मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

भाजपाः लहरें ना तो जल्दी उठती हैं, ना आसानी से ख़त्म होती हैं

अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भारतीय जनसंचार संस्थान में मेरे विभागाध्यक्ष सर ने एक सीख दी थी। शब्द ठीक-ठीक याद नहीं लेकिन सीख का लब्बोलुवाब कुछ यूं था... अमित, कदम बढ़ाना अच्छी बात है, तेज़ कदम और भी अच्छी बात, दौड़ना उससे भी अच्छा... लेकिन ध्यान रखो कि कभी-कभी बिना सोचे-समझे, चलने-दौड़ने में इंसान गिर भी पड़ता है और चोट भी लगती है। पीड़ा ऐसी होती है जो बहुत दिनों तक कसकती है।
सर ने यह संदेश मुझे कक्षा में हुए साप्ताहिक टेस्ट पर मेरे ख़राब परिणाम पर दिया था।
कक्षाएं पीछे छूट गईं लेकिन सर का संदेश तब से लेकर अब तक साथ है, साथ रहेगा।

अब यह सब इसलिए याद आया कि पूर्वोत्तर में जारी तीन राज्यों की चुनावी प्रक्रिया में से एक 60 सदस्यीय नागालैंड विधानसभा के लिए एक भाजपा गठबंधन के नेफ्यू रियो निर्विरोध चुने जाएंगे (दरअसल वे चुन लिए गए हैं, अब बस समय की कसर बकाया है। औपचारिकाताएं शेष बची हैं)
यूं तो नेफ्यू रियो पहले भी निर्विरोध चुने गए हैं इसलिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। लेकिन नया जरा ठहरिए। इतनी जल्दी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए। थोड़ा रुक कर विचार करना है, फिर फैसला करना है। सबसे ऊपर दिए गए संदेश का सार यही है।
अगर मैं इन घटना की तुलना कुछ दिन पहले आए राजस्थान उपचुनाव परिणामों पर आई प्रतिक्रियाओं से करूं तो... क्या निष्कर्ष निकाला जा सकता है?
निष्कर्ष संख्या एक- मोदी लहर पूर्वोत्तर में पहुंच गई है। बस आने वाले दिनों में राजनीतिक तबाही मचाने वाली है।
निष्कर्ष संख्या दो- तीनों राज्य भगवा रंग में रंगने जा रहे हैं।
निष्कर्ष संख्या तीन- पाठक अपने मन से कुछ भी कल्पना कर लें... उन्हें छूट दी जाती है!
कितने वाहियात निष्कर्ष हैं ना...? मुझे भी लगते हैं।

चलिए निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले पश्चिम बंगाल में हुए उपचुनावों का भी उदाहरण लेते हैं। यहाँ एक लोकसभा और एक विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव हुए जिसमें भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़कर क्रमशः 11.5 से 23.29 और 13 से 20.7 हो गया है। दोनों ही सीट भाजपा हार गई लेकिन दोनों ही जगह वह 'दूसरे नंबर' की पार्टी बनी।
मैंने सोशल मीडिया पर कहीं इन दोनों ख़बरों (नागालैंड और पश्चिम बंगाल) पर भाजपा समर्थित लोगों को जश्न मनाते हुए नहीं देखा। किसी वरिष्ठ पत्रकार को तो कतई नहीं। (संभव है कि भाजपा समर्थित लोग मेरे सोशल मीडिया की मंडली में ना जुड़े हों)
लेकिन मैंने राजस्थान में भाजपा की हार पर तमाम ऐसे फेसबुक पोस्ट और ट्वीट्स देखे जिनमें मोदी लहर की समाप्ति का इज़हार बड़े शान से किया गया था। उन शब्दों को देखकर लगता था मानो शब्द अभी खिलखिलाकर हंस देंगे और फिर वर्षों की कड़ी तपस्या और इंतज़ार में अंखियों से खूशी के आंसू बह निकलेंगे! जश्न मनाने वालों में आम-समर्थक होते तो शायद मैं यह सब नहीं लिखने बैठता। उनमें वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल हैं। किसी को 20 साल की 'ज़मीनी पत्रकारिता' का अनुभव है तो किसी को कलम घिसते-घिसते 40 साल हो गए हैं। तमाम तो इनते वरिष्ठ हैं कि अब स्थाई रुप से सेवानिवृत भी हो चुके हैं। (इन पत्रकारों ने अपने दौर में कैसी पत्रकारिता की होगी, उसकी एक बानगी देखिए कि देश के एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के एक समय संपादक रह चुके महोदय ने उत्तरप्रदेश विधानसभा में बहुत ठोस अनुमान लगाया था कि भाजपा को 14-15 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिलेगा और यह तीसरे नंबर की पार्टी बनेगी, असली लड़ाई सपा और बसपा में है) अब यहाँ समस्या यह नहीं कि आपके अनुमान गलत हो गए तो क्या उनकी योग्यता पर प्रश्न चिह्न लगाया जाएगा? कतई नहीं! इतनी जल्दी निष्कर्ष निकाल लेने के खिलाफ रहा हूँ मैं! लेकिन समस्या तब होती है कि ऐसे राजनीतिक विश्लेषक फिर से उन्हीं मीडिया संस्थान में गंभीरता से राय देते/लिखते हुए नज़र आते हैं जो गंभीर और इत्मिनान वाली पत्रकारिता का दंभ भरते हैं। जो संस्थान इनके शब्दों को जगह देते हैं, वे एग्ज़िट/ओपिनियन पोल्स की खिल्ली उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
एक और उदाहरण दूंगा फिर वापस अपनी बात पर आऊंगा। कई मीडिया संस्थानों के लिए 2014 में मोदी लहर जैसी कोई चीज नहीं थी। ना चुनाव से पहले ना चुनाव परिणामों के बाद... वह तो भला हो बिहार और दिल्ली विधानसभा के चुनावों का जो इन्होंने माना कि जो लहर कभी थी ही नहीं, उसकी इन दो राज्यों में हुए चुनाव परिणामों में हवा निकल गई! कभी-कभी लगता है कि ऐसे लोगों के लिए मोदी लहर के मायने तभी होंगे जब मोदी के नेतृत्व में भाजपा श्रीलंका, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार में कम से कम दो-दो और पाकिस्तान, बंग्लादेश में एक-एक सीटे जीतेगी!
अब लौटकर नागालैंड पर आता हूँ। भारतीय राजनीति में, जहाँ गलाकाट प्रतिस्पर्धा में एक सरपंच का चुनाव, असली चुनाव बन जाता है, और ऐसे में किसी का निर्विरोध चुन लिया जाना चर्चा का विषय बन जाता हो, वहाँ अगर नागालैंड में विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन का एक प्रत्याशी निर्विरोध चुना जाता है तो इसके आपके लिए कोई मायने नहीं होते? नहीं होने चाहिए... लेकिन अगर होते भी हैं तो उस पर जश्न तो कतई नहीं मनाया जा सकता।
कोई इसे एक छोटी सी टिप्पणी के रुप में लिखकर भाजपा विरोधियों के मजे ले सकता है लेकिन मैं ऐसा बहुत कम (या कभी नहीं) करता हूँ। त्वरित टिप्पणियां आपको आगे महान बनाएंगी या नहीं, यह बहुत बाद में पता चलता है, लेकिन उनमें शर्मिंदा करने की क्षमता पर्याप्त होती है, यह सबको पता होना चाहिए, खासकर हमारे जमात के उन वरिष्ठ लोगों को जो कहते है कि देश में भीड़ तंत्र बढ़ रह है। ऐसे लोगों के लिए मेरा एक ही विनम्र संदेश है, भीड़ तंत्र तो बढ़ेगा ही, जब आप जैसे पढ़े-लिखे जो गंभीर होने का दावा करते हैं, 140 या अब 280 अक्षरों में मजे लेने की उसी गंगा में डुबकी लगाते हुए बड़े आनंद का अनुभव करते हैं, जिसमें (कथित) कम पढ़े-लिखे लोग चुटकुलाबाजी से विरोधियों को नीचा दिखाते हैं। तो भीड़-तंत्र तो आप ही बढ़ा रहे हैं। क्या कहा... नहीं? तो ठीक है लहर समाप्त होने के जश्न मनाइए... फिर इधर से भी आवाज़ आएगी, नेफ्यू रियो के निर्वोचन पर लहर... एक कान राजस्थान की ओर करेंगे तो दूसरा, पश्चिम बंगाल या नागालैंड की तरफ अपने-आप रहेगा, इस दूसरी लहर को भी सुनने का प्रयत्न कीजिए।
लहरें ना तो इतनी जल्दी बनती हैं ना आसानी से ख़त्म ही होती हैं। नागालैंड के बारे में मैं तो कोई निषकर्ष नहीं निकाल रहा हूँ, क्यों में मेरे सर ने मुझे कुछ सीख दी थी। हाँ, आप कहीं और का निकालना चाहें तो... आपको जश्न मुबारक़ हो!