मंगलवार, 4 सितंबर 2012

हम भारत के लोग...

भारत ने स्वतंत्रता के बाद लोकतान्त्रिक, गणराज्य की शासन प्रणाली को अपनाया जिसका मतलब है की यहाँ लोगो के द्वारा चुनी हुयी सरकार होगी और यहाँ का प्रधान भी लोगो द्वारा ही चुना जायेगा। दुनिया के अन्य लोकतन्त्रों के संविधान की तरह ही हमारे भारत का संविधान भी "हम भारत के लोग..." से शरू होता है। यह संविधान की प्रस्तावना में है जो पूरे संविधान का एक दर्पण है, संविधान के सार को समझने के लिए अगर आप प्रस्तावना को ही पढ़ ले तो आप एक राज्य के मूल्यों और उद्देश्यों के बारे में एक मोटा-मोटा अनुमान लगा सकते है। जवाहर लाल नेहरु ने संविधान के इस भाग को "संविधान की आत्मा" कहा है। जिन शब्दों से संविधान की शुरूआत होती है उससे ये स्पष्ट हो जाना चाहिए की हम जिस राज्य में रह रहे है उसकी शक्ति का स्रोत इसकी अपनी जनता में निहित है। लोकतंत्र का जो भी प्रासंगिक रूप हम अपना सकते थे हमने अपनाया। लेकिन कुछ की नज़र (शासक वर्ग, पूंजीपति वर्ग) में यही "वास्तिविक लोकतंत्र" है जबकिकुछ(तथाकथित नक्सली) इसे "लोकतंत्र के नाम पर धोखा" मानते है।
      
       अन्ना और रामदेव के आंदोलनों के दौरान उन्होंने ये बात बार-बार दोहराई गयी कि भारत में राज्य की शक्ति का स्रोत जनता है, वही संप्रभु है, वही इस देश की मालिक है। और जब जानता कुछ मांग करे तो इसे मानना संसद की बाध्यता है। लेकिन दूसरी ओर लगभग सभी नेताओं (पार्टी लाइन से हटकर सभी में अदभुत एकता है) का कहना है कि जनता ने संसद में अपने प्रतिनिधियों को चुना है, अपनी शक्ति का प्रयोग वह इन प्रतिनिधिओं के माध्यम के से ही कर सकती है अतः जनता अपनी मांगो को "संसद पर थोप नहीं सकती" और ऐसा करना लोकतंत्र पर हमला है। यह बात सबसे पहले टीम अन्ना के सदस्य एवं सर्वोच्च न्यायलय के पूर्व न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े ने की थी। वहीँ दूसरी ओर एक सम्मलेन में बोलते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाड़िया का कहा कि (लोगों द्वारा) अपने को शक्ति का स्रोत कहकर कोई भी सरकार से अपनी बात मनवा सकता है, जो समाज, राष्ट्र, संविधान के लिए खतरनाक हो सकता है। यदि इसका बहुत ज्यादा गूढ़ अर्थ में न जाया जाए तो ये स्पष्ट  है कि वे भी संसद को ही सर्वोच्च मानते है, ना की जनता को। लेकिन जे एन यूं के प्रोफ़ेसर पुष्पेश पन्त के शब्दों में "ये ठीक है की संसद सर्वोच्च है, लेकिन संसद क्या सिर्फ ईंट-पत्थरों का भवन है, जिसे हम बिना कुछ कहे सर्वोच्च मान ले या ये जनता के उन नुमाइंदो से मिलकर बनती है, जो जनता की ही बात सुन ने को तैयार नहीं है।" कपिल सिब्बल जनता के इस तर्क को नकारते हुए कहते है आखिर देश की जनता के कितने प्रतिशत लोग ऐसी मांग करते है, इस पर पुष्पेश पन्त का कहना है बीज गणित और अंक गणित का हिसाब लगाने वाले इन मंत्रियों से अगर ये पूछा जाए की संसद में बैठने वाले 800 सांसद देश की जनसँख्या के कितने  प्रतिशत है तो इनका क्या जबाब होगा...?"
वास्तिविकता में देखा जाए तो सर्वोच्चता के प्रश्न पर संसद वनाम जनता का ये द्वन्द सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं ने अपने स्वार्थ वश ही पैदा किया गया है। संसद कानून निर्माण के लिए सर्वोच्च है इस पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए लेकिन उस संसद के मूल में हमेशा जनता ही होती है तो स्वाभाविक है की वास्तिविक शक्ति उसी में मानी जाए। अंत में मैं अब्राहम लिंकन के प्रसिद्ध कथन से अपनी बात समाप्त करना चाहता हूँ कि-लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार है" इससे भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि शक्ति किसमें है।










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