सोमवार, 15 जुलाई 2013

एक तार जो पहुँच न सका


अंग्रेजी राज का सहायक 
अंग्रेजी राज ने तार की शुरुआत भारत में
अपने किलों को सुरक्षित रखने के लिए की थी। 1857 में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दबाने में अंग्रेजो का अगर किसी ने बखूबी साथ दिया था तो वो तार की सक्रियता ही थी। अंग्रेज हमारे प्रयास को दबाने में सफल हो गए।
तार के माध्यम से कोई सन्देश दस से पंद्रह मिनट में एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाया जा सकता था। इसमें और पारंपरिक डाक भेजने में जो समय की बचत होती है वो डाक के भौतिक रूप से चलने के कारण होती है। मतलब तार को एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए किसी रेल या मोटर गाड़ी की यात्रा नहीं करनी पड़ती। यह सीधे विद्युत तरंगो से अपनी यात्रा कर ये समय बचा लेता था।

तार की अंतिम यात्रा की खबर मैंने शायद सबसे पहले टेलीग्राफ या गार्जियन अखबार वेबसाइट में 10-11 जून के आसपास पढ़ी, जिसमे इसके इतिहास पर हलकी सी चर्चा करते हुए इसके 15जुलाई तक चलने की बात कही गयी थी। तब मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगा कि 15 जुलाई निकल चुकी है और मैं इसके 162-63 साल के इतिहास का हिस्सा बनने से चूक गया। लेकिन एक-दो दिन में जब इसकी चर्चा लगभग सभी समाचार माध्यमो में होने लगी तो याद आया की अभी तो जून चल रहा है और जुलाई तो आने वाली है। मैं हमेशा से ही कम से कम एक बार तार भेजने का अनुभव लेना चाहता था तो तुरंत मैंने अपने एक मित्र को फोन घुमाया और तारों की अदला-बदली के लिए 26 जून के बाद कोई भी डेट फिक्स कर ली। 26 के बाद मुझे झाँसी होते हुए घर जाना था। अपने जिले में टेलीग्राम ऑफिस होने या न होने के रिस्क से बचने के लिए मैंने झाँसी से दिल्ली में बैठे अपने मित्र को 28 जून की तार भेजा। अन्य सरकारी दफ्तरों के विपरीत टेलीग्राम ऑफिस में सन्नाटा था। सन्देश लिखने लिए जो फॉर्म मुझे दिया गया उसमें हर शब्द के लिये एक आयताकार खाना था और ऐसे खानों की संख्या कोई 32-35 रही होगी लेकिन मैंने इतने में ही लगभग 39-40 शब्द 'एडजस्ट' कर दिए और ₹70 का भुगतान किया।
'अपने तार' से बिदाई का गम 
अगले दिन से ही तार का जबाब मिलने का इंतज़ार करने लगा। मेरे मित्र की ये शर्त थी की वे मेरे सन्देश के अनुसार ही जबाब भेजेंगे। मतलब जब उन्हें मेरा तार मिलेगा तब वे मुझे तार भेजेंगे।
 दिन बीतते गए लेकिन मेरा तार दिए हुए पते पर न पहुँच सका। अब तार भेजने की अंतिम सीमा पार हो चुकी है। अब इतना तो तय है कि मैं तार प्राप्त नहीं कर पाऊंगा। इसके लिए मैं बीएसएनएल और अपने मित्र दोनों को दोष दूंगा। बीएसएनएल ने जहाँ अपना कार्य ढंग से नहीं किया तो मित्र महोदय अपनी शर्त के साथ
बैठे रहे।
खैर, मैं तो तार भेजकर इतिहास बनते हुए इसके एक अध्याय में कहीं चिपकने में सफल हो गया लेकिन कोई तार प्राप्त नहीं कर पाया तो लगता है कि इसके गौरवशाली इतिहास के सिर्फ आउटगोइंग वॉल्यूम में जगह बना पाया, इनकमिंग वॉल्यूम में नहीं...

क्या आपने भी किसी को तार भेजा है और क्या वो पहुंचा है ...?

पुनश्च:
अब मैं पुनः पहले पैराग्राफ पर आता हूँ कि काश वर्तमान बीएसएनएल जैसा विभाग तब भी रहा होता और जैसे मेरे मित्र महोदय ने तार भेजने में "सक्रियता" दिखाई वैसी स्थिति अगर राज के समय में रही होती तो क्या अंग्रेज अपने राज को बचाने में सफल हो पाते ??? तो शायद हमारा स्वतंत्रता दिवस पंद्रह अगस्त न होता। लेकिन 1857 1857 था, तार तार था, बीएसएनएल बीएसएनएल है, हमारे मित्र श्रीश हैं। लेकिन इतिहास में if, but किन्तु परन्तु का स्थान नहीं होता।

चलते-चलते
बारिश की बूंदो से गीली धरती की भीनी-भीनी खुशबू के साथ दरवाजे की दहलीज़ पर दस्तक दे रहे सावन के सुहवने महीने में मित्र प्रभात द्वारा लिखी एक कविता की कुछ पंक्तिया-
तरवा न आई सखी, चिठिया न आई 
बीते जाए सवनवा, पिया घरवा न आई सखी...

(प्रभात भोजपुरी के 'अंकुरित होते हुए कवि' हैं और उनके अनुसार ये कविता कालजयी होने वाली है)

4 टिप्‍पणियां:

  1. इस तार की कहानी कुछ ऐसे ही है जैसे कोई भी योजना सरकार लागू तो करती है लेकिन वह अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुचने में नाकाम रहती है । बहरहाल गलती सरकार की है या फिर पुरे तंत्र की यह तो बहस का विषय है । वैसे तार मुझ तक न पहुचने का दुःख मुझे भी है ।

    डाक तार विभाग की लापरवाही की वजह से ही हम इतिहास के पन्नों में जगह बनाने से रह गए ।

    इस भोजपुरी के 'अंकुरित होते कवि' की पूर्व - घोषित कालजयी रचना का इंतज़ार रहेगा ।

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  2. भाई साहब कालजयी तो अमित ने घोषित किया है ............फ़िलहाल रचना पूरी होते ही 'कालजयी' होने के लिए आपके समीक्षार्थ प्रस्तुत की जाएगी .........

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    1. प्रभात जी ये आप गलत आरोप लगा रहें हैं। आपने स्वयं कालजयी लिखने के लिए बोला था।

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  3. Mitr koi bat nhi tar sewa to bnd ho gyi pr msg sewa chalu h to usi lutf utha li pta nhi kb ye bhi bnd ho jaye

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