शुक्रवार, 18 मई 2018

अटल जी: जब वे लड़ाईयां हारे लेकिन युद्ध जीतते गए

मुझे उन लोगों से नफ़रत है जिन्हें राजनीति से नफ़रत है। वह पीढ़ी जो, नाक को थोड़ा ऊपर उठाकर कहती है आई हेट पॉलिटिक्स! ऐसा कहने वालों के लिए यह मानो स्वर्णिम काल है। और हो भी क्यों ना, राजनीति ने उन्हें मौका दिया है। जो अपनी बात में तर्क करते हुए कहते हैं कि देखो, यह सब जो हो रहा है इसीलिए मैं नफ़रत करता हूँ। राजनीति से, जो जॉर्ज बर्नाड शॉ को कोट करते हैं, जिनके लिए राजनीति धूर्तों का अंतिम व्यवसाय/लक्ष्य होता है।
वर्तमान राजनीति को देखकर एक डर लगता है। बहुत ज्यादा निराशा होती है। 'आज से कल अच्छा होगा', यह सोचते-सोचते आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है।
कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है, क्या वह सब ठीक है? सत्ता पाने के लिए कुछ भी करना, कुछ भी करना जस्टीफाई  किया जा सकता है? प्रश्न को दिमाग में रखिए, उत्तर पर बाद में आएंगे, पहले कर्नाटक का रुख़ करते हैं।
राज्यपाल ने किसे मौका दिया, किसे देना चाहिए था, और राज्यों में क्या हुआ था, कब किस राष्ट्रपति-राज्यपाल ने क्या गलत किया था, क्या ठीक किया था, दोनों पक्षों ने अपने-2 तर्क़ों से (सोशल) मीडिया को पाट दिया है। आज जो अनैतिक है, बीते हुए कल में उसके उलट अनैतिक था। संविधान, परंपराएं, इतिहास, व्यवहारिक उदाहरण... इनकी भूल-भुलैया में आप इस बहस के अंत तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। चूंकि कांग्रेस ने ज्यादा समय तक देश पर शासन किया तो स्वाभाविक है कि उसके बुरे उदाहरण कुछ ज्यादा ही मिलेंगे। यह ठीक वैसा ही है जैसे इस समय देश के अधिकतर हिस्सों में भाजपा की सरकारें हैं तो उसके शासित राज्यों में होने वाली एक-एक घटनाएं भी बहुत जान पड़ती हैं।

लेकिन इन सबके बीच एक-दो उदाहरण ऐसे मिलते हैं, जो वर्तमान भाजपा को सबक देने वाले और कांग्रेस का वह चेहरा याद दिलाने वाले हो सकते हैं जिसे छिपाकर आज वह लोकतंत्र में नैतिकता-सुचिता का ढोल पीटकर आम-जनमानस की सहानुभूति लेने की कोशिश कर रही है।
ज्यादा पीछे मत जाइए। बात 1996 से शुरु करते हैं।
देश में 'कांग्रेसी' राष्ट्रपति थे (वे भले कांग्रेसी ना हों लेकिन किसी भी लिहाज़ से भाजपाई या संघ से तो कतई नहीं थे) लोकसभा के चुनावों में किसी को भी दल को बहुमत नहीं था लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाकर चुनावों में उतरी भारतीय जनता पार्टी को 161 सीटें मिलीं, जो थीं तो सबसे ज्यादा लेकिन बहुमत से बहुत कम थीं। राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा जी ने अपने 'विवेक से परिपाटी' को आगे बढ़ाते हुए अटल जी को शपथ दिलाई और फिर 31 मई तक सदन में अपना विश्वास मत सिद्ध करने के लिए निर्देशित किया।
इंदिरा जी के समय से ही समर्पण की हर मांग अस्वीकार कर, पल-पल करेंगे प्रतिकार करने  वाले वाजपेयी जी ने इस निर्धारित समय सीमा से पांच दिन पहले यानि 26 मई को ही सदन में विश्वास मत मांगा और जो कुछ बोला वह लोकसभा की बहसों में स्वर्णिम अक्षरों से दर्ज़ हुआ। उन्हें घोड़ों के व्यापार वाली राजनीति पसंद नहीं थी। क्योंकि उन्हें भी श्रीराम की भांति मृत्यु के भय से लोक-लाज का भय ज्यादा बड़ा लगता था।
अगले दिन यानि निर्धारित समय सीमा से चार दिन पहले ही अटल जी ने राष्ट्रपति महोदय को त्याग पत्र सौंप दिया।
इस घटना पर ही इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संपादकीय में टिप्पणी की थी कि भले ही वे (अटल जी) यह लड़ाई हार गए हों लेकिन वे युद्ध जीतने जा रहे हैं।
और ऐसा हुआ भी... दो सालों की उठा-पटक के बाद नए चुनावों में अटल जी और सशक्त होकर उभरे। लेकिन कुटिल राजनीति अपना रंग दिखाने से कहाँ बाज़ आती है?
13 महीनों की सरकार के बाद यदि मौके आएं तो विपक्ष का 'अधिकार' है कि वह सरकार गिराने के प्रयत्न करे लेकिन जिस एक ओड़ीशा के मुख्यमंत्री, जो उस समय तक संसद सदस्य भी थे, के वोट से अटल जी की सरकार गिराई गई, उसके बाद कांग्रेस के पास यह कहने का कोई आधार नहीं रह जाता कि राजनीति में सौ-फीसदी नैतिकता ना सही लेकिन कुछ तो होनी चाहिए। जब आपने अपनी बेशर्मी से अटल जी जैसे नेता को नहीं बख़्शा तो कौन माने कि कर्नाटक में वर्तमान भाजपा नेतृत्व कोई कसर छोड़ेगा? आज आप अटल-आडवाणी की भाजपा की दुहाई दे रहे हैं, जिसे आपने अपने निम्मतम साध्यों से गिरा दिया था? मेरे लिए 'अनैतिकता' का यही बेंचमार्क है।
याद रखिए कि एक वोट से हारने के बाद अटल जी इतने निराश हुए कि चेहरे से टपकते हुए आंसुओं के बीच उनके शब्द थे कि हम सिर्फ एक वोट से हार गए, सिर्फ एक वोट से! वे रोए थे, भारत रात्न अटल बिहारी वाजपेयी को कांग्रेस ने आंसू दिए थे।
इसके बाद फिर से भारतीय जनता ने उनके हाथ और मज़बूत किए, नए सहयोगी साथ आए और फिर जो हुआ वह इतिहास है।
यह दोनों घटनाएं जहाँ भाजपा को धैर्य धरने की सीख देती हैं, वहीं कांग्रेस की राजनीति में नैतिकता की मांग को आईना दिखाती हैं।
और हाँ, जैसा उन्होंने किया, वैसा ही हम करेंगे, तो यह कभी ख़त्म ना होने वाली प्रक्रिया है। आप इन लड़ाईंयों को छोड़कर युद्धों की तैयारी कीजिए... यही वाजपेयी जी ने किया था। यह लड़ाई आप जीत भी गए तो विपक्ष और तेज़ी से आपके खिलाफ़ एकजुट होगा जो आने वाले युद्ध को आपके लिए और कठिन ही बनाएगा। फिर मर्ज़ी आपकी, फैसला आपका!
अंत में हम जैसे लोग, जो इस राजनीति रुपी सूरज  से व्यथित हैं, उनके लिए अटल जी की यह कविता थोड़ा ढांढस बांधती है। सुनिए और आने वाले कल के लिए फिर से दीया जलाइए... क्योंकि हमें नहीं हारना है, किसी भी कीमत पर नहीं!