सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

"राम" हमारे मन में हैं ...

दशहरा फिर आ गया। वो तो आना ही था समय बीतता जायेगा और दशहरा आता ही रहेगा, साल-दर-साल।
हर बार हम रावण को मारने का संकल्प लेते है, और प्रतीकात्मक रूप में उसके पुतले का दहन करते भी है, खुद 'असली राम' बन जाते है। लेकिन फिर भी समाज में हर रोज़ नए-नए एक नहीं अनेक रावण आ जाते है।'एक से दो, दो से चार, चार से...!!! इतनी तेज़ी से बढ़ते हुए रावणों के लिए इतने राम कहा से लाये जाए? इस पर एक प्रसिद्द गीत भी है-
कलयुग बैठा मार कुण्डली जाऊं तो मैं कहा जाऊं,
अब हर घर में रावण बैठा, इतने राम कहाँ से लाऊं..?
यहाँ पर व्यक्ति की हताशा झलक रही है, वह निराश है, बुरी व्यवस्था को सुधरने के लिए दूसरो के भरोसे है। जबकि समाज में अच्छाई की स्थापना के लिए किसी और के भरोसे रहना कहाँ तक सही है इसका फैसला मैं आप पर ही छोड़ता हूँ।
लेकिन क्या वास्तव में समाज में खुलेआम घूम रहे रावणों के लिए हमें वाहर से राम लाने की जरूरत है? अगर ऐसा है तो फिर तो राम की कमी होना निश्चित है। अब क्या किया जाए.?
एक और गीत-
राम हृदय में हैं मेरे, राम ही धड़कन में हैं
राम मेरी आत्मा में, राम ही जीवन में हैं
राम हर पल में हैं मेरे, राम हैं हर श्वास में
राम हर आशा में मेरी, राम ही हर आस में


  राम ही तो करुणा में हैं, शान्ति में राम हैं
  राम ही हैं एकता में, प्रगति में राम हैं
  राम बस भक्तों नहीं, शत्रु की भी चिंतन में हैं
देख तज के पापी  रावण, राम तेरे मन में हैं
राम तेरे मन में हैं, राम मेरे मन में हैं


राम तो घर घर में हैं, राम हर आँगन में हैं
मन से रावण जो निकाले, राम उसके मन में हैं
 ...
इस गीत में राम के हर उस व्यक्ति में होने की बात की गयी है जो स्वयं अपने में से बुराइयों को निकलता है। सामाजिक मूल्यों में गिरावट आ रही है, न सिर्फ सामाजिक पारिवारिक बल्कि रिश्ते भी गौण हो रहे है। परिवार और समाज फेसबुक और ट्विटर पर सिमिट गया है। समाज जाए भाड़ में, मेरे लिए अच्छा क्या होगा, वही सही है। रावण के लिए भी उसकी लंका ही सब कुछ थी। इस प्रकार के रावणों को मारने के लिए वाहर से, आयात किये हुए राम की जरूरत नहीं है। हम सिर्फ क्षणिक लाभ की न सोचें, अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सीखें, अपने मित्रों, पड़ोसियों से कोई प्रतियोगिता का भाव न रखे, उनसे बैर न रखे। समाज में व्याप्त बुराइयों से लड़ने की स्वयं ठाने। गाँधी जी भी का प्रसिद्द कथन है-"परिवर्तन की शुरुआत हम से ही होती है...", जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर ने भी कहा था, अप्पदीपो भव अर्थात् आत्मदीप बनें। स्वयं को प्रकाशित करें, अपना रास्ता स्वयं बनावें। जो भी बुराइयां हम में हैं उनको कम से कम करने का प्रयास करे तो शायद हम अपने अन्दर के रावण पर कुछ नियंत्रण रख सकते है।


बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

तुम मेरी पीठ सहलाओ, मैं तुम्हारी सहलाता हूँ...

तुम मेरी पोल न खोलना, मैं तुम्हारी नहीं खोलूँगा..!!!


स्कूली शिक्षा का दौर हो या विश्वविद्यालयी शिक्षा, जाने-अनजाने में वहां के अध्यापकों को ये एहसास हो ही जाता की लड़कों/लड़कियों से एक दूसरे की कमियाँ जानना, उनके बीच क्या गपशप चल रही है, उनकी पोल लेना बहुत मुश्किल है। इसी अनुभव के आधार पर हमारे संस्थान के आनंद सर अक्सर ये जुमला इस्तेमाल करते है, कि कही ऐसा तो नहीं कि आप (छात्र) लोग मिलकर एक-दुसरे की पीठ खुजलाते की परम्परा पर चल रहे हो।

    ये तो हुयी छत्रो की बात अब अगर आप वर्तमान भारतीय राजनीति के घटनाक्रम पर नज़र डाले तो ऐसा ही कुछ यहाँ भी देखने को मिलेगा। बात शुरू होती है महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार के इस्तीफे के साथ।  महाराष्ट्र में सिचाईं के लिए बनने वाले बांधों पर जनहित याचिका दायर करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता अंजलि दमानिया ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से मिलकर इस मुद्दे को उठाने की बात की लेकिन उनके अनुसार गडकरी के जबाब से वो चकित रह गयीं। नितिन गडकरी ने कहा- " आप ये कैसे मान सकती है कि ये मुद्दे हम उठायेंगे, चार काम वो (शरद पवार) हमारे करते हैं-चार काम हम उनके करते हैं....."
दूसरा वाकया तब हुआ जब अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर डी एल ऍफ़ के साथ सांठ-गांठ का आरोप लगाया। इसके तुरंत बाद हिमांचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने भी प्रियंका पर जमीन के लेन-देन से जुड़े मुद्दे पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया। लेकिन देखने वाली बात ये है कि जमीन की खरीद-फरोख्त्त राज्य के अधिकार में ही आता है ऐसे में धूमल को आरोप लगाने से पहले जांच के आदेश क्यों नहीं दिए.?
तीसरा, राबर्ट वाड्रा पर भाजपा का कहना है की उसने ये मामला 2011 में ही संसद में उठाया था। लेकिन सवाल उठता है की तब से क्या हो रहा था..? जब भाजपा ने अरविंद की आवाज़ में हाँ में हाँ मिलाने की कोशिश की तो दिग्विजय सिंह कहते है राजनैतिक पार्टिओं में ये आपसी सहमती (Mutual Understanding) होती है और होनी भी चाहिए कि वो एक-दूसरे के परिवार के सदस्यों के ऊपर कोई दोषारोपण नहीं करेंगी।
बकौल दिग्विजय, अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उनके दामाद रंजन भट्टाचार्य और आडवाणी के बेटे-बेटी के खिलाफ पर्याप्त सबूत थे लेकिन कांग्रेस ने उनके खिलाफ एक भी शब्द नहीं बोला। अब सवाल उठता है क्या इसी परम्परा का पालन भाजपा और अरविन्द को करना चाहिए..?
चौथा, सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट में हुयीं गड़बड़ियो का आरोप उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से आये हुए है और जिस जांच की मांग की जा रही है उसकी पूरी जिम्मेदारी समाजवादी पार्टी की सरकार पर आती है। प्रश्न फिर वही की क्या अखिलेश जांच के आदेश देंगे? अगर देंगे तो कितनी निष्पक्ष होगी इस पर भी संदेह है क्यों कि उनके पिता और सपा मुखिया मुलायम के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी बी आई ने जो याचिका दायर कर राखी है उसमे सरकारी वकील कि नियुक्ति पर पूरा नियंत्रण क़ानून मंत्री सलमान खुर्शीद का है ऐसे में एक दुसरे को लाभान्वित करने की बात फिर सामने आती है।
तो हुयी न राजनीति में भी एक दूसरे की पीठ सहलाने की बात, किसी की पोल न खोलने की बात.....

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

राम (अटल जी) के हनुमान (ब्रिजेश मिश्र)

 अटल बिहारी वाजपेयी को अघोषित रूप से "राम" और उनके प्रमुख सचिव एवं देश के पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रिजेश मिश्रा को घोषित रूप से "हनुमान " की संज्ञा बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल ने दी है।भारत के पूर्व राजनयिक और ब्रिजेश मिश्र के साथ काम कर चुके ललित मान सिंह ने इनको "आधुनिक चाणक्य" की संज्ञा दी है।

मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र के यहाँ जन्मे ब्रिजेश मिश्र ने 1951 में भारतीय विदेश सेवा के लिए चुने गए 1991 में सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने भाजपा की सदस्यता ले ली,लेकिन 1998 में सुरक्षा सलाहकार बनाए जाने से पूर्व ही वे इससे हट गए थे। ब्रिजेश मिश्र की भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा जी से कम ही पटती थी यही वजह थी कि उनको संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि पद से हटा लिया गया था। वही दूसरी ओर अटल बिहारी के सरां में प्राय: आने-जाने से उनमे आपसी मेलजोल पर्याप्त था। कहा जाता है कि अटल जी और ब्रिजेश मिश्र के लिए सरां एक मीटिंग ग्राउंड था। जब मिश्र सलाहकार के पद पर नियुक्त हुए उस समय भारत के सम्बन्ध विदेश नीति के स्तर पर बहुत परिपक्व नहीं कहे जा सकते थे। मिश्र ने अमेरिका को पहले की अपेक्षा अधिक महत्व देते हुए अमेरिका और रूस से मित्रता के लिए बीच का रास्ता निकाला, जिसे लेकर उनकी आलोचना भी हुयी। मिश्र के अनुसार पकिस्तान के साथ भारत के संबंधो का सामन्यी करण बहुत मुश्किल भरा है क्यों की वहां की सेना का अस्तित्व भारत विरोध पर ही टिका है ऐसे में सेना अच्छे सम्बन्ध कभी नहीं चाहेगी। पद गृहण के कुछ ही हफ्तों बाद जब भारत ने शक्ति श्रंखला नाम के पोखरण में परमाणु परिक्षण किये तो अन्य देशो द्वारा भारत पर प्रतिबंधो का सामना भी बड़ी सावधानी से किया, इसके बाद भारत के न्युक्लियर दक्त्राइएन में "नो फर्स्ट यूज" जैसी अवधारणा के पीछे मुख्य भूमिका निभाई। 1999 में कारगिल की घटना ने मिश्र को भारतीय सुरक्षा उपकरणों को जांचने की चुनौती पेश की। उन्होंने चीन, पकिस्तान और अमेरिका से सम्बन्ध को एक आयाम देने की कोशिश की। मिश्र के अनुसार संसद पर आतंकवादी हमले के बाद भारत ने पकिस्तान पर आक्रमण के लिए 7 जनबरी का दिन निश्चित किया था लेकिन अमेरिकी दवाव के कारण ऐसा न हो सका। अपने काम को समय से करने और देशहित को प्राथमिक उद्देश्य रखने वाले मिश्र ने भारत-अमेरिकी नाभिकीय करार का पहले विरोध किया लेकिन जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे व्यक्तिगत बातचीत में इसे समझाया तो वे इसके पक्ष में हो गए।
एक निजी टीवी चैनल पर साक्षात्कार के दौरान जब उनसे अटल बिहारी को भारत रत्न देने के बारे में पूछ गया तो उन्होंने बिना देर किये ऐसा करने के लिए कहा, साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि वे भारत में दो प्रधानमंत्रियों को ही महान मानते है जिसमे एक इंदिरा गाँधी और दूसरे अटल बिहारी। लेकिन दोनों में अटल बिहारी अधिक महत्वपूर्ण बताते हुए उन्होंने इंदिरा जी को तानाशाह की संज्ञा दी और अटल बिहारी को स्टेट्समेन बताया था जो सरकार में सभी की सुनते थे।
ब्रिजेश मिश्र को 2011 भारत के द्वितीय सर्वोच्च पुरुष्कार पदम् विभूषण से सम्मानित किया गया।