शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बैजयंत 'जय' पांडा से चर्चा

बैजयंत 'जय' पांडा उन चुनिंदा सांसदों में से हैं जिन्होंने अपने दम पर राजनीति में पहचान बनाई है. जय पांडा ने संसद में रहते हुए आठ निजी बिल पेश किये जिनमें एक बिल राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से भी संबंधित था. इसी मामले पर हाल में सर्वोच्च न्यायलय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। इसके साथ ही देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता वनाम साम्प्रदायिकता के बहस के बीच हमने अपने मित्र श्रीश चन्द्र के साथ मिलकर उनसे बात की… 

अमित:-राजनीति में अपराधीकरण को रोकने से संबंधित सर्वोच्च न्यायलय ने हाल में दो निर्णय दिए हैं, जिसमें दूसरे निर्णय के अनुसार अगर कोई व्यक्ति जेल में हो तो उसे चुनाव लड़ने से रोक देना चाहिए। आपका इस पर क्या कहना है?
जय पांडा:-देखिये व्यापक रूप से मैं इसका समर्थन करता हूँ कि जो दोषी हैं उनको चुनाव लड़ने ने रोका जाना चाहिए इसके साथ ही इनके लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट्स गठित किये जाएँ जो सांसद और विधायकों के मामलों की सुनवाई करें इसके साथ जिला परिषदों में बैठने वाले या ग्रामप्रधान जैसे सभी निर्वाचित प्रतिनिधियों से संबंधित मामलों की सुनवाई करें। ये अदालतें नब्बे दिन या छ महीने में अपना फैसला सुना दें। लेकिन जिस स्थिति की आप बात कर रहे हैं, उसे दो भागों में बांटा जा सकता है-माइनर क्राइम और मेजर क्राइम। अगर कोई रैली में किसी का विरोध कर के गिरफ्तर कर लिया जाये तब उसे चुनाव लड़ने से रोकना सही नहीं होगा लेकिन अगर कोई हत्या, बलात्कार या डकैती जैसे व्हाइट कॉलर क्राइम में पकड़ा जाता है तो फिर ये सही है। फिर उसे रोका जाना चाहिए।

अमित:-इन दो निर्णयों के बाद न्यायपालिका-विधायिका के बीच शक्ति संतुलन की बहस फिर गर्म हो गई है। आप इसे कितना उचित मानते हैं और क्या ये सही है कि व्यवस्था के अंग भले ही अपना काम ठीक से न करें लेकिन फिर भी न्यायापलिका को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?
जय पांडा:-संविधान ने सभी अंगो की शक्तियां निर्धारित की हैं, लेकिन हमें मानना पड़ेगा की जहाँ हमारी विधायिका/कार्यपालिका अपना काम सही ढंग नहीं करती हैं तब लोगों की तरफ से मांग की जाती है कि चुनाव सुधार होने चाहिए लेकिन हमारी तरफ कोई काम नहीं किया जाता. जब विधायिका काम नहीं करती तो एक वेक्यूम बन जाता है। मैं यहाँ अपने साथियों से कहना चाहता हूँ कि हमने अपना काम न करके मैदान खली छोड़ दिया है उस पर कोई और खेल रहा है। और फिर न्यायिक सक्रियता को लोगों का समर्थन भी प्राप्त है।

श्रीश:-लोकसभा चुनाव में अब एक साल से कम समय है। मोदी के इमरजेन्स के बाद कम्युनल वर्सेज सेक्युलर की बहस तेज़ हो रही है जबकि देश में व्याप्त मंहगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। आप इसे कैसे देखते हैं?
जय पांडा:-देखिये देश में कोई एक मुद्दा नहीं है और ये सही नहीं है कि बहस सिर्फ दो पार्टियों के बीच हो रही है। पिछले बीस सालों से क्षेत्रीय पार्टियाँ उभर रही हैं और तीन-चार सालों में जो भी सर्वे या ओपिनियन पोल हुए हैं उसमें इन क्षेत्रीय दलों को बढ़त मिलती हुयी दिख रही है। तो कम्युनिस्म एक मुद्दा है इसके साथ और भी मुद्दे हैं जैसे विकास एकदम रुक गया है, रूपए की हालत कमज़ोर हो गयी है जिसका हमें फायदा होना चाहिए लेकिन नीतियों के आभाव में हम लाभ नहीं ले पा रहे हैं। तो मुद्दे तो और भी हैं।

श्रीश:-लेकिन इस बहस में तो क्षेत्रीय पार्टियाँ भी शामिल होती दिख रही है चाहे वो जेडीयू हो, समाजवादी पार्टी हो या बीजू जनता दल.?
जय पांडा:- मैं फिर आपसे कहूँगा कि सिर्फ एक मुद्दा नहीं है कई मुद्दे है वो भी एक मुद्दा हो सकता है। जेडीयू के बारे में मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहता। क्षेत्रीय दलों की अपनी प्राथमिकताएं होती हैं। ये मूवमेंट (क्षेत्रीय पार्टियों का उभार) सही दिशा में है। 40-50 साल पहले जब हमारा देश युवा गणतंत्र था तब ये जरूरी था कि देश को एकजुट रखा जाए लेकिन आज कोई अलगाववादी नहीं है और क्षेत्रीय दल भी अपनी भारतीयता पर गर्व करते हैं। हम लोगों का क्षेत्रीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर भी अपना दृष्टिकोण हैं.

श्रीश:-हाल में ममता बनर्जी ने फेडरल फ्रंट की बात चलाई जिसमें आपके नवीन पटनायक, जयललिता, मुलायम आदि ने सहमती जताई है. आप इसका भविष्य कहाँ तक देखते हैं या ये भी आगे चलकर राजग या संप्रग में मिल जायेगा?
जय पांडा:-इसे आप थर्ड फ्रंट कहें या फेडरल फ्रंट एक बात तो सही है कि 120 करोड़ जनसँख्या वाले हमारे देश में बहुत से लोग, वे बहुमत में हो सकते हैं या किसी बड़े समूह में, इन सो कॉल्ड नेशनल पार्टीज को सपोर्ट नहीं करते हैं. दिल्ली में बैठ कर आप सैंकड़ों मील दूर किसी गाँव के लिए नीतियां नहीं बना सकते, डिक्टेट नहीं कर सकते। तमिलनाडु की प्राथमिकताएं अलग हैं, केरल की अलग और ओडीशा की अलग.
एक उदहारण मैं आपको और दूंगा जैसे NCTC का मसला है, इसे मीडिया ने बहुत गलत ढंग से पेश किया। केंद्र में बैठे लोग इसे ऊपर से लाना चाह रहे थे जिसका सिर्फ हमने ही विरोध नहीं किया बल्कि इन नेशनल पार्टीज के अपने मुख्यमंत्रियों ने भी किया। इसका कारण था कि बिना किसी बातचीत के ये ऐसा कर रहे थे. प्रस्तावित मॉडल पकिस्तान में हैं, रूस में था. हमें यूएसए और ब्रिटेन का उदहारण लेना चाहिए जहाँ केंद्र और राज्यों के सहयोग से न सिर्फ ऐसे मॉडल काम कर रहें हैं बल्कि आतंकवाद पर भी लगाम लगी हुयी है.

श्रीश:-अगर हम कृषि की बात करें तो अब कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात होने लगी है. आने वाले समय में भारत की स्थिति में आप इसे किस लिहाज़ से देखते हैं?
जय पांडा:-इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिएअभी भी हमारे यहाँ 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और ये सस्टेनेबल नहीं है. किसी भी विकसित देश में ऐसा नहीं होता, वहां 3-4 प्रतिशत लोग ही कृषि में लगे रहते हैं और उसी से पूरे देश को खिला सकते हैं और निर्यात भी कर सकते हैं. कृषि विकास दर बहुत कम है. इस क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है जिसमें आप जिस कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की बात कर रहे है वो सिर्फ एक एंगल हो सकता है. सिंचाई सुविधाओं में सुधार हो, बाजारों की उपलब्धता बढ़ाई जाए.

अमित:-आपके अनुसार कुछ स्थानीय और क्षेत्रीय आवश्यकताओं की जरूरतें पूरी करने लिए फेडरल फ्रंट का आईडिया सही है.  लेकिन अगर हम कुछ घटनाओ पर गौर करें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय हितों पर हावी हो जाते हैं. जैसे श्रीलंका के साथ संबंध तमिलनाडु, बांग्लादेश के साथ संबंध पश्चिम बंगाल और अगर उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार रही तो अमेरिका के साथ संबंध उत्तरप्रदेश की इच्छा से निर्धारित होंगे। क्या ये ठीक है?
जय पांडा:-देखिये अभी सिर्फ फेडरल फ्रंट की सम्भावना है. जो कुछ होना है उसमें समय है. लेकिन फिर भी ये प्रश्न महत्वपूर्ण हैं. आपको जो शंकाए हैं वे उचित हो सकती हैं लेकिन मुझे इस बात की इतनी शंका नहीं है. ये सही है कि विदेश नीति पर एक राय होनी जरूरी है लेकिन डोमेस्टिक पालिसी में आप दिल्ली में बैठ कर डिक्टेट नहीं कर सकते। आप रूस या जर्मनी को लीजिये या फिर ब्रिटेन को, वहां शीर्ष नेतृत्व को चुनाव जीतने के बाद भी अपनी नीतियों के बारे में लोगों को कन्विंस करना पड़ता है. मीडिया विपक्ष और लोगों से बात करनी पड़ती है. लेकिन हमारे यहाँ सरकारों का एट्टीट्यूड रहता है कि चुनाव जीत गए हैं अब पांच साल तक जो चाहो करो, ये लोकतंत्र नहीं है, हमें उस व्यक्ति से इच्छा के बारे में पूछना चाहिए जो इससे प्रभावित होते हैं.

अमित:-आप नीति निर्माण में जनता की भागीदारी के पक्ष में हैं लेकिन इसी बात के लिए जब सर्वोच्च न्यायलय नियमगिरि हिल्स के खनन में ग्रामसभाओं की भागीदारी के लिए कहा तब आपकी प्रदेश सरकार सिर्फ बारह ग्राम सभाओं को फैसला करने को देती है जबकि उस क्षेत्र में सौ से ज्यादा ग्राम सभाओं को शामिल करने की मांग है?
जय पांडा:-यहाँ पर इस मुद्दे को मीडिया ने गलत ढंग से रिपोर्ट किया है. हम शक्तियों के विकेंद्रीकरण के पक्ष में हैं लेकिन लोगों को इसमें शामिल किया जाए उसको लेकर कन्फ्यूजन है. भूमि अधिग्रहण में उसी से पूछा जाना चाहिए जिसमें इसकी जमीन जा रही हो. बीस मील दूर के लोगों से क्यों पूछा जाए? कोई एक्टिविस्ट कहता है कि अगर पचास गावों में एक भी विरोध करता है तो जमीन का अधिग्रहण नहीं हो तो. ये तो प्रैक्टिकल नहीं है न, बहुमत का मत लिया जाना चाहिए। भूमि अधिग्रहण कानून में यही है. यू कांट कन्विंस एव्री सिंगल पर्सन, इट्स नॉट प्रैक्टिकल। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में भी बहुमत का कांसेप्ट अपनाया गया है.

अमित:-नियमगिरि में वेदांत द्वारा खनन का मुद्दा बन अधिकार अधिनियम (FRA)-2006 से सम्बंधित है अगर भूमि अधिग्रहण कानून बन भी गया तो वह इस पर तो कोई प्रभाव डालेगा नहीं।
जय पांडा:-हमारे कई कानून एक दूसरे के विरोधाभाषी हैं जैसे FRA और MMDR (मिनरल एंड माइनिंग-डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट। इन कानूनों में से कुछ उद्योगों को बढ़ावा देते हैं तो कुछ पर्यावरण सरक्षण को. इनमें कभी-कभी परस्पर विरोधी बातें निकल कर आती हैं. हमें इनमे बीच का रास्ता निकलना चाहिए। ये  कुछ तक विधायिका करेगी और कुछ न्यायपालिका।

                                                               फोटो-अमित 
श्रीश:-राजनीती में आने से पहले आप कॉर्पोरेट जीवन में थे फिर राज्यसभा से होते हुए आप यहाँ तक पहुंचे। आज भारत का युवा राजनैतिक रूप से सक्रिय हो रहा है वह मीडिया और सोशल मीडिया पर एक्टिव है लेकिन इलेक्टोरल पॉलिटिक्स  में नहीं आ पता. इसके लिए आप क्या सुझाव देंगे?
जय पांडा:-मैं यहाँ तीन-चार बातें कहूँगा। एक तो सभी लोगों को राजनीति  में नहीं आना चाहिये। अगर ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब हमारे देश में और जगह भी रोज़गार के अवसर हैं. ये नहीं होना चाहिए कि सभी लोग राजनीति करने लगें फिर तो यहाँ उदासीनता की स्थिति बन जाएगी। दूसरा, राजनीति में आना एक बात है लेकिन किसी को वोट भी न देना अलग बात, ये स्थिति सही नहीं है. और राजनीती में शामिल होने पर कहना चाहूँगा कि इस क्षेत्र में लेवल प्लेयिंग फील्ड अभी नहीं है. एक साधारण नागरिक के सामने राजनीति में आने के रस्ते में बहुत कठिनाइयाँ हैं अगर उसकी पकड़ नहीं है या कोई परिवार का सदस्य पहले से राजनीति में नहीं है तो लिए बहुत मुश्किल है. ये व्यवस्था हमें बदलनी होगी।

श्रीश:- बहुत-बहुत धन्यवाद आपका जो आपने समय दिया और हमसे बात की.
जय पांडा:- जी धन्यवाद और भविष्य के लिए आप लोगों को शुभकामनाएं। 


बैजयंत 'जय' पांडा, बीजू जनता दल से ओडीशा के केंद्रपाडा का 2009 से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं,
वर्ष 2000 में राज्यसभा से राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण किया, 2006 में पुनः चुने गए। 
जय पांडा ने मिशीगन टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी से स्नातक किया है. 
facebook- https://www.facebook.com/Baijayant.Jay.Panda
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(अरविंद केजरीवाल से हुयी बातचीत को पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें)
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गुरुवार, 25 जुलाई 2013

ये (ब्रिटिशर्स) हमें सभ्य बनाने आए थे.!!

अंग्रेज भारत में आने और राज करने को ईश्वर का आदेश मानते थे. उनका मानना था कि दुनिया में ईसाई धर्म ही सबसे प्रगतिशील और मानव कल्याण करने वाला है अतः इसी के माध्यम से हम नए नए क्षेत्रों में लोगों को 'सभ्य' बनायेंगे। यूरोप में औद्योगिकीकरण के बाद नए नए उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें इंग्लैंड अन्य यूरोपीयदेशों से अपेक्षाकृत कुछ कदम आगे निकल गया और उसने भारत जैसे धनवान देश पर साम-दाम-दंड-भेद
अपना कर अपना तम्बू ताना जो समय के साथ बढ़ता ही गया. 1833 के चार्टर से ईसाई धर्म प्रचारकों को अपने धर्म का प्रचार करने और लोगों को ईसाई बनाकर सभ्य बनाने का लाइसेंस मिल गया.

1857 में जब अंग्रेजो को अपने राज पर खतरा महसूस हुआ तो घबराए/बौखलाए हुए अंग्रेजों में से एक और कम्पनी
के नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष मैंगल्स ने ब्रिटिश संसद में कहा-" ईश्वर ने भारत का विशाल साम्राज्य अंग्रेजों को ईसामसीह की विजय पताका फहराने को दिया है है अतः प्रत्येक अंग्रेज को इसे बचाने में अपनी पूरी क्षमता लगा देनी चाहिए". मतलब बहाना धर्म प्रसार का था लेकिन उद्धेश्य कुछ और था.

सभ्य बनाने की इस कोशिश में अंग्रेजों ने यहाँ डाक-तार की शुरुआत की, रेलें चलाई, नए-नए विश्वविद्यालय खोले। सुधारों का ये क्रम 1857  बाद कुछ तेज़ होता हुआ प्रतीत भर हुआ क्योंकि सभ्य बनाना तो एक बहाना भर था अपने साम्राज्य की वैद्यता बनाये रखने के लिए. दरअसल उनका प्रमुख उद्देश्य यहाँ के संसाधनों से अपने देश की तिजोरियां भरना था. जॉन सुल्विन के अनुसार-"हमारी प्रणाली स्पंज की तरह कार्य करती है जो गंगा का पानी सोखकर टेम्स के किनारे बर्षा करती है". बाद  स्पष्ट हो गया की अंग्रेज अगर यहाँ मुस्कराते भी थे  इसमें उनके अपने हित थे.

कुछ औपनिवेशिक दृष्टिकोण वाले इतिहास कारों के मतानुसार अगर अंग्रेज भारत न आये होते तो यहाँ मध्ययुगीन इस्लामी राजशाही ही बनी रहती जिसमे हिन्दू प्रजा शोषित होती और अन्य इस्लामी देशों के सामान यहाँ भी गणतंत्र-लोकतंत्र न पनपता।

इस मानसिकता के इतिहासकार अंग्रेजों के राज को सही ठहराते वक़्त ये भूल जाते हैं इतिहास में "ऐसा न होता तो वैसा होता" का स्थान नहीं होता। अतः अंग्रेज न आये होते तो हम कैसी हालत में होते? ये प्रश्न समय की बर्बादी  ज्यादा कुछ नहीं है.

दुनिया को सभ्य बनाने निकले इन परोपकारी ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए की ये खुद प्रकृति के किस नियम के तहत एक परिवार की गुलामी कर रहें हैं? सपेरों और बाबाओं के देश भारत ने राजव्यवस्था की गणतंत्रात्मक पद्दति अपना ली लेकिन ब्रिटेनवासियों ने क्या किया। स्त्रियों को जहाँ दुसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था उस देश ने 1966 में ही एक महिला को देश का नेतृत्व दे दिया और सभ्यता के ठेकेदारों की घडी इस मामले में बारह-तेरह साल
पीछे थी.

यहाँ कुछेक घटनाओं का जिक्र कर भारत की महानता या उपलब्धियों का गुणगान करना उद्देश्य नहीं बल्कि यहाँ उद्देश्य उस मानसिकता का उजागर करना है जो दुनिया के सामने तो वैज्ञानिकता की आड़ लेकर अपने कुतर्कों को उचित ठहरती है लेकिन जब अपने घर में सुधारों की बात आये तो हर कोई एक परिवार के सामने नतमस्तक नज़र आता है.

आखिर क्यों एक परिवार विशेष के व्यक्तियों और उसमे नवागंतुकों को सामान्य से अलग देखा जाए? धर्म के ठेकेदारफिर किस आधार पर कह सकते हैं की दुनिया में हर कोई एक समान किस्मत लेकर आता है? यहाँ वैज्ञानिकता कहाँ चली जाती है? फिर तो यहाँ बन्शानुगत श्रेष्ठता पर बल देने वाला लैमार्कवाद की ही पुष्टि होती है.
ब्रिटेन में केट-विलियम के बच्चे को अपने को सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह हमेशा अपने-अपने क्षेत्र के महारथियों से घिरा रहेगा। आखिर ये सब उसे सोने की थाली में परोस कर क्यों दिया जायेगा? इसलिए की उसके पूर्वजों ने ब्रिटेन की भूमि को किसी विदेशी शक्ति के हाथों में नहीं जाने दिया गया और छल-कपट से साम्राज्य को इतना बड़ा कर दिया की उसमे सूरज ही नहीं डूबता था? अगर भूभाग जीतना ही महानता का पैमाना होता तो दुनिया मेंगाँधी और मंडेला न पूजे जाते।

लोगो अपने कार्यों से अपने कुल/परिवार/राष्ट्र और अपना नाम रोशन करते हैं यहाँ नवजात बच्चे ने बिना कुछ किये 'जार्ज', अलेक्जेंडर', और 'लुई' के कार्यों की उपलब्धियां हासिल कर ली. और पूरा ब्रिटेन उसके लिए पलकें बिछाए है.

अंत में 1685 में फंसी के तख़्त पर खड़े अंग्रेज नागरिक राम्बोल्ड की
 बात से अपनी बात समाप्त करूँगा-
"मैं नहीं मान सकता की ईश्वर ने कुछ लोगों को दुनिया में इस प्रकार तैयार करके भेजा है की वे हमेशा सवारी गांठे और करोडो लोगों को इसलिए भेजा है की वे घोड़ों की तरह हमेशा उनका बोझ ढोने के लिए तैयार रहें"

सोमवार, 15 जुलाई 2013

एक तार जो पहुँच न सका


अंग्रेजी राज का सहायक 
अंग्रेजी राज ने तार की शुरुआत भारत में
अपने किलों को सुरक्षित रखने के लिए की थी। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दबाने में अंग्रेजो का अगर किसी ने बखूबी साथ दिया था तो वो तार की सक्रियता ही थी। अंग्रेज हमारे प्रयास को दबाने में सफल हो गए।
तार के माध्यम से कोई सन्देश दस से पंद्रह मिनट में एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जा सकता था। इसमें और पारंपरिक डाक भेजने में जो समय की बचत होती है वो डाक के भौतिक रूप से चलने के कारण होती है। मतलब तार को एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए किसी रेल या मोटर गाड़ी की यात्रा नहीं करनी पड़ती। यह सीधे विद्युत तरंगो से अपनी यात्रा कर ये समय बचा लेता था।

तार की अंतिम यात्रा की खबर मैंने शायद सबसे पहले टेलीग्राफ या गार्जियन अखबार वेबसाइट में 10-11 जून के आसपास पढ़ी, जिसमे इसके इतिहास पर हलकी सी चर्चा करते हुए इसके 15जुलाई तक चलने की बात कही गयी थी। तब मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि 15 जुलाई निकल चुकी है और मैं इसके 162-63 साल के इतिहास का हिस्सा बनने से चूक गया। लेकिन एक-दो दिन में जब इसकी चर्चा लगभग सभी समाचार माध्यमो में होने लगी तो याद आया की अभी तो जून चल रहा है और जुलाई तो आने वाली है। मैं हमेशा से ही कम से कम एक बार तार भेजने का अनुभव लेना चाहता था तो तुरंत मैंने अपने एक मित्र को फोन घुमाया और तारों की अदला-बदली के लिए 26 जून के बाद कोई भी डेट फिक्स कर ली। 26 के बाद मुझे झाँसी होते हुए घर जाना था। अपने जिले में टेलीग्राम ऑफिस होने या न होने के रिस्क से बचने के लिए मैंने झाँसी से दिल्ली में बैठे अपने मित्र को 28 जून की तार भेजा। अन्य सरकारी दफ्तरों के विपरीत टेलीग्राम ऑफिस में सन्नाटा था। सन्देश लिखने लिए जो फॉर्म मुझे दिया गया उसमें हर शब्द के लिये एक आयताकार खाना था और ऐसे खानों की संख्या कोई 32-35 रही होगी लेकिन मैंने इतने में ही लगभग 39-40 शब्द 'एडजस्ट' कर दिए और ₹70 का भुगतान किया।
'अपने तार' से बिदाई का गम 
अगले दिन से ही तार का जबाब मिलने का इंतज़ार करने लगा। मेरे मित्र की ये शर्त थी की वे मेरे सन्देश के अनुसार ही जबाब भेजेंगे। मतलब जब उन्हें मेरा तार मिलेगा तब वे मुझे तार भेजेंगे।
 दिन बीतते गए लेकिन मेरा तार दिए हुए पते पर न पहुँच सका। अब तार भेजने की अंतिम सीमा पार हो चुकी है। अब इतना तो तय है कि मैं तार प्राप्त नहीं कर पाऊंगा। इसके लिए मैं बीएसएनएल और अपने मित्र दोनों को दोष दूंगा। बीएसएनएल ने जहाँ अपना कार्य ढंग से नहीं किया तो मित्र महोदय अपनी शर्त के साथ
बैठे रहे।
खैर, मैं तो तार भेजकर इतिहास बनते हुए इसके एक अध्याय में कहीं चिपकने में सफल हो गया लेकिन कोई तार प्राप्त नहीं कर पाया तो लगता है कि इसके गौरवशाली इतिहास के सिर्फ आउटगोइंग वॉल्यूम में जगह बना पाया, इनकमिंग वॉल्यूम में नहीं...

क्या आपने भी किसी को तार भेजा है और क्या वो पहुंचा है ...?

पुनश्च:
अब मैं पुनः पहले पैराग्राफ पर आता हूँ कि काश वर्तमान बीएसएनएल जैसा विभाग तब भी रहा होता और जैसे मेरे मित्र महोदय ने तार भेजने में "सक्रियता" दिखाई वैसी स्थिति अगर राज के समय में रही होती तो क्या अंग्रेज अपने राज को बचाने में सफल हो पाते ??? तो शायद हमारा स्वतंत्रता दिवस पंद्रह अगस्त न होता। लेकिन 1857 1857 था, तार तार था, बीएसएनएल बीएसएनएल है, हमारे मित्र श्रीश हैं। लेकिन इतिहास में if, but किन्तु परन्तु का स्थान नहीं होता।

चलते-चलते
बारिश की बूंदो से गीली धरती की भीनी-भीनी खुशबू के साथ दरवाजे की दहलीज़ पर दस्तक दे रहे सावन के सुहवने महीने में मित्र प्रभात द्वारा लिखी एक कविता की कुछ पंक्तिया-
तरवा न आई सखी, चिठिया न आई 
बीते जाए सवनवा, पिया घरवा न आई सखी...

(प्रभात भोजपुरी के 'अंकुरित होते हुए कवि' हैं और उनके अनुसार ये कविता कालजयी होने वाली है)

शनिवार, 6 जुलाई 2013

लोकतंत्र कैसा हो? उसमें जनता की भागीदारी कैसे बढ़े?

लोकतंत्र-जहाँ शक्तियां जनता में निहित होती हैं और उत्तरदायित्य भी 
लोकतंत्र की परिभाषाओं पर अगर गौर किया जाए तो अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी परिभाषा-"लोगों का, लोगों के लिए, लोगों द्वारा शासन" शायद सबसे
सटीक और प्रसिद्द है। लोकतांत्रिक प्रणाली के मूल में शासन का उत्तरदायित्य स्वयं जनता का ही आता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो व्यक्ति और समाज के लिए क्या कायदे-कानून होंगे इसका निर्णय जनता ही करती है।


लोकतंत्र-स्वतंत्रता, भागीदारी,विकल्प,अधिकार,प्रतिनिधित्व
लोकतंत्र के दो रूप प्रचलित है एक प्रत्यक्ष और दूसरा अप्रत्यक्ष। लोकतंत्र की सफलता उसमें जनता की भागीदारी पर करती है, उसका स्वरुप भले ही कुछ भी हो। जनता अगर स्वयं शासन  करने में सक्षम हो तो प्रत्यक्ष लोकतंत्र स्थापित हो सकता है लेकिन अगर जनता सक्षम न हो तो  फिर प्रतिनिधि लोकतंत्र ही संभव हो सकताहै। प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिए जनसंख्या आकर का जितना छोटा होगा उतना ही अच्छ रहेगा या फिर किसी बड़े भौगोलिक इकाई पर शासन करने के लिए उसे कई छोटे-छोटे भागों में बांटना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो ये किसी गावों की बहुलता वाले देश में ग्रामसभाओं को मजबूत करने जैसा है। सत्ता को विकेंद्रीकृत कर गांधी जी के ग्राम-स्वराज को लाया जा सकता है। भारत में पेसा-1996 (Panchayat Extension to Scheduled area Act) और फेरा-2006 (Forest Right Act) जैसे कानून इस दिशा में मज़बूत कदम हो सकते हैं। प्रत्यक्ष लोकतंत्र वैसे तो आदर्श स्थिति ही अधिक लगती है लेकिन फिर भी कुछ हद तक इसका प्रतिबिम्ब स्वित्ज़रलैंड में देखने मिलता है जहाँ कानून बनाने, उसमें संसोधन करने और किसी कनून को वापस (हटाने) करने से संबंधी मुद्दों पर जनता की राय ली जाती है। लेकिन वास्तविक रूप से प्रत्यक्ष लोकतंत्र वर्तमान में कहीं नहीं मिलता।

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की आलोचना करता हुआ एक कार्टून
ऐसी स्थिति में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को ही अधिक जन्नौमुखी बनाने की जरुरत है। उसमे जनता की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत है। वैसे तो भारत 65-66 साल के अपने इतिहास में कई गौरवमयी लोकतांत्रिक उपलब्धियों को समेटे हुए है लेकिन फिर भी 'लोकतंत्र के मंदिरों' {संसद/विधानमंडल} में बढ़ता बहुबल और धनबल भारत के नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से दूर कर रहा है। इस स्थिति को और बिगड़ने से पहले हमे कुछ कदम उठाने की जरूरत है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में अगर सुधारों की बात की जाये तो सबसे पहले मतदान को मूल कर्तव्यों में शामिल किया जाए। भले ही कर्त्तव्यों का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य नहीं होता लेकिन फिर भी कर्तव्य एक नैतिक दबाव तो डालते ही हैं। ऐसी ही अनुशंसा 2000 में गठित संविधान समीक्षा आयोग ने भी की थी। 
आर्थिक उदारीकरण के बाद में उच्च/मध्यम वर्ग के आकार में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है जिसकी चुनाव में निर्णायक भूमिका हो सकती है और है भी। ऐसा इसलिए कि एक यह वर्ग तो संख्या के हिसाब से और दूसरा ये वर्ग शिक्षित/जागरूक होने के कारण धर्म या जाति जैसे संकीर्ण मुद्दों से हटकर वोट कर सकता है। लेकिन अभी यह (उच्च/मध्यम) वर्ग दो कारणों से वोट डालने नहीं जाता-एक, वह सोचता है कि उसके पास पर्याप्त संसाधन है और सरकार के कार्यों का उसके जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं है, चुनाव लड़ने वाले से उसका सीधा संबंध नहीं है। फिर क्यों 'झंझट' में पड़ा जाए.!! दूसरा, जैसे-तैसे अगर वह पांच वर्षों में वोट डालने की हिम्मत भी करे तो चुनाव में उतरे प्रत्याशियों की 'आपराधिक पृष्ठभूमि' देखकर वह हताश-निराश होकर घर से नहीं निकलता।

भारतीय लोकतंत्र में चुनावी मुद्दे-आलोचना का कारण
मतदान न करने की इस समस्या से निपटने में (दिल्ली बलात्कार के मामले में गठित) न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति की वह सिफारिश महत्वपूर्ण हो सकती है जिसमें उन्होंने जन प्रतिनिधि कानून-1951 में अबिलम्ब संसोधन करते हुए प्रथम दृष्टया दोषी पाए गए (सेशन/जिला न्यालय में) व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराये जाने की बात की है, उच्च/सर्वोच्च न्यायलय में अंतिम अपील का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करना स्वच्छ लोगों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित  करेगा। दूसरे, अब अगर चुनाव लड़ने वाले सही हों तो जनता का ये कर्तव्य बनता है कि वो हर हालत में मतदान करे। इसके लिए मतदान के सभी संभव माध्यमो का उपयोग हो-पारंपरिक जैसे ईवीएम से मतदान, संचार के आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करते हुए इन्टरनेट या एसएमएस से, डाक से मतदान करना संभव बनाया जाए। लेकिन मतदान प्रतिशत अधिक करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। दुनिया में लोकतंत्र का सफल उदहारण माने जाने वाले अमेरिका में मतदान  करने के कई विकल्प होते हैं लेकिन फिर भी वहां 1972 के राष्ट्रपति चुनावों से किसी भी बार मतदान प्रतिशत 56-57 से अधिक नहीं रहा है, इस बार ये 57.1 प्रतिशत रहा। जो निश्चित ही अच्छा नहीं कहा जा सकता। भारत के हालात भी सही नहीं कहे जा सकते। यह 2009 लोकसभा चुनावों में 59.7% रहा। लोकसभा के लिए भारत में मतदान का अधिकतम प्रतिशत 1984 के चुनावों में 63.56 रहा था। अब प्रश्न उठता है- फिर क्या किया जाए?

हार नहीं, रार नई ठाननी होगी
इसके जबाव के लिए हमें थोडा कठोर होने की जरूरत है। मसलन लोकतंत्र  दो या दो से अधिक विकल्पों में से किसी एक सर्वश्रेष्ठ को चुनने की आज़ादी देता है और अगर आपको उन विकल्पों में कोई भी उपयुक्त नहीं है तो 'सभी को नकारने" का विकल्प भी होना चाहिए। (सभी को नकारने का विकल्प ईवीएम में नहीं है लेकिन पीठाशीन अधिकारी से चुनाव नियम सहिंता-1961 के नियम 49-O के तहत कोई मतदाता फॉर्म भर कर ऐसा कर सकता है). अब यहां कोई ऐसा विकल्प नहीं है जिसकी संभावना बनती हो। इतना होने के बाद भी अगर कोई लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भागीदारी कर अपने कर्त्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकता तो राज्य को ये शक्ति होनी चाहिए वो ऐसा करने वालों को कुछ सार्वजनिक सेवाओं से वंचित कर सके। जैसे उसे सब्सिडी का लाभ न दिया जाए। यह पेट्रोलियम या सार्वजनिक वितरण से संबंधित हो सकती है। हालांकि ये विकल्प थोड़े मुश्किल लग सकते हैं और ये व्यवहार्यता की कसौटी पर असहज भी हो सकते हैं लेकिन ऐसे ही अन्य संभावित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है।
'लोक' भागीदारी हो तो 'तंत्र' में परिवर्तन संभव है
लोकतंत्र की सफलता के लिए सिर्फ जनता के जागरूक होने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं की जागरूकता महत्व पूर्ण नहीं है लेकिन इसके लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ता है। अगर इंतज़ार किया गया तो चीजें और बिगड़ सकती हैं। कहीं ऐसा न तो कि तब तक लोकतंत्र बहुबल या धनबल की कठपुतली बन जाए। हमें हर हाल में लोकतंत्र के इन मंदिरों को पवित्र रखना है। 'संस्थागत पवित्रता' {Institutional Integrity- Hon,ble SC In PJ Thomas Case} सुनिश्चित करने के लिए सुधारों की ज़िम्मेदारी संसद और विधानसभाओं में बैठने वाले हमारे प्रतिनिधियों की तो है ही, लेकिन जनता भी अपने को कर्तव्यों से मुक्त नहीं कर सकती आखिर जो सुधार हम देखना लाना चाहते हैं उसकी शुरुआत हमसे ही होनी चाहिए। लोकतंत्र के मूल में तो जनता ही है।


शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

एक और (गेम चेंजर) लाली पॉप-खाद्य सुरक्षा

RTI,RTE,MgNREGA,DBT के बाद अब खाद्य सुरक्षा 
देश के लोगों को किस चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है, इसकी जानकारी अगर किसी पार्टी को है तो वो कांग्रेस के अलावा और कोई हो ही नहीं सकती। यूँ ही कांग्रेस ने 65 में से 55-56 साल शासन नहीं किया। अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से अगर पूछा जाए की कौन से किताब में इस तरह की मुफ्त रेवड़ियों को अर्थव्यवस्था में उत्पादक मानकर उनका समर्थन किया गया है, तो यकीन मानिये अर्थशास्त्र के जनक/कहे जाने वाले एडम स्मिथ (कोई जे एम कीन्स या चाणक्य को भी मान सकता है) को भी इसका जबाब देते नहीं बनेगा।
लेकिन फिर भी 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कृषि ऋण माफ़ करने के नाम पर मुफ्त लाली पॉप दिया गया। इसमें कितनी गड़बड़ी हुयी इस पर CAG की रिपोर्ट का जबाब पूरी कांग्रेस पार्टी को देते नहीं बन रहा है। इसी कड़ी में खाद्य सुरक्षा कानून को भी शामिल किया जा सकता है। अध्यादेश पारित होने के बाद देश में 67% परिवारों में प्रति सदस्य प्रति माह पांच किलो अनाज दिया जायेगा, जिसमें चावल तीन रूपए, गेहूँ दो रूपए और मोटा अनाज एक रूपए प्रति किलो के हिसाब से दिया जाएगा।

"कांग्रेस: चुनाव जीतने की मशीनरी"-एक पूर्व कैबिनेट सचिव 
देश भ्रष्टाचार-लोकपाल चिल्लाये तो दसियों संसद-सत्र जनता की आवाज़ सुनने को कम पड़ जाते हैं। लोकपाल पारित करने में (1967-68 से) 45 साल भी कम हैं और अभी भी लोकपाल "चर्चा" में है। किसी को अध्यादेश लाने की जल्दी नहीं है। क्यों? क्यों की एक सत्ता की कुर्सी तक पहुंचता है तो दूसरा जेल तक की यात्रा सुनिश्चित करता है।

अव्यवस्था नहीं रोकनी है 
वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में क्या-क्या खामियां है, इसे दोहराने की जरूरत  नहीं है। खुद योजना आयोग मनाता है की 58-60% PDS सीधे बाजारों में बेंच दिया जाता है(2005 में किये गए एक शोध के अनुसार). दूसरे निर्धनता रेखा से ऊपर के परिवार राशन कार्ड होने के बावजूद (गेहूं, चावल, तेल) कुछ भी लेने ही नहीं जाते। इस वर्ग के लोगों को PDS दुकान से सामान लाना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के विपरीत लगता है। फिर खाद्य सुरक्षा के नाम पर इस वर्ग को क्यों शामिल किया गया है? देश की 67 % आबादी को कवर करने वाले इस कानून में सरकारी हिसाब से ही अगर माना जाए तो आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से ऊपर (APL) वालों की होगी। अब उस वर्ग को भी निर्धनता के नीचे वालों (BPL)की श्रेणी में कर दिया गया है। जो लोग पहले ही अपने हिस्से का राशन लेने नहीं जाते थे उनके लिये अब और रियायत दी गयी है। मतलब कालाबाजारी करने वालों का पेट अब और अच्छे से भरेगा, नौकरशाही भी अधिक लाभ की स्थिति में आग जाएगी!! दो दशक से चल रहे आर्थिक सुधारों का ये फल है। यहाँ पर आज ही प्रकाशित हुयी सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की चर्चा भी जरूरी है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1994-2010 की कालावधि में गरीबी 16% घटी है। ऐसे में आखिर क्यों सामान्य परिवारों को भी लाली पॉप दी जा रही है? इन भिन्न-भिन्न आंकड़ो से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी सरकारें अपनी अक्षमताओं को छिपाने और राजनैतिक लाभ के लिए (बिना सोच-विचार किये) कोई भी कानून बना सकती हैं।
सब कुछ है फिर भी पहुँच से बाहर

यहाँ इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता की ये कुछ पक्तियां उल्लेखनीय हैं-
"...Political classes around the world know the art of throwing lollipops to fool and calm down people angry with their inability to govern. In the UPA's dictionary, you can spell lollipop as "lawlipop". It cannot address rural distress, so you have a law for employment guarantee. It cannot provide food for the hungry while the granaries are full, so you will be given a right to food law. Go eat that law if a corrupt political-bureaucratic-contractor nexus steals your grain. Now there will be a homestead law, and then, maybe a right to better nourishment act, and why stop there? A right to iron and folic acid law and, surely, a right to Vitamin D, since, as an eminent nominated member has already informed the Rajya Sabha, we Indians are widely deficient in the sunshine vitamin. You may find this facetious, but if you look at the record of the UPA and our Parliament in general, all ridiculous, unimplementable or sheer bad laws like these pass without debate. Nobody wants to be on the "other" side of a populist bad law..."

भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या कई अफ़्रीकी देशों से ज्यादा है 
यह ठीक है कि इतने प्रयासों के बाद भी भारत में 40-42% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इसे दूर करने के लिए उन्हें पूर्ण आहार मिलना जरूरी है। लेकिन पहले से ही मौजूद PDS की खामियों को दूर न कर एक नया कानून बना देना कहाँ तक बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जा सकता है? वर्तमान में प्रमुख आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन ने भी किसी नई प्रणाली/योजना के स्थान पर PDS की खामियों को दूर करने की बात की थी। कालाबाजारी रोकने के लिए श्रीलंका का उदाहरण दिया जा सकता है। जहाँ कूपन सिस्टम से जरूरी चीजें वितरित की जाती हैं। सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर 2006 में गठित वाधवा समिति ने भी कालाबाजारी/भ्रष्टाचार पर चिंता जताई थी। जिसे दूर करने के लिए इस नए क़ानून में कुछ भी नया या क्रांतिकारी नहीं है।