गुरुवार, 25 जुलाई 2013

ये (ब्रिटिशर्स) हमें सभ्य बनाने आए थे.!!

अंग्रेज भारत में आने और राज करने को ईश्वर का आदेश मानते थे. उनका मानना था कि दुनिया में ईसाई धर्म ही सबसे प्रगतिशील और मानव कल्याण करने वाला है अतः इसी के माध्यम से हम नए नए क्षेत्रों में लोगों को 'सभ्य' बनायेंगे। यूरोप में औद्योगिकीकरण के बाद नए नए उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई जिसमें इंग्लैंड अन्य यूरोपीयदेशों से अपेक्षाकृत कुछ कदम आगे निकल गया और उसने भारत जैसे धनवान देश पर साम-दाम-दंड-भेद
अपना कर अपना तम्बू ताना जो समय के साथ बढ़ता ही गया. 1833 के चार्टर से ईसाई धर्म प्रचारकों को अपने धर्म का प्रचार करने और लोगों को ईसाई बनाकर सभ्य बनाने का लाइसेंस मिल गया.

1857 में जब अंग्रेजो को अपने राज पर खतरा महसूस हुआ तो घबराए/बौखलाए हुए अंग्रेजों में से एक और कम्पनी
के नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष मैंगल्स ने ब्रिटिश संसद में कहा-" ईश्वर ने भारत का विशाल साम्राज्य अंग्रेजों को ईसामसीह की विजय पताका फहराने को दिया है है अतः प्रत्येक अंग्रेज को इसे बचाने में अपनी पूरी क्षमता लगा देनी चाहिए". मतलब बहाना धर्म प्रसार का था लेकिन उद्धेश्य कुछ और था.

सभ्य बनाने की इस कोशिश में अंग्रेजों ने यहाँ डाक-तार की शुरुआत की, रेलें चलाई, नए-नए विश्वविद्यालय खोले। सुधारों का ये क्रम 1857  बाद कुछ तेज़ होता हुआ प्रतीत भर हुआ क्योंकि सभ्य बनाना तो एक बहाना भर था अपने साम्राज्य की वैद्यता बनाये रखने के लिए. दरअसल उनका प्रमुख उद्देश्य यहाँ के संसाधनों से अपने देश की तिजोरियां भरना था. जॉन सुल्विन के अनुसार-"हमारी प्रणाली स्पंज की तरह कार्य करती है जो गंगा का पानी सोखकर टेम्स के किनारे बर्षा करती है". बाद  स्पष्ट हो गया की अंग्रेज अगर यहाँ मुस्कराते भी थे  इसमें उनके अपने हित थे.

कुछ औपनिवेशिक दृष्टिकोण वाले इतिहास कारों के मतानुसार अगर अंग्रेज भारत न आये होते तो यहाँ मध्ययुगीन इस्लामी राजशाही ही बनी रहती जिसमे हिन्दू प्रजा शोषित होती और अन्य इस्लामी देशों के सामान यहाँ भी गणतंत्र-लोकतंत्र न पनपता।

इस मानसिकता के इतिहासकार अंग्रेजों के राज को सही ठहराते वक़्त ये भूल जाते हैं इतिहास में "ऐसा न होता तो वैसा होता" का स्थान नहीं होता। अतः अंग्रेज न आये होते तो हम कैसी हालत में होते? ये प्रश्न समय की बर्बादी  ज्यादा कुछ नहीं है.

दुनिया को सभ्य बनाने निकले इन परोपकारी ठेकेदारों से पूछा जाना चाहिए की ये खुद प्रकृति के किस नियम के तहत एक परिवार की गुलामी कर रहें हैं? सपेरों और बाबाओं के देश भारत ने राजव्यवस्था की गणतंत्रात्मक पद्दति अपना ली लेकिन ब्रिटेनवासियों ने क्या किया। स्त्रियों को जहाँ दुसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था उस देश ने 1966 में ही एक महिला को देश का नेतृत्व दे दिया और सभ्यता के ठेकेदारों की घडी इस मामले में बारह-तेरह साल
पीछे थी.

यहाँ कुछेक घटनाओं का जिक्र कर भारत की महानता या उपलब्धियों का गुणगान करना उद्देश्य नहीं बल्कि यहाँ उद्देश्य उस मानसिकता का उजागर करना है जो दुनिया के सामने तो वैज्ञानिकता की आड़ लेकर अपने कुतर्कों को उचित ठहरती है लेकिन जब अपने घर में सुधारों की बात आये तो हर कोई एक परिवार के सामने नतमस्तक नज़र आता है.

आखिर क्यों एक परिवार विशेष के व्यक्तियों और उसमे नवागंतुकों को सामान्य से अलग देखा जाए? धर्म के ठेकेदारफिर किस आधार पर कह सकते हैं की दुनिया में हर कोई एक समान किस्मत लेकर आता है? यहाँ वैज्ञानिकता कहाँ चली जाती है? फिर तो यहाँ बन्शानुगत श्रेष्ठता पर बल देने वाला लैमार्कवाद की ही पुष्टि होती है.
ब्रिटेन में केट-विलियम के बच्चे को अपने को सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं करना पड़ेगा, वह हमेशा अपने-अपने क्षेत्र के महारथियों से घिरा रहेगा। आखिर ये सब उसे सोने की थाली में परोस कर क्यों दिया जायेगा? इसलिए की उसके पूर्वजों ने ब्रिटेन की भूमि को किसी विदेशी शक्ति के हाथों में नहीं जाने दिया गया और छल-कपट से साम्राज्य को इतना बड़ा कर दिया की उसमे सूरज ही नहीं डूबता था? अगर भूभाग जीतना ही महानता का पैमाना होता तो दुनिया मेंगाँधी और मंडेला न पूजे जाते।

लोगो अपने कार्यों से अपने कुल/परिवार/राष्ट्र और अपना नाम रोशन करते हैं यहाँ नवजात बच्चे ने बिना कुछ किये 'जार्ज', अलेक्जेंडर', और 'लुई' के कार्यों की उपलब्धियां हासिल कर ली. और पूरा ब्रिटेन उसके लिए पलकें बिछाए है.

अंत में 1685 में फंसी के तख़्त पर खड़े अंग्रेज नागरिक राम्बोल्ड की
 बात से अपनी बात समाप्त करूँगा-
"मैं नहीं मान सकता की ईश्वर ने कुछ लोगों को दुनिया में इस प्रकार तैयार करके भेजा है की वे हमेशा सवारी गांठे और करोडो लोगों को इसलिए भेजा है की वे घोड़ों की तरह हमेशा उनका बोझ ढोने के लिए तैयार रहें"

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