रविवार, 2 जून 2013

लोग, जिन्होंने (संवैधानिक/वैधानिक) संस्थाओं को पहचान दिलाई



भारतीय संविधान में कई ऐसी संस्थाएं हैं जिन्हें संविधान पूर्ण स्वायत्ता देकर संविधान और राष्ट्र की रक्षा का दायित्व डालता है वहीँ इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जो पूर्ण  स्वतंत्र तो नहीं है लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण हैं। इनमें कुछ संवैधानिक हैं तो कुछ वैधानिक दर्जे वालीं।

चुनाव आयोग और टी एन शेषन:-संवैधानिक संस्थाओं में अगर चुनाव आयोग को सबसे महत्वपूर्ण कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी क्योंकि लोकतंत्र स्वच्छ चुनावों पर निर्भर हैं और इसकी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर आती है। 1990 से आयोग और इसकी शक्तियों के बारे में आम लोग बहुत नहीं जानते थे। लेकिन दसवें चुनाव आयुक्त टी एन शेषन के कार्यकाल (Dec 1990-Dec1996) में लोग इससे परिचित हुए की स्वस्थ/निष्पक्ष चुनाव किसे कहते हैं। आचार सहिंता का पालन करना नेताओं के लिए कष्टकारी हो गया, जहाँ थोड़ी सी भी गड़बड़ी हुयी वहां पुनर्मतदान का आदेश दे दिया जाता। शेषन ने दिखा  दिया कि अगर आयोग अपनी शक्ति का प्रयोग करे तो "परिंदा भी पर न मार सके" वाली कहावत अक्षरश सही होती है। चुनाव आयोग की ये पहचान जे एम  लिंगदोह ने  बनाए रखी। उनके कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनावों का आयोजन और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से विवाद के बाद आयोग की शक्ति का एहसास हुआ, समय से पहले चुनाव करने की मांग लिंगदोह ने ठुकरा दी जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया। बाद में चुनाव आयोग की शक्ति का एक बार प्रदर्शन फिर एन गोपालस्वामी के कार्यकाल में देखने को मिला। गोपालस्वामी के कार्यकाल में बिहार के लोगों को लालू की गुंडई से मुक्ति मिली तो 2007 में उत्तरप्रदेश वालों को दद्दा के गुंडों से। हालांकि बाद में कुरैशी साहब ने भी अपने छोटे से कार्यकाल में जो भी चुनाव हुए वो निष्पक्षता  करवाए लेकिन आयोग की शक्तियों की वास्तविक समझ टी एन शेषन ने ही दी। टी एन शेषन ने 1997 में राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा और भाजपा का समर्थन भी हासिल किया लेकिन कांग्रेस ने दलित कार्ड खेलते हुए के. आर. नारायणन को प्रत्याशी बना दिया, शेषन चुनाव हार गए। कहने को तो बाद में जो भी चुनाव आयुक्त बनाये गए उन्होंने आयोग की शक्ति का उपयोग राष्ट्रहित में किया लेकिन  ने आयोग को "टेक ऑफ"  किया। शायद इसीलिए टी एन शेषन के कार्य  याद कियें जायेंगे।
लोकायुक्त और एन संतोष हेगड़े:-लोकायुक्त का पद संवैधानिक संस्था नहीं है। इसका गठन भारतीय प्रसाशनिक सुधार आयोग (1966-70) की अनुशंसा पर किया गया। 1971 में पहली बार भारत के किसी राज्य में लोकायुक्त नियुक्त किया गया और ये राज्य महाराष्ट्र था। फिर धीरे-धीरे अन्य राज्यों ने भी ऐसा करना शुरू कर दिया। लेकिन लोकायुक्त की शक्तियों को पहचान दिलाई कर्नाटक  में एन संतोष हेगड़े ने। हेगड़े की कार्यवाही में तत्कालीन मुख्यमंत्री को जेल जाना पड़ा।  एन संतोष हेगड़े ने भ्रष्टाचार के जो मामले उजागर किये उसके जो परिणाम हुए वे हमारे सामने हैं।
भारतीय प्रेस परिषद और मार्कंडेय काटजू:-ऐसे ही 1966 में गठित भारतीय प्रेस परिषद को पहचान दिलाई वर्तमान अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू साहब ने। कहते हैं पहले तो प्रेस परिषद् के पास बोलने के लिए जुबान भी नहीं थी लेकिन काटजू साहब ने इसे बोलने लायक बनाया, भले ही काटने के लिए अभी दांत न उगे हों।
सीवीसी और विवादस्पद नियुक्ति:-अब बात एक अन्य संस्था केंद्रीय आयोग की। CVC का 1962 में बनी संथानम कमेटी की अनुशंसा पर 1964 में हुआ और 2003 में इसे वैधानिक दर्ज़ा दिया गया। लेकिन औरों के विपरीत इसे विख्यात इस संस्था पर बैठे इसके प्रमुख के कार्यों ने नहीं बनाया बल्कि इसे  पहचान दिलाई इसपर होने वाली विवादस्पद नियुक्ति ने। जब सुप्रीम कोर्ट में सरकार पराजित हुयी तब आम लोगों को एहसास हुआ कि भ्रष्टाचारियों पर निगाह रखने के लिए  CVC जैसी भी कोई संस्था होती है।
कैग और विनोद राय:-अब अगर बात करें भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानि कैग की। तो इसको चर्चा में लाने वाले सबसे पहले वी नरहरी राव थे  जिहोने भारत के प्रथम घोटाले,जीप घोटाले को उजागर किया। तत्कालीन रक्षामंत्री ने लेख परिक्षण   के नाम पर शासन चलाने का आरोप लगाया। दूसरी बार ये संस्था ए के रॉय के कार्यकाल में चर्चा में आई जब 1962 युद्ध में नार्थ ईस्ट फ्रतियर की पराजय में रक्षा तैयारियों में पूरी गंभीरता न दिखने, उच्च गुणबत्ता की बस्तुएं न खरीदने जैसे आरोप लगाये और रक्षा मंत्री के इस्तीफे के साथ इस विवाद का अंत हुआ।
लेकिन 1984-1990 तक कैग के पद पर रहने वाले टी एन चतुर्वेदी का कार्यकाल सबसे रोचक रहा। और हो भी क्यों न क्योकि वह टी एन चतुर्वेदी हीथे जिन्होंने वी पी सिंह के रक्षा मंत्री रहते हुए भारतीय राजनीति में भूचाल लाने वाले बोफोर्स तोप की खरीद में घोटाले को उजागर किया। लेकिन टी एन चतुर्वेदी की ये लोकप्रियता उस समय कम हो गयी जब बोफोर्स सम्बन्धी रिपोर्ट संसद के पटल पर रखे जाने से पहले ही मीडिया में लीक हो गयी और अगले दिन ही उन्होंने कैग से इस्तीफ़ा देकर राजनैतिक पार्टी से   जुड़ गए और चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गए। कैग को एक बार फिर सुर्ख़ियों में लाने वाले निवर्तमान कैग विनोद राय हैं जिनके 1.76 और 1.86 लाख करोड़ के घपलों के आंकड़ो में लोग अक्सर एक-दो शून्य रखने की गलती करदेते हों लेकिन इन आंकड़ों को अंतिम पंक्ति में पंक्ति में खड़ाअंतिम व्यक्ति भी जानता होगा। राय ने विना आलोचना की परवाह किये निडरता और निष्क्षता से अपना काम किया और हमें बता दिया की कैग सिर्फ अकाउंटेंट नहीं है बल्कि  उसे भी कुछ शक्तियां प्राप्त हैं। सुप्रीम कोर्ट के शब्दों में  कहा जाये तो कैग मुनीम नहीं है। विनोद राय इसी महीने की 23 तारिख को सेवानिवृत हुए उनका ये कार्यकाल 2008 से शुरू हुआ था। विनोद राय को संयुक्त राष्ट्र में लेख परिक्षण की समिति का दिसंबर 2012 में  दूसरी बार प्रमुख नियुक्त किया गया।