शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

एक और (गेम चेंजर) लाली पॉप-खाद्य सुरक्षा

RTI,RTE,MgNREGA,DBT के बाद अब खाद्य सुरक्षा 
देश के लोगों को किस चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है, इसकी जानकारी अगर किसी पार्टी को है तो वो कांग्रेस के अलावा और कोई हो ही नहीं सकती। यूँ ही कांग्रेस ने 65 में से 55-56 साल शासन नहीं किया। अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से अगर पूछा जाए की कौन से किताब में इस तरह की मुफ्त रेवड़ियों को अर्थव्यवस्था में उत्पादक मानकर उनका समर्थन किया गया है, तो यकीन मानिये अर्थशास्त्र के जनक/कहे जाने वाले एडम स्मिथ (कोई जे एम कीन्स या चाणक्य को भी मान सकता है) को भी इसका जबाब देते नहीं बनेगा।
लेकिन फिर भी 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कृषि ऋण माफ़ करने के नाम पर मुफ्त लाली पॉप दिया गया। इसमें कितनी गड़बड़ी हुयी इस पर CAG की रिपोर्ट का जबाब पूरी कांग्रेस पार्टी को देते नहीं बन रहा है। इसी कड़ी में खाद्य सुरक्षा कानून को भी शामिल किया जा सकता है। अध्यादेश पारित होने के बाद देश में 67% परिवारों में प्रति सदस्य प्रति माह पांच किलो अनाज दिया जायेगा, जिसमें चावल तीन रूपए, गेहूँ दो रूपए और मोटा अनाज एक रूपए प्रति किलो के हिसाब से दिया जाएगा।

"कांग्रेस: चुनाव जीतने की मशीनरी"-एक पूर्व कैबिनेट सचिव 
देश भ्रष्टाचार-लोकपाल चिल्लाये तो दसियों संसद-सत्र जनता की आवाज़ सुनने को कम पड़ जाते हैं। लोकपाल पारित करने में (1967-68 से) 45 साल भी कम हैं और अभी भी लोकपाल "चर्चा" में है। किसी को अध्यादेश लाने की जल्दी नहीं है। क्यों? क्यों की एक सत्ता की कुर्सी तक पहुंचता है तो दूसरा जेल तक की यात्रा सुनिश्चित करता है।

अव्यवस्था नहीं रोकनी है 
वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में क्या-क्या खामियां है, इसे दोहराने की जरूरत  नहीं है। खुद योजना आयोग मनाता है की 58-60% PDS सीधे बाजारों में बेंच दिया जाता है(2005 में किये गए एक शोध के अनुसार). दूसरे निर्धनता रेखा से ऊपर के परिवार राशन कार्ड होने के बावजूद (गेहूं, चावल, तेल) कुछ भी लेने ही नहीं जाते। इस वर्ग के लोगों को PDS दुकान से सामान लाना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के विपरीत लगता है। फिर खाद्य सुरक्षा के नाम पर इस वर्ग को क्यों शामिल किया गया है? देश की 67 % आबादी को कवर करने वाले इस कानून में सरकारी हिसाब से ही अगर माना जाए तो आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से ऊपर (APL) वालों की होगी। अब उस वर्ग को भी निर्धनता के नीचे वालों (BPL)की श्रेणी में कर दिया गया है। जो लोग पहले ही अपने हिस्से का राशन लेने नहीं जाते थे उनके लिये अब और रियायत दी गयी है। मतलब कालाबाजारी करने वालों का पेट अब और अच्छे से भरेगा, नौकरशाही भी अधिक लाभ की स्थिति में आग जाएगी!! दो दशक से चल रहे आर्थिक सुधारों का ये फल है। यहाँ पर आज ही प्रकाशित हुयी सयुंक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की चर्चा भी जरूरी है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1994-2010 की कालावधि में गरीबी 16% घटी है। ऐसे में आखिर क्यों सामान्य परिवारों को भी लाली पॉप दी जा रही है? इन भिन्न-भिन्न आंकड़ो से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारी सरकारें अपनी अक्षमताओं को छिपाने और राजनैतिक लाभ के लिए (बिना सोच-विचार किये) कोई भी कानून बना सकती हैं।
सब कुछ है फिर भी पहुँच से बाहर

यहाँ इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता की ये कुछ पक्तियां उल्लेखनीय हैं-
"...Political classes around the world know the art of throwing lollipops to fool and calm down people angry with their inability to govern. In the UPA's dictionary, you can spell lollipop as "lawlipop". It cannot address rural distress, so you have a law for employment guarantee. It cannot provide food for the hungry while the granaries are full, so you will be given a right to food law. Go eat that law if a corrupt political-bureaucratic-contractor nexus steals your grain. Now there will be a homestead law, and then, maybe a right to better nourishment act, and why stop there? A right to iron and folic acid law and, surely, a right to Vitamin D, since, as an eminent nominated member has already informed the Rajya Sabha, we Indians are widely deficient in the sunshine vitamin. You may find this facetious, but if you look at the record of the UPA and our Parliament in general, all ridiculous, unimplementable or sheer bad laws like these pass without debate. Nobody wants to be on the "other" side of a populist bad law..."

भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या कई अफ़्रीकी देशों से ज्यादा है 
यह ठीक है कि इतने प्रयासों के बाद भी भारत में 40-42% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इसे दूर करने के लिए उन्हें पूर्ण आहार मिलना जरूरी है। लेकिन पहले से ही मौजूद PDS की खामियों को दूर न कर एक नया कानून बना देना कहाँ तक बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जा सकता है? वर्तमान में प्रमुख आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन ने भी किसी नई प्रणाली/योजना के स्थान पर PDS की खामियों को दूर करने की बात की थी। कालाबाजारी रोकने के लिए श्रीलंका का उदाहरण दिया जा सकता है। जहाँ कूपन सिस्टम से जरूरी चीजें वितरित की जाती हैं। सर्वोच्च न्यायलय के आदेश पर 2006 में गठित वाधवा समिति ने भी कालाबाजारी/भ्रष्टाचार पर चिंता जताई थी। जिसे दूर करने के लिए इस नए क़ानून में कुछ भी नया या क्रांतिकारी नहीं है।

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