शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

इतिहास ने कहा, 'तब भारत सो रहा था'

सत्ता और साम्राज्य के लिए एक राजा दूसरे राजा को तीसरे या चौथे राजा से युद्ध होने की स्थिति में धोखा देते आए हैं। यह सिर्फ भारतीय इतिहास का 'एक्सक्लुसिव' लक्षण नहीं है। शत्रु का शत्रु आपका मित्र होता है, यह सिद्धांत इसी की उपज है या इसके उल्टा भी... जो भी मान लिया जाए।
लेकिन यह कहानी राजा-रानियों की नहीं है। यह प्रजा की है, जो अब 'भाग्य-विधाता' बन चुकी है।
ठंड के मामले में 1990 की सर्दियां भी कुछ अलग नहीं रही होंगी। हमारे गाँव में तब भी दरवाजे पर अलाव पर देश-समाज-राजनीति पर चर्चा होती रही होगी। ऐसे कितने ही अलाव उत्तर भारत के कितने की गाँवों में जलते रहे होंगे... तब क्या चर्चा चलती होगी उन लोगों के बीच? वीपी सिंह वास्तव में राजा नहीं फकीर हैं... अब राजीव गांधी क्या बोफोर्स में जेल जाएंगे? या जनता दल का पहिया की कितनी दूरी तय कर पाएगा...?
इन सब पर चर्चा होती होगी लेकिन इतना पक्का है कि एक विषय पर चर्चा नहीं हुई थी, वह था कश्मीर और वहाँ से भगाए जाने वाले कश्मीरी पंडित...
सत्ता पाने के लिए राजा एक-दूसरे को धोखा देते आए थे, एक-दूसरे की पीठ में छुरा भोंकतें आए हैं लेकिन जनवरी 1990 में जो कुछ हुआ उसमें 'पड़ोसी के घर आग लगने पर हमें नींद आ गई' का सिद्धांत लागू हुआ। 19 जनवरी 1990 की उस रात को जम्मू के राज भवन में सभी फोन पूरी रात घनघनाते रहे, जगमोहन साहब जितना सुन सकते थे, फोन सुने। जम्मू से श्रीनगर में जितने आदेश दे सकते थे, दिए। दिल्ली में गृह मंत्रालय में भी उस रात फोन लगतार बजते रहे... सब के सब श्रीनगर और कश्मीर के अन्य इलाकों से आ रहे थे। फोन पर लोग तो अलग-२ होते थे लेकिन सब की गुहार एक होती थी, उनके शब्द एक जैसे थे... उनके वे शब्द खून और आंसुओं में लथपथ होते थे।
इसके अलावा शेष भारत में कहीं किसी को कोई कोई ख़बर नहीं थी कि कश्मीर में क्या चल रहा है? संविधान की उद्देशिका में भी जुड़ा सेक्युलर शब्द यूं तो 232 इतना पुराना नहीं हुआ था जो तब की मीडिया या नेताओं की जुबान पर 'परफेक्ट' रूप से चढ़ गया हो। हाँ, यह अलग बात है कि दो-तीन साल बाद वह संविधान की 'मूल आत्मा' जैसा जरूर बन गया था।
पहले भी कहा है, फिर दोहराना हो जाए कि 80-90 करोड़ की आबादी में 1000-1500 मार दिए जाएं या 3-4 लाख लोगों को उनके घरों से निकाल दिया जाए तो किसे फर्क़ पड़ता है? अब इन भारत भूषण धर की कहानी ही देख लीजिए... 50 साल के हो चुके हैं। एक किडनी के सहारे चल रहे हैं। 4 सदस्यों वाले इसके  परिवार को 'मुफ़्त' में 12-13 हज़ार हर महीने मिलते हैं। इसके अलावा कुछ राशन भी मिल जाता है। यह सब उन्हें 1990 से ही मिल रहा है। श्रीनगर से 70 किमी दूर उनका गाँव में घर था, खेत थे, बाग थे। अपना कमाते-अपना खाते थे। लेकिन देश के सेक्युलर फेब्रिक में सतरंगी रंगों को धुंधला करके एक रंग को चटख किया गया और भारत जम्मू के कैंप में आ गए। एक साल बाद इसी कैंप में उनकी शादी हुई... कितनी और कहानी बताई जाए...? जब वे अपनी कहानी सुना रहे थे तो उनकी पत्नी रोने में लगी। हम कुछ नहीं कहने की स्थिति में नहीं थे, करना तो दूर की बात है... थोड़ी देर बाद बोलते-२ भारत भूषण जी का गला भी भर आया... अब क्या किया जाए.? तो उन्होंने 5-6 बार सिर्फ एक ही वाक्य दोहराया... "हमें अब नहीं जीना है, देश अपने नागरिकों को भूल चुका है। हमारे साथ क्या बीती, भारत के लोगों को कुछ नहीं पता। हमें आधी रात को घरों से भगाया गया। अब हमें नहीं जीना है, भगवान हमारा अंत कर दे। हम दुनिया से ऊब चुके हैं।"
5-6 बार यही बात दोहराए जा रहे थे।
अब मैं यह भी बता दूं कि वे कितने साल कैंप में रहे, कितने साल एक कमरे वाले फाइबर सेड में और अब चार लोगों की ज़िंदगी एक कमरे वाले 'शरणार्थियों वाले' घरों में बीत रही है तो क्या कुछ फर्क़ पड़ जाएगा?
यह सही कि पंडित समुदाय आपनी शिक्षा के बल पर उस त्रासदी से उबर गया है और दुनिया के अलग-२ हिस्सों में बिखरा है। लेकिन इसका मतलब कि उनके जनसंहार को भूल जाएं? उन 1000-1500 मौतों के लिए एक भी व्यक्ति को दोषी न ठहराया जा सका। डेढ़-दो साल पहले SC भी कह चुका है 'इतने पुराने मामले' की जांच अब नहीं हो सकती।
भारत भूषण जब बार-२ मरने की बात कर रहे थे तो मेरे मन में एक ही सवाल आ रहा था... उन दिनों शेष भारत क्या कर रहा था जो कश्मीर से निकली चीखें सुनाई नहीं दीं? विज्ञान तो कहता है कि ठंडे मौसम में ध्वनि (आवाज़) दूर तक जाती है?
तभी इतिहास ने धीरे से कान में कहा... बेटा, तब तुम और भारत सो रहे थे। बहुत गहरी नींद में।