सोमवार, 10 दिसंबर 2012

विश्व शांति और वर्तमान परिदृश्य


विश्व शांति का अर्थ बहुत व्यापक है इसमें एक जीव से लेकर राष्ट्रों के मध्य सौहार्दपूर्ण, सह-अस्तित्व की कल्पना की जाती है विश्व शांति सभी देशों के बीच और उनके भीतर स्वतंत्रता, शांति और खुशी का एक आदर्श है. विश्व शांति में पूरी पृथ्वी पर अहिंसा स्थापित करने पर बल दिया जाता है, जिसके तहत देश या तो स्वेच्छा से या शासन की एक प्रणाली के जरिये इच्छा से सहयोग करते हैं, ताकि युद्ध को रोका जा सके. यद्यपि कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग सभी व्यक्तियों के बीच सभी तरह की शत्रुता की समाप्ति के लिए भी किया जाता है।     
       
            समय पर इसके प्रयास दुनिया के कई देशोँ के द्वारा किए गए जिनमेँ कुछ सफल हुए तो कुछ को असफलता हाथ लगी लेकिन विश्व शांति के उच्च आदर्श को प्राप्त न किया जा सका। विश्व शांति 20वीँ के बाद 21वीँ सदी की एक अपरिहार्य मांग बन गई है, विश्व शांति के लिए सर्वप्रथम व्यवस्थित प्रयास प्रथम विश्व युद्ध के बाद देखने को मिले जब लीग आफ नेशंस की विजेता मित्र राष्ट्रों द्वारा स्थापना की गयी लेकिन दुनिया में बहुत दिनों तक शांति कायम न रह सकी क्यों की जिन 14 शिद्धान्तो के आधार पर लीग आफ नेशंस की बुनियाद राखी गयी थी उनका पालन करना किसी ने उचित नहीं समझा, अपनी घरेलू राजनैतिक कारणों से अमेरिका इससे अलग रहा और विचारधारा विद्वेष के कारण तत्कालीन सोवियत संघ को इससे जानबूझकर इससे बाहर रखा गया था। फिर दुनिया ने एक और युद्ध देखा जिसमे मानवता शर्मसार हुयी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के नेताओं ने फिर प्रयास किये और संयुक्त राष्ट्र संघ अस्तित्व में आया। 
  
             लोकतंत्र समर्थक विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी देशोँ मेँ लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को अनिवार्य मानते हैँ जिसमेँ आमजन की सहमति से ही राष्ट्रप्रमुख का चुनाव होता है। अब चूँकि आम व्यक्ति शांतप्रिय होता है तो उसके द्वारा चुनी गई सरकार भी दूसरे देशोँ से कम ही झगड़ा मोल लेगी। चीन और उत्तर कोरिया के उदाहरणोँ के द्वारा ये अपनी बात को बल देने की कोशिश करते हैँ जहां लोकतंत्र नहीँ है। लेकिन इस सिद्धान्त के सबसे समर्थक देश अमेरिका ही अपने हितोँ के लिए सभी मर्यादाओँ को ताक पर रखने से कभी नहीँ चूकता। 
            
             लेकिन फिर भी लोकतंत्र निश्चित ही विश्व शांति के लक्ष्य की प्राप्ति में अन्य शासन प्रणालियों से बेहतर है। अमेरिका मेँ उसकी नीतियोँ को दूषित करने मेँ विकृत पूँजीवाद अधिक जिम्मेदार है।
इसी पूँजीवाद को विश्वशांति के लिए खतरा मानने बाले माक्स्रवादियोँ और साम्यवादियोँ का कहना है दुनिया के दोनों बड़े युद्ध पूंजीवाद और साम्राज्वाद के गठजोड़ के कारण लड़े गए। लेकिन हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए की शीत युद्ध में एक पक्ष और अफगानिस्तान संकट में सोवियत संघ कोई पूंजीवादी देश नहीं था। 

              आज के सन्दर्भ में आर्थिक कारण ही विश्व शांति लिए गंभीर खतरा बने हुए है। सोवियत संघ के पतन के बाद इतिहास के अंत की बात कही गयी लेकिन जल्द ही सभ्यताओं का संघर्ष का सिद्धांत भी आ गया जिसमे मोटे तौर पर धर्म को भविष्य के संघर्ष के केंद्र में रखा गया है। तेल की राजनीति और उद्योगों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता ने देशों के मध्य एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जो बड़ते बढ़ते युद्ध की स्थिति तक पहुँच गयी। फिर चाहे इराक या ईरान के बीच लड़ा गया खाड़ी का युद्ध हो या रासायनिक हथियारों के नाम पर अमेरिका द्वारा इराक पर हमला। इसी का ताज़ा उदाहरण है इजराइल का अमेरिका द्वारा उसके हर अनैतिक कामो का समर्थन। ब्रुकिंग्स इस्टीटयूसन इंटरनेशनल के एक सर्वेक्षण के मुताबिक उत्तरी अफ्रीका और अरब देशो की बहुसंख्यक आबादी इजराइल से नफरत करती है लेकिन उन देशो की अमेरिकी कठपुतली सरकारें इजराइल का समर्थन करती हैं। ऐसे में अगर अहमदीजेनाद अगर इजराइल को दुनिया के नक़्शे से मिटाने की बात कहे तो कहाँ तक विश्व शांति कायम रह सकती है।

            परमाणु हथियारों की होड़ ने भी शांति के लिए गंभीर चुनौती पेश की है, एक तरफ पांचो महाशक्तियां निशस्त्रीकरण पर बल देती है वही दूसरी ओर खुद इन पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहती है। एनपीटी हो या सीटीबीटी, जब तक भेदभावपूर्ण प्रावधान नहीं हटाये जाते तब तक निश्त्रिकरण का लक्ष्य महज़ एक सपना ही बना रहेगा। इरान के परमाणु कार्यक्रम को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

             पर्यावरण की समस्या भी विश्व शांति के लिए खतरा है। इस खतरे का एहसास सबसे ज्यादा तीसरी दुनिया और समुद्र तटीय द्वीपीय देशो को है। लेकिन दुर्भाग्यवश न तो विकसित और न ही भारत जैसे विकासशील देश इस खतरे के प्रति चिंतित दिखाई दे रहे है। क्योटो प्रोटोकोल की अवधी इसी वर्ष ख़त्म हो रही है और आने वाले सालो में ऐसी किसी संन्धी की सम्भावना नहीं दिखती।

             अगर किसी देश विशेष के दृष्टिकोण से देखा जाए तो अमेरिका,  इरान, चीन और उत्तर कोरिया को विश्व के लिए खतरा मानता है, पश्चिम एशिया के देश अमेरिका और इजराइल को खतरा मानते है, चीन के लिए अमेरिका खतरा है, पूर्वी एशिया के जापान वियतनाम और दक्षिण कोरिया जैसे देशो के लिए चीन खतरा है, भारत के हिसाब से पकिस्तान खतरा है, परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ लगते है तो सभी देश आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा मानते है। अगर इनके कारणों पर गौर किया जाए तो सोवियत संघ के पतन के बाद जापान, चीन और भारत जैसी शक्तियों का उदय होना है। अब जबकि नए-नए देश वैश्विक पटल पर अपनी पहचान बना रहे है तो ऐसे में अमेरिका को बुरा लगाना स्वाभाविक है। 
    धार्मिक दृष्टीकोण से इस्लामी जगत अमेरिका और उसके सहयोगियों को इस विश्व अशांति के लिए जिम्मेदार ठहराते है।
 देशों के मध्य सीमा विवाद भी कभी-कभी इस शांति के लिए खतरा बन जाते है। भारत-पकिस्तान, उत्तर-दक्षिण कोरिया विवाद, इजराइल-फलस्तीन विवाद जैसे विवादों को हम इसी परिप्रेक्ष्य में देख सकते है।
अब प्रश्न उठता है कि फिर वो कौन सा मार्ग होगा जिससे स्थयी शांति प्राप्त की जा सके? मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा है- "विश्व में मानवता को अगर बढ़ाना है, स्थाई शान्ति लानी है तो हमें गाँधी के बताये गए रास्ते पर ही चलना होगा". गाँधी जी का चिंतन रोटी (भौतिक) शील (नैतिक) और आत्मा (आत्मिक) तीनों की सही और उचित अनिवार्यता पर बल देता है, इस प्रकार के जीवन में सत्य और अहिंसा अनिवार्य है, जहाँ हर एक जीव का सम्मान किया जाता है। गाँधी जी ने इस प्रकार के जीवन की शुरुआत बच्चों से करने की बात कही है क्यों की अंततः उन्ही के कंधो पर देश और समाज की जिम्मेदारी आनी है। इस प्रकार से अगर हम देखे तो विश्व शांति सिर्फ उत्तर कोरिया, चीन या पकिस्तान को नियंत्रित आरके कायम नहीं की जा सकती बल्कि इसके मूल में मुक्त व्यापार के नाम पर जो प्रकृति का और संसाधनों को कुछेक देश दोहन कर रहे हैं, उस पर नियंत्रण होना चाहिए।


(रोटरी क्लब की पत्रिका के दिसंबर अंक में प्रकाशित लेख)

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