सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

यौन हिंसा पर लाचार कानून:आखों देखा विवरण

                                               प्रतीकात्मक तस्वीर-इंडियन एक्सप्रेस
ये कहानी है 14 फरवरी की. मुझे झांसी होते हुए अपने घर जाना था. कई सालों से दिल्ली में रह रहा हूँ लेकिन पहली बार दक्षिण एक्सप्रेस से सफ़र करने का फैसला किया. यह ट्रेन निज़ामुद्दीन से चलती है. रात में 11 बजे.
मैं निर्धारित समय को देखते हुए सराय काले खाँ की ओर से करीब 9:20-25 पर टिकट खिड़की पर पहुंच गया. वहाँ दो खिड़कियां चालू (ऑपरेशनल) थीं जबकि एक तीसरी खिड़की लगभग उसी समय चालू हो गई... वहाँ कोई भीड़ नहीं थी तो मैं भी उसी खिड़की की तरफ दौड़ा और एक टिकट के लिए पैसे बढ़ा दिए. लेकिन टिकट वितरक ने ऊपर की और इशारा करते हुए बताया कि यह खिड़की सिर्फ महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए है. मैं 'ओके' कहते हुए तुरंत हटा और वापस अपनी पहली वाली लाइन में लगकर अपनी प्रतीक्षा करने लगा. ये दोनों खिड़कियां सटी हुई हैं. अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए मैं इत्तेफ़ाक़ से उसी खिड़की की और देख रहा था. मेरे आगे सिर्फ एक-दो लोग बचे थे तभी "महिलाओं तथा वरिष्ठ नागरिकों" वाली खिड़की पर एक महिला, जिसकी उम्र लगभग 34-37 साल रही होगी ने टिकट मांगा. उस समय वो उस खिड़की पर टिकट मांगने वाली अकेली थी. टिकट लेने के बाद उस महिला ने टिकट वितरक से पूछा-"साहब, दक्षिण एक्सप्रेस कितने नंबर से छूटेगी?" तो जवाब में उसे जो मिला वह यौन हिंसा और छेड़खानी की श्रेणी में आता है.
केविन के अंदर बैठे उस सख्स जिसकी उम्र करीब 45-48 साल की होगी, ने प्लेटफॉर्म नंबर बताने की जगह अपने दोनों हाथों की तीन उंगलियों से एक अश्लील/भद्दा इशारा किया.
केविन के अंदर बैठे उस वितरक के पीछे एक और आदमी (उम्र लगभग 28-30) खड़ा था. मैं ये सब देख रहा था. वे उस अश्लील/भद्दे इशारे को करते हुए आपस में हंसे. उस महिला के चेहरे पर ऐसा भाव था मानो उसने कुछ समझा न था या सबकुछ जानकर भी वह अनजान बन रही थी.
अगले 1-2 मिनट में मैंने अपना टिकट लिया और उसी खिड़की पर गया लेकिन वो टिकट वितरक कहीं टहलने जा चुका था... मैंने साथियों से उनका नाम पूछा तो बताया गया कि खिड़की पर ही कहीं लिखा होगा... गौर से देखो. तभी एक दूसरे महोदय आए. जिन्हें मैंने कई बार जनता से गुस्सा होते हुए देखा है. उन्होनें मुझसे पूरा मामला बताने को कहा. मैंने जो देखा वह उन्हें बता दिया.  लेकिन जवाब मिला-"बेटा आपको गलत फहमी हो
आधी-अधूरी और धुंधली तस्वीर
गई है, ऐसा नहीं हो सकता" इन महोदय के पीछे खड़े उसी (28-30 साल के) व्यक्ति के चेहरे तो देखकर मैं बता सकता हूँ कि मैंने जो देखा था... असल में वही सच था. इसी बातचीत में इशारा करने वाला वह व्यक्ति पुनः वापस आ गया.
मैंने उसका नाम पूछा तो उसने नाम पट्टिका दिखाई...  नीले रंग की पट्टी में संफेद अक्षरों में हिंदी में लिखा था 'ओम प्रकाश'.
आनन फानन में मैंने टिकट लेने वाले उसी गोल छेद से उसकी तस्वीर लेनी चाही जिसमें उसका चेहरा और नाम पट्टिका दोनों आ सकें लेकिन जल्दबाजी के कारण तस्वीर साफ नहीं आई.
फिर मैंने उस युवा व्यक्ति से तेज़ आवाज़ में नाम पूछा... लेकिन वह बिना नाम बताए वहाँ से तेज कदमों की चाल से निकल गया. जाते हुए एक तस्वीर और क्लिक की लेकिन असफल रहा. बस मैंने इतना कहा... "आपने जो किया है, उसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना. अब जवाब देना"
इतना सब होने में मुश्किल से 3-4 मिनट लगे होंगे. पीछ मुड़कर उस महिला को खोज़ने की कोशिश की लेकिन उस टिकट हॉल में वह कहीं नहीं दिखी. फिर प्लेटफॉर्म नंबर सात पर पहुंचा और ट्रेन लगने की दिशा से पीछे जाकर उस महिला को खोज़ने लगा जहाँ सामान्य श्रेणी के डिब्बे लगते है. लेकिन नहीं मिली.
फिर मैंने वहाँ लगे दिल्ली पुलिस के एक पोस्टर पर लिखे नंबर पर कॉल की. आवाज़ में खराबी के कारण मैंने पूरी घटना लगभग 3-4 बार दोहराई. तब जाकर विपरीत दिशा में बैठे सहायता कर्मी को मेरी बात समझ में आई.
अगले 5-6 मिनट में मेरे फोन पर रेलवे थाने से फोन आया. फिर पूरी जानकारी दी. फोन पर सब इंस्पेक्टर मदन सिंह थे. उनके अनुसार प्राथमिक रूप से विक्टिम का होना जरूरी है. मैं तो बस विटनिस हूँ. जब विक्टिम शिकायत दर्ज़ कराएगी तभी कुछ हो सकता है.
इतने में ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग रही थी. मदन जी ने इत्मिनान से मेरे तर्क सुने. उन्होनें फिर दोहराया कि वो कार्यवाई करने को तैयार हैं लेकिन विक्टिम को खोज़िए... मैंने ठीक कहते हुए बात समाप्त की और अब आगे की ओर चल दिया.
उस भीड़ में सरसरी तौर पर मैंने फिर महिला को खोजा लेकिन नहीं दिखी.
अब समय करीब 10:15-18 हो गया. मैं ट्रेन में बैठकर सोचने लगा कि क्या हो सकता है. फिर थाने से आए उसी नंबर पर कॉल बैक की जिससे मदन सिंह जी का फोन आया था.
समय 10:30-मदन जी ने कहा कि मैं 5 मिनट के लिए थाने आ जाऊं जो प्लेटफॉर्म नंबर एक पर है. मैंने समय को देखते हुए असमर्थता जताई लेकिन उन्होनें जोर दिया कि ऐसा करने में महज़ 15 मिनट खर्च होंगे.
मैे दौड़कर गया. वहाँ फिर पूरा मामला बताया. तर्क दिए.
मदन जी ने फिर वही तकनीकि समस्या बताई. "विक्टिम होना जरूरी है"
इसी दौरान उन्होनें मेरा पेशा पूछा. मैंने बताया. फिर एक सफेद कागज मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले हिंदी में लिखेंगे या अंग्रेजी में? हिंदी में. तो फिर कहने लगे---इसमें दो लाइन लिख दीजिए. मैं लिखने लगा, मदन जी बोलने लगे. लेकिन मैं लिखने से पहले उनका पूरा वाक्य सुनना चाहता था. सुनने के बाद मैंने लिखने से मना कर दिया... तो बोले ठीक है. अब जो आप बताएंगे वही कार्यवाई करूंगा... वोले आप विक्टिम को लाईए मैं उस (आरोपी)व्यक्ति को देखता हूँ. उन्होनें साथ में एक महिला कांस्टेबल ली और मेरे साथ ओवर-ब्रिज की सीढ़ियां चढ़ने लगे. इस दौरान उन्होनें (मुझे डराते हुए, चेतावनी देते हुए) कहा कि अब आप ये मत कहिएगा कि मेरी वजह से आपकी ट्रेन लेट हुई... ये सुनकर चलते हुए मैंने अपनी आवाज़ तेज़ की और तर्क किया कि अगर विक्टिम विकलांग हो या किसी अन्य कारण से पुलिस तक सहायता मांगने में असमर्थ हो तो क्या किया जाएगा? क्या पुलिस कोई कार्यवाई नहीं करेगी?
उन्होनें अपने तर्क दिए और कहा कि आप फिर से विक्टिम को खोज कर लाऊं... वो ब्रिज पर खड़े होकर मेरा इंतज़ार करेंगे. मैं नीचे उतरा, प्लेटफॉर्म पर गाड़ी खड़ी थी. लोग अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे... इस बार मैंने सबसे आगे लगे तीन सामान्य श्रेणी के डिब्बों में खिड़कियों से उस महिला को पहचानने की कोशिश थी. भीड़ बहुत थी, अंदर जाकर खोजना संभव नहीं था. न महिला मिलनी थी न मिली.
समय 10:45 हो गया. मैंने सोचा चलो फोन ऑफ करता हूँ और अपनी सीट पर बैठता हूँ लेकिन फिर सोचा कि एक बार मदन जी को इन्फॉर्म कर दूं... उनका मोबाइल नंबर मेरे पास नहीं था तो थाने से नंबर लेकर कॉल की... मदन जी ने कहा कि कृपया पांच मिनट के लिए आ जाइए, मैं यहीं सात नंबर प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों पर खड़े हैं... कुछ फॉर्मेलिटीज़ पूरी करनी हैं. मैं गया तो उन्होनें मुझसे उसी अधूरी एप्लीकेशन को पूरा करने का निवेदन किया.
न चाहते हुए मैंने उसे पूरा किया. इस आशा के साथ कि मदन जी कम से कम यहाँ से जाकर उस आरोपी व्यक्ति को जरूर डांट लगाएंगे...
ये सब करने के बाद ट्रेन में बैठकर एक बार फिर मदन जी को फोन लगाया... लेकिन फोन 'स्विच ऑफ' था. दो मिनट बाद दोबारा पूरी ऱिंग हुई लेकिन 'नॉट रिस्पांडिंग' सुनाई दिया.
अब ट्रेन चलने का समय हो गया. इस सफर के दौरान मैंने उन गलतियों पर विचार करने की कोशिश की जो मुझे नहीं करनी चाहिए...
1-जब उस महिला से अश्लील इशारा किया गया, मुझे उसी क्षण टोकना चाहिए था. लेकिन मैंने ऐसा अपना टिकट लेने के बाद किया. जिसमें 1-2 मिनट लगे.
2-उस आरोपी व्यक्ति से उलझने से पहले मुझे उस पीड़ित महिला के पास जाना था. और उससे ही पुलिस हेल्प लाइन पर फोन कराना था. या कम से कम उसे रोके रखना था. व्यक्ति से बहस करने में, उसका नाम जानने में, तस्वीर निकालने में करीब 2 मिनट लगे. अतः कुल 3-4 मिनट के अंतराल में वह महिला जा चुकी थी.
लेकिन इतना सब होने के बाद मैं कानून के प्रावधानों को ही दोष दूंगा. आखिर क्यों सीसीटीवी के आधार पर उस आरोपी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जा सकता? फिर मैं तो विटनिस हूँ ही. उस हॉल में इतनी भीड़ नहीं थी जो सीसीटीवी के आधार पर व्यक्तियों के मूमेंट को न देखा जा सके.
हम चाहते हुए भी उस दोषी को दंडित नहीं करा सकते. वो सब कुछ भूल कर शायद एक दिन फिर ऐसी ही हरक़त करेगा लेकिन कानून... कानून की अपनी सीमाएं हैं. जो उसे कार्यवाई करने से रोक देंगी.