपति महोदय को त्याग पत्र सौंप दिया।
इस घटना पर ही इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में टिप्पणी की थी कि भले ही वे (अटल जी) यह लड़ाई हार गए हों लेकिन वे युद्ध जीतने जा रहे हैं।
और ऐसा हुआ भी... दो सालों की उठा-पटक के बाद नए चुनावों में अटल जी और सशक्त होकर उभरे। लेकिन कुटिल राजनीति अपना रंग दिखाने से कहाँ बाज़ आती है?
13 महीनों की सरकार के बाद यदि मौके आएं तो विपक्ष का 'अधिकार' है कि वह सरकार गिराने के प्रयत्न करे लेकिन जिस एक ओड़ीशा के मुख्यमंत्री, जो उस समय तक संसद सदस्य भी थे, के वोट से अटल जी की सरकार गिराई गई, उसके बाद कांग्रेस के पास यह कहने का कोई आधार नहीं रह जाता कि राजनीति में सौ-फीसदी नैतिकता ना सही लेकिन कुछ तो होनी चाहिए। जब आपने अपनी बेशर्मी से अटल जी जैसे नेता को नहीं बख़्शा तो कौन माने कि कर्नाटक में वर्तमान भाजपा नेतृत्व कोई कसर छोड़ेगा? आज आप अटल-आडवाणी की भाजपा की दुहाई दे रहे हैं, जिसे आपने अपने निम्मतम साध्यों से गिरा दिया था? मेरे लिए 'अनैतिकता' का यही बेंचमार्क है।
याद रखिए कि एक वोट से हारने के बाद अटल जी इतने निराश हुए कि चेहरे से टपकते हुए आंसुओं के बीच उनके शब्द थे कि हम सिर्फ एक वोट से हार गए, सिर्फ एक वोट से! वे रोए थे, भारत रात्न अटल बिहारी वाजपेयी को कांग्रेस ने आंसू दिए थे।
इसके बाद फिर से भारतीय जनता ने उनके हाथ और मज़बूत किए, नए सहयोगी साथ आए और फिर जो हुआ वह इतिहास है।
यह दोनों घटनाएं जहाँ भाजपा को धैर्य धरने की सीख देती हैं, वहीं कांग्रेस की राजनीति में नैतिकता की मांग को आईना दिखाती हैं।
और हाँ, जैसा उन्होंने किया, वैसा ही हम करेंगे, तो यह कभी ख़त्म ना होने वाली प्रक्रिया है। आप इन लड़ाईंयों को छोड़कर युद्धों की तैयारी कीजिए... यही वाजपेयी जी ने किया था। यह लड़ाई आप जीत भी गए तो विपक्ष और तेज़ी से आपके खिलाफ़ एकजुट होगा जो आने वाले युद्ध को आपके लिए और कठिन ही बनाएगा। फिर मर्ज़ी आपकी, फैसला आपका!
अंत में हम जैसे लोग, जो इस राजनीति रुपी सूरज  से व्यथित हैं, उनके लिए अटल जी की यह कविता थोड़ा ढांढस बांधती है। सुनिए और आने वाले कल के लिए फिर से दीया जलाइए... क्योंकि हमें नहीं हारना है, किसी भी कीमत पर नहीं!

रविवार, 1 अप्रैल 2018

मणिक सरकार को पत्र: यह हार आपकी नहीं

आदरणीय मणिक सरकार जी, अभिवादन स्वीकार कीजिए!
सबसे पहले तो हिंदी में पत्र लिखने के लिए माफ़ी चाहूंगा। चूंकि बीबीसी में काम करने वाले मेरे एक मित्र ने बताया था कि आप अंग्रेजी में संवाद को प्राथमिकता देते हैं, तो पहले सोचा था कि किसी की सहायता से इसे अंग्रेजी में करवा लूंगा। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। अंग्रेजी के चक्कर में ही यह पत्र आप तक पहुंचाने में देर भी कर दी। पुनः माफी चाहूंगा।

खैर... उम्मीद है कि पार्टी या पोलित ब्यूरो की औपचारिक बैठक में पार्टी क्यों हारी, इस पर मंथन चल रहा होगा। (मंथन शब्द के लिए फिर माफी चाहूंगा, विशुद्ध हिंदी भाषी शब्द का उपयोग कर रहा हूँ। आपसे ज्यादा बुरा यह उन पत्रकारों को लग रहा होगा, जिनकी बात मैं आगे करने वाला हूँ)। वैसे आप भी जानते हैं, कि हर पार्टी के हर नेता को अपनी हार, करारी हार के कारणों का पता होता है, लेकिन फिर भी "हम हार के कारणों की समीक्षा करेंगे, पार्टी अपनी हार के कारणों को खोजेगी..." जैसे औपचारिक बयान दिए जाते हैं, आडंबर किए जाते हैं।
सच कहूं तो मुझे आपसे सिम्पेथी है। आपकी हार पर लोग निराशा जताते हुए कह रहे हैं कि व्यक्तिगत सादगी और ईमानदार राजनीति के लिए समाज में कोई जगह नहीं है। औरों की तो छोड़िए, स्वयं सुनील देवधर जी ने भी इस बात को स्वीकारा है कि आप सादगी पसंद ईमानदार व्यक्ति हैं, लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। आपके पड़ोसी राज्य मणिपुर में, पिछले साल हुए चुनावों में जिस तरह इरोम शर्मिला जी हारी थीं, उसके बाद भी मुझे यही फीलिंग आई थी।
मैं हमेशा से पूर्वोत्तर आकर वहाँ के लोगों से मिलना चाहता हूँ, बातें करना चाहता हूँ। वहाँ की राजनीति समझना चाहता हूँ। पिछली साल जब मणिपुर में चुनाव थे, तो मैंने आनन-फानन में कार्यक्रम बनाया और टिकट लेकर तैयारियां करने लगा कि एकदम अंतिम समय में (दोपहर तीन बजे ट्रैन पकड़नी थी, और सुबह नौ बजे इरोम शर्मिला जी के दफ़्तर से कन्फर्म हुआ कि वे किसी भी कीमत पर मुझसे या किसी भी पत्रकार से नहीं मिलेंगी। अब मैं आना चाहूं तो मेरी मर्जी)
टिकट बहुत मंहगा था, सो कैंसल करना ही उचित समझा।
इस बार फिर आना चाहता था, सो चार मीडिया संस्थानों को अपने स्टोरी आईडियाज़ भेजे कि कुछ पैसों का इंतज़ाम कर दो, चला जाऊं, किसी को आईडिया स्वीकार नहीं हुआ। इसमें आपसे चर्चा करने का प्लान भी शामिल था।
यहाँ पर इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक बड़े से मीडिया संस्थान में जब मैं नौकरी के लिए गया और इंटरव्यू के दौरान उन्होंने जब मुझसे तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के बारे में पूछा तो मेरे दिमाग में त्रिपुरा-मेघालय-नागालैंड का नाम ही नहीं आया था! यहाँ, आप सोच सकते हैं कि पूर्वोत्तर की ठीक से ख़बर नहीं रखने वाले चुनाव देखने चले थे!
अब जो भी समझा जाए, सो जाए, मैंने दोनों स्थितियां सामने रख दी हैं।
बस एक बात और, फिर अपने मूल मुद्दे पर आपसे बात करूंगा... अभी कुछ दिन पहले आप दिल्ली आए थे। इससे पहले मैं आपसे मिलने की कोशिश कर पाता, पाता चला आप हरियाणा होते हुए वापस त्रिपुरा चले गए।
खैर... चलिए लौट कर आपकी सादगी पर आता हूँ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने आप को फकीर-चौकीदार कहते हैं। राहुल गांधी भी प्रधानमंत्री पर सूटबूट का तंज कर, अपना फटा कुर्ता दिखाते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की सादगी के चर्चे भी यदा-कदा सुनने को मिलते हैं। और तो और दिल्ली के मुख्यमंत्री की सादगी, उनकी बड़ी-सी, ओपन हाफ शर्ट वाली सादगी को कौन भूल सकता है!
इसका मतलब है कि सैद्धांतिक रुप से सादगी और ईमानदारी भारतीय राजनीति में एक तरह से पूरक हैं, वे पर्याय हैं, सादगी अभी भी पूजी जाती है, भले हक़ीक़त में फसाने कुछ और ही सही!
लोग आपके बारे में कुछ भी कहें, मुझे आपकी सादगी पसंद है। भाजपा वालों को भी होगी। आरएसएस तो अपने स्वयंसेवकों से ऐसी ही सादगी की अपेक्षा करता है। लेकिन अब कोई विरोधी आपकी तारीफ़ नहीं करेगा। कोई यह स्वीकार नहीं करेगा कि एक राज्य में 25 सालों तक सत्ता में बने रहना, 20 सालों तक नेतृत्व देना कोई मामूली बात नहीं है। 33 सालों तक पश्चिम बंगाल में यदि वामपंथ ने शासन किया और फिर हारी तो यह कोई कुशासन, लाल-आंतक की हार या अंधकार का अंत नहीं था, जैसा तृणमूल दावा कर सकती है या भाजपा समर्थक दावा करते हैं। बल्कि इतने समय बाद सत्ता अगर बदलती है तो इसमें बहुत बड़ी भागीदारी एंटी-इनकमवैंसी की होती है। लोग ऊब जाते हैं एक तरह की सरकारों से, एक ही मुख्यमंत्री से, एक रंग से...! मैं यह खुले दिल से स्वीकार करता हूँ। लेकिन कुछ मेरे पेशे के सीनियर स्वीकार नहीं करते। उनके हिसाब से गुजरात की जीत में भी भाजपा की हार है। और यदि भाजपा सही में हार जाती तो यह साप्रदांयिकता की हार, मोदी की हार, भाजपा के कुशासन की हार... आदि-इत्यादि हार होती! लेकिन शुक्र है बच गए!
ऐसा नहीं कि वे लोग यह सब नहीं जानते। लेकिन क्या करें, 'जन-पत्रकारिता' जो कर रहे हैं, तो अपना 'एजेंडा' भी तो है!
फिर आपकी हार पर लौटता हूँ। दरअसल, यह हार ना तो आपकी है, ना राहुल गांधी की है। यह हार दिल्ली में बैठे उन पत्रकारों की है, जिन्होंने हमें बताया कि विश्व आर्थिक फोरम एक 'एनजीओ' से बढ़कर कुछ नहीं, अतः प्रधानमंत्री मोदी का वहाँ भाषण बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। यह हार उन पत्रकारों की है, जिनके लिए नोटबंदी स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बड़ा-सबसे बड़ा आर्थिक घोटाला है, इसके बाद नोटबंदी का राजनीतिक असर 'नसबंदी' जैसा होना था। इसने किसानों को तबाह कर दिया। उन किसानों को, जिनके पास बमुश्किल 5-10 हज़ार की रकम नगदी के रुप होती है। यह हार उन पत्रकारों की हार है, जिनके हिसाब से 2जी में कोई घपला-घोटाला नहीं हुआ था, और मोदी-भाजपा की आलोचना करते-करते, वे इतना मग्न हुए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उन्होंने कब कांग्रेस की लाइन लेकर कांग्रेस के प्रवक्ता बन बैठे। यह हार दिल्ली और देश के उन तमान विश्वविद्यालयों में बैठे न्यू-बोर्न लीडर्स की है, जो 50 फीसदी से कम वोट मिलने पर भाजपा की जीत को जीत मानने से इंकार कर देते हैं। यह उन पत्रकारों की हार है, जो गुजरात मॉडल का हर छः महीनों में पोस्टमार्टम करते हैं लेकिन यह नहीं बताते है कि आपके राज्य में अभी भी सांतवा वेतन आयोग लागू नहीं किया गया है और ना ही यह बताते हैं कि कैसे पार्टी कैडर ने एक समांतर तंत्र स्थापित कर लिया है। इस चुप्पी में वे यह भी नहीं बता पाए कि त्रिपुरा राज्य मानव विकास के मामले में देश के अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करता है। बुराई ऊपर ना आए, इस चक्कर में आपकी अच्छाई भी छिप गई!
आप सोच रहे होंगे कि इन जन-पत्रकारों की पहुंच इतनी है क्या जो क्रिया की प्रतिक्रिया हो जाए? नहीं उनकी पहुँच बहुत सीमित वर्ग तक है। पढ़े-लिखे तबके तक। इंटरनेट तो लगभग अब ठीक-ठाक हाथों में पहुंच गया है लेकिन फिर भी इन जन-पत्रकारों की पहुंच सिर्फ शहरों तक है। पहले ये लोग अंग्रेजी में एक-तरफा ज्ञान देते थे, नीति-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लेकिन जब तख़्त और ताज बदले, तो भाषाएं भी बदल गईं। अब इनमें से कई लोगों ने अपनी रणनीति में परिवर्तन कर हिंदी को अपनाया है और सीधे आम-लोगों की भाषा में बात कर लोगों तक सरकार की सिर्फ और सिर्फ बुराईयों को पहुंचा रहे हैं। लेकिन फिर भी इनकी पहुँच एक निश्चित घेरे से बाहर नहीं निकलती। फिर कैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है? दरअसल जब ये लोग हर मसले पर मोदी या भाजपा को घेरते हैं, तो उनके कुछेक चुनिंदा बयानों को उठाकर, उनके विरोधी और भाजपा के समर्थक, उनको मैग्निफाई करते हैं, वायरल करवाते हैं और इस तरह हवा बनाते हैं। फिर होती है क्रिया की कई गुणा ज्यादा और तेज़ प्रतिक्रिया! न्यूटन का नियम बस टुकुर-टुकुर तांकता रह जाता है।
अब देखिए ना, सत्ता के नशे में पागल हुए लोगों ने लेनिन की मूर्ति क्या गिराई, इन लोगों ने तालिबान, भगवान बुद्ध और भगत सिंह को बीच बहस में ला खड़ा किया। ऐसे में लोग मूर्ति गिराने को तो भूल जाएंगें, इनको प्रतिक्रिया देने लगेंगे। अभी सोशल-मीडिया में प्रतिक्रिया दे रहे हैं, कल के दिन EVM में प्रतिक्रिया देंगे। अब यह बात अलग है कि जन-पत्रकारों में कोई या उच्चतम न्यायालय में वक़ील कभी-कभी इस EVM को ब्लूटूथ से जोड़कर इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न-चिह्न लगाना नहीं भूलते। इसी 'बौद्धिकता' ने (कथित) कम्युनिस्ट-आंदोलन को किनारे लगाया है।
इनकी बहस का एक पक्ष और देखिए... आप हारे हैं तो ये यह सिद्ध करने में लगे हैं कि आपको तो 45फीसदी वोट मिले हैं जबकि भाजपा को अकेले 43फीसदी हैं तो इस तरह भाजपा अपोज़िशन को कंसोलिडेट करके चुनाव जीती है, शेष कुछ नहीं! कितना अच्छा गणित हैं! इसमें कुछ भी बुरा नहीं। रत्तीभर भी नहीं। लेकिन गौर कीजिए क्या यह बिहार में नहीं हुआ था? क्या यह दिल्ली में नहीं हुआ था? क्या यही उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस करने की कोशिश नहीं कर रही हैं? ये खुद चाहते हैं कि यूपी में सपा-बसपा-कांग्रेस एक साथ चुनाव लड़ें, मोदी या भाजपा के भ्रष्टाचार की एक-एक ख़बर सुनने को बेताब रहने वाले ये जन-पत्रकार चाहते हैं कि लालू यादव को भ्रष्टाचार के मामले में भले दो-सौ सालों की सजा हो जाए लेकिन लालू सामाजिक न्याय लाने वाले अंततः 'जन-नेता' हैं। अतः कांग्रेस और राजद को एक होकर बिहार में चुनाव लड़ना चाहिए। लेकिन... यही तो इनकी विशेषता है, इनका नरैटिव देने का तरीका है। यूपी में हालिया उप-चुनावों में इन्हें जो ख़ुशी मिली है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता!
तो यह हार... आपकी नहीं है। लेकिन क्या किया जाए... अब तो नियति लिखी जा चुकी है। हार भले ही आपकी ना हो, लेकिन आलोचना आपको ही सहन करनी पड़ेगी। अब वे लोग भी आपको बुरा-भला कहेंगे  जिनको नहीं पता कि त्रिपुरा राज्य है या किसी शहर का नाम है! या वे जिनको नहीं पता कि उसकी राजधानी क्या है! और तो और वे भी आलोचना करेंगे जिनको नहीं पता कि सात-आठ बहन-भाइयों नाम से विख्यात इन राज्यों में कौन-कौन शामिल है।
संभव है, कि मेरा यह ऑबजर्वेशन बहुत ही सतही या अतिवादी लगे, जो मैं आपकी हार और भाजपा की जीत के लिए दिल्ली में बैठे पत्रकारों को जिम्मेदार ठहराऊं। लेकिन इतना सौ-फीसदी सही है कि जो आलोचना होगी, जो गालियां (मैं व्यक्तिगत रुप से गालियां नहीं देता ना उनका समर्थन करता हूँ। लेकिन बौद्धिकों को पढ़ते-पढ़ते गालियों को भी फ्रीडम ऑफ स्पीच कैटेगरी में रखने लगा हूँ। मैं उन लोगों से कतई इत्तेफाक़ नहीं रखता जो फिल्मों में सामाज का आइना कहकर गालियों को जायज ठहराते हैं, लेकिन जब हक़ीक़त में यह आइना जब उन्हीं की ओर हो जाता है, तो उसके प्रतिबिंब को असहिष्णुता कह देते हैं) पड़ेगीं, उसके लिए यह लोग जिम्मेदार होगें। अपनी इस बात के समर्थन में, मैं एक लेखिका और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर की बात रखूंगा जिनके शब्दों में "नरेंद्र मोदी को दिल्ली के कुछ पत्रकार (नाम लेने से बचूंगा, वह एकदम व्यक्तिगत हो जाएगा, उम्मीद है आप समझते होंगे) हारने नहीं देंगे। ये पत्रकार जितना अधिक और जितने अंधविरोध में मोदी की आलोचना करेंगे, मोदी का काम उतना ही आसान हो जाएगा"
बस इतनी सी बात है। इसीलिए कह रहा हूँ कि यह हार आपकी हार नहीं।
यह पत्र लिखते-लिखते पता चला कि रुसी क्रांति की सौवीं वर्षगांठ पर त्रिपुरा की सरकारी इमारतों को 'लाल' बल्बों की झालर से सजाया गया था? इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है। अपने विचारधाराई पूर्वजों को याद करने में बुराई नहीं है। लेकिन यहाँ एक बात बताना चाहूता हूँ। अभी कुछ दिन पहले रुस होकर आया हूँ। रुसी-क्रांति की सौंवी वर्षगांठ पर... वहाँ साम्यवादी आंदोलन का बहुत बुरा हाल हो चुका है। मुझे पता है आपको हक़ीक़त पता होगी, आपका वहाँ के कम्युनिस्ट नेताओं से संपर्क भी होगा। लेकिन कैसे कहूं और क्या कहूं... दिल्ली में लोग अभी भी सोचते हैं कि यहाँ भी एक दिन कोई लेनिन आएगा और एकाएक सब कुछ 'लाल' हो जाएगा! तो उन लोंगों के लिए एक संदेश आपको माध्यम से भेजना चाहूंगा। उन लोगों से कहिए कि गढ़ ढह रहे हैं, रंगों के त्योहार में बहुरंग उड़ चले हैं। हर जगह लाल ही लाल अच्छा नहीं लगेगा। शायद इसीलिए त्रिपुरा की जनता ने रंग बदल दिया है।
फिर भी आने-वाले अगस्त-सितंबर में छात्रसंघ के चुनाव होंगे, आप लाल रंग की सरकार बनाकर कहिएगा... फासीवाद मुर्दाबाद, क्रांति जिंदाबाद!
जब भी फुर्सत मिले, अपने पार्क में बैठकर, चाय पीते हुए, क्या खोया, क्या पाया की सोच के साथ यह पत्र पढ़ने की कोशिश कीजिए। भाषा की परेशानी हो तो किसी की मदद ली जा सकती है। अगली बार के लिए वादा है कि भाषा की समस्या नहीं आने दूंगा।
............. सलाम पहुंचे आपको, और ये शब्द भी! उम्मीद है, जल्द आपसे पेंडिंग मुलाक़ात होगी!
भाषा और पत्र में हुई देरी के लिए माफ़ी।
और कोई भूल-चूक हो, तो माफ़ करेंगे, ऐसी अपेक्षा है।
आज के शब्द यही खत्म हुए!
विदा!

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

भाजपाः लहरें ना तो जल्दी उठती हैं, ना आसानी से ख़त्म होती हैं

अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भारतीय जनसंचार संस्थान में मेरे विभागाध्यक्ष सर ने एक सीख दी थी। शब्द ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन सीख का लब्बोलुवाब कुछ यूं था... अमित, कदम बढ़ाना अच्छी बात है, तेज़ कदम और भी अच्छी बात, दौड़ना उससे भी अच्छा... लेकिन ध्यान रखो कि कभी-कभी बिना सोचे-समझे, चलने-दौड़ने में इंसान गिर भी पड़ता है और चोट भी लगती है। पीड़ा ऐसी होती है जो बहुत दिनों तक कसकती है।
सर ने यह संदेश मुझे कक्षा में हुए साप्ताहिक टेस्ट पर मेरे ख़राब परिणाम पर दिया था।
कक्षाएं पीछे छूट गईं लेकिन सर का संदेश तब से लेकर अब तक साथ है, साथ रहेगा।

अब यह सब इसलिए याद आया कि पूर्वोत्तर में जारी तीन राज्यों की चुनावी प्रक्रिया में से एक 60 सदस्यीय नागालैंड विधानसभा के लिए एक भाजपा गठबंधन के नेफ्यू रियो निर्विरोध चुने जाएंगे (दरअसल वे चुन लिए गए हैं, अब बस समय की कसर बकाया है। औपचारिकाताएं शेष बची हैं)
यूं तो नेफ्यू रियो पहले भी निर्विरोध चुने गए हैं इसलिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन नया जरा ठहरिए। इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए। थोड़ा रुक कर विचार करना है, फिर फैसला करना है। सबसे ऊपर दिए गए संदेश का सार यही है।
अगर मैं इन घटना की तुलना कुछ दिन पहले आए राजस्थान उपचुनाव परिणामों पर आई प्रतिक्रियाओं से करूं तो... क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
निष्कर्ष संख्या एक- मोदी लहर पूर्वोत्तर में पहुंच गई है। बस आने वाले दिनों में राजनीतिक तबाही मचाने वाली है।
निष्कर्ष संख्या दो- तीनों राज्य भगवा रंग में रंगने जा रहे हैं।
निष्कर्ष संख्या तीन- पाठक अपने मन से कुछ भी कल्पना कर लें... उन्हें छूट दी जाती है!
कितने वाहियात निष्कर्ष हैं ना...? मुझे भी लगते हैं।

चलिए निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले पश्चिम बंगाल में हुए उपचुनावों का भी उदाहरण लेते हैं। यहाँ एक लोकसभा और एक विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए जिसमें भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़कर क्रमशः 11.5 से 23.29 और 13 से 20.7 हो गया है। दोनों ही सीट भाजपा हार गई लेकिन दोनों ही जगह वह 'दूसरे नंबर' की पार्टी बनी।
मैंने सोशल मीडिया पर कहीं इन दोनों ख़बरों (नागालैंड और पश्चिम बंगाल) पर भाजपा समर्थित लोगों को जश्न मनाते हुए नहीं देखा। किसी वरिष्ठ पत्रकार को तो कतई नहीं। (संभव है कि भाजपा समर्थित लोग मेरे सोशल मीडिया की मंडली में ना जुड़े हों)
लेकिन मैंने राजस्थान में भाजपा की हार पर तमाम ऐसे फेसबुक पोस्ट और ट्वीट्स देखे जिनमें मोदी लहर की समाप्ति का इज़हार बड़े शान से किया गया था। उन शब्दों को देखकर लगता था मानो शब्द अभी खिलखिलाकर हंस देंगे और फिर वर्षों की कड़ी तपस्या और इंतज़ार में अंखियों से खूशी के आंसू बह निकलेंगे! जश्न मनाने वालों में आम-समर्थक होते तो शायद मैं यह सब नहीं लिखने बैठता। उनमें वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं। किसी को 20 साल की 'ज़मीनी पत्रकारिता' का अनुभव है तो किसी को कलम घिसते-घिसते 40 साल हो गए हैं। तमाम तो इनते वरिष्ठ हैं कि अब स्थाई रुप से सेवानिवृत भी हो चुके हैं। (इन पत्रकारों ने अपने दौर में कैसी पत्रकारिता की होगी, उसकी एक बानगी देखिए कि देश के एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के एक समय संपादक रह चुके महोदय ने उत्तरप्रदेश विधानसभा में बहुत ठोस अनुमान लगाया था कि भाजपा को 14-15 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिलेगा और यह तीसरे नंबर की पार्टी बनेगी, असली लड़ाई सपा और बसपा में है) अब यहाँ समस्या यह नहीं कि आपके अनुमान गलत हो गए तो क्या उनकी योग्यता पर प्रश्न चिह्न लगाया जाएगा? कतई नहीं! इतनी जल्दी निष्कर्ष निकाल लेने के खिलाफ रहा हूँ मैं! लेकिन समस्या तब होती है कि ऐसे राजनीतिक विश्लेषक फिर से उन्हीं मीडिया संस्थान में गंभीरता से राय देते/लिखते हुए नज़र आते हैं जो गंभीर और इत्मिनान वाली पत्रकारिता का दंभ भरते हैं। जो संस्थान इनके शब्दों को जगह देते हैं, वे एग्ज़िट/ओपिनियन पोल्स की खिल्ली उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
एक और उदाहरण दूंगा फिर वापस अपनी बात पर आऊंगा। कई मीडिया संस्थानों के लिए 2014 में मोदी लहर जैसी कोई चीज नहीं थी। ना चुनाव से पहले ना चुनाव परिणामों के बाद... वह तो भला हो बिहार और दिल्ली विधानसभा के चुनावों का जो इन्होंने माना कि जो लहर कभी थी ही नहीं, उसकी इन दो राज्यों में हुए चुनाव परिणामों में हवा निकल गई! कभी-कभी लगता है कि ऐसे लोगों के लिए मोदी लहर के मायने तभी होंगे जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा श्रीलंका, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार में कम से कम दो-दो और पाकिस्तान, बंग्लादेश में एक-एक सीटे जीतेगी!
अब लौटकर नागालैंड पर आता हूँ। भारतीय राजनीति में, जहाँ गलाकाट प्रतिस्पर्धा में एक सरपंच का चुनाव, असली चुनाव बन जाता है, और ऐसे में किसी का निर्विरोध चुन लिया जाना चर्चा का विषय बन जाता हो, वहाँ अगर नागालैंड में विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन का एक प्रत्याशी निर्विरोध चुना जाता है तो इसके आपके लिए कोई मायने नहीं होते? नहीं होने चाहिए... लेकिन अगर होते भी हैं तो उस पर जश्न तो कतई नहीं मनाया जा सकता।
कोई इसे एक छोटी सी टिप्पणी के रुप में लिखकर भाजपा विरोधियों के मजे ले सकता है लेकिन मैं ऐसा बहुत कम (या कभी नहीं) करता हूँ। त्वरित टिप्पणियां आपको आगे महान बनाएंगी या नहीं, यह बहुत बाद में पता चलता है, लेकिन उनमें शर्मिंदा करने की क्षमता पर्याप्त होती है, यह सबको पता होना चाहिए, खासकर हमारे जमात के उन वरिष्ठ लोगों को जो कहते है कि देश में भीड़ तंत्र बढ़ रह है। ऐसे लोगों के लिए मेरा एक ही विनम्र संदेश है, भीड़ तंत्र तो बढ़ेगा ही, जब आप जैसे पढ़े-लिखे जो गंभीर होने का दावा करते हैं, 140 या अब 280 अक्षरों में मजे लेने की उसी गंगा में डुबकी लगाते हुए बड़े आनंद का अनुभव करते हैं, जिसमें (कथित) कम पढ़े-लिखे लोग चुटकुलाबाजी से विरोधियों को नीचा दिखाते हैं। तो भीड़-तंत्र तो आप ही बढ़ा रहे हैं। क्या कहा... नहीं? तो ठीक है लहर समाप्त होने के जश्न मनाइए... फिर इधर से भी आवाज़ आएगी, नेफ्यू रियो के निर्वोचन पर लहर... एक कान राजस्थान की ओर करेंगे तो दूसरा, पश्चिम बंगाल या नागालैंड की तरफ अपने-आप रहेगा, इस दूसरी लहर को भी सुनने का प्रयत्न कीजिए।
लहरें ना तो इतनी जल्दी बनती हैं ना आसानी से ख़त्म ही होती हैं। नागालैंड के बारे में मैं तो कोई निषकर्ष नहीं निकाल रहा हूँ, क्यों में मेरे सर ने मुझे कुछ सीख दी थी। हाँ, आप कहीं और का निकालना चाहें तो... आपको जश्न मुबारक़ हो!

बुधवार, 23 अगस्त 2017

प्रधानमंत्री जी को पत्र: एक निवेदन, उज्ज्वला गैस लाभार्थियों से सब्सिडी ना हटाएं


(यहाँ प्रकाशन से पहले ही यह पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय तक भेज दिया है)
मेरा सुझाव/निवेदन विशुद्ध मंत्रालय तक रहना चाहिए था लेकिन पता नहीं यह किसने और किस आधार पर इंडियन ऑयल का भेज दिया। फिर जवाब देखिए... मैंने क्या लिखा था, उन्होंने क्या जवाब दिया....