सोमवार, 24 दिसंबर 2012

भारतीय राजनीति में "पुनर्जागरण के पुरोधा अटल जी" का योगदान

अटल जी के 89वें जन्मदिन पर उनको याद करते हुए...

अटल जी भारतीय राजनीति में पांच दशकों से भी अधिक समय तक रहे हैं इनमें से अधिकतर समय उन्होंने विपक्ष में बैठ कर गुजारा और सत्ता में लगभग 8 सालों तक रहे जिसमें 6 सालों तक प्रधानमंत्री भी रहे। अटल जी की प्रतिभा को पहचान कर पंडित जवाहर लाल नेहरु ने आरंभिक दिनों में ही ये कहा था की ये(अटल जी) राजनीति के शिखर तक जायेंगे। अटल जी ने राजनीति को साधन बनाकर देश की सेवा की। राजनैतिक क्षेत्र में ऐसे बहुत कम ही लोग होते हैं जो व्यवहार कुशल होने के साथ-साथ निर्विवाद भी हो। अटल जी ऐसे ही राजनेता हैं। अटल जी एक स्टेट्समैन हैं। जिनका कद उनकी पार्टी से भी बड़ा है।

      अटल जी ने भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को एक प्रमुख पार्टी बनाया जो जिसने उनके ही कार्यकाल में शून्य से शिखर तक सफ़र तय किया। इससे पहले तक कांग्रेस के अलावा विचारधारा के स्तर वामपंथी पार्टियाँ ही प्रमुख पार्टियाँ थी लेकिन संख्या की दृष्टि से वो संसद में हमेशा से ही कमजोर रही थी। अटल जी ने विपक्ष में रहते हुए हमेशा एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया। राष्ट्रहित की मुद्दों पर उन्होंने बिना किसी झिझक के अपने विरोधियों का भी साथ दिया। उनका मानना था की भले ही हम एक दूसरों के विचारों से असहमत हो लेकिन वैश्विक पटल पर हम एक है। अटल जी की इसी विशेषता के कारण चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में संयुक्त राष्ट्र में विपक्षी होते हुए भी उनको भारत का प्रतिनिधित्व के लिए भेजा गया।

      अटल जी ने भारत की विविधता को पहचाना। राज्यों को सत्ता में उचित भागीदारी कर, भारत में गठबंधन की राजनीति को सफलता पूर्वक राष्ट्रहित में चलाने के लिए भी अटल जी का योगदान अद्वितीय, अतुल्य है। यद्यपि भारत में उनसे पहले भी गठबंधन सरकारों का दौर रह चुका था, जनता सरकार भी ज्यादा दिन तक नहीं चल पायी, अन्य गठबंधन बहुत सफल नहीं हुए थे, वे गठबंधन कार्यक्रम के स्तर पर न हो कर सत्ता के लिए थे। उनमें से अधिकतर सत्ता की लालसा में चुनाव बाद बने थे। लेकिन अटल जी ने एक संयुक्त कार्यक्रम के आधार पर गठबंधन बनाया और चुनाव लड़कर पूरे पांच सालों तक बिना-किसी खींच-तान के 23-24 दलों की सरकार सफलतापूर्वक चलाई। वे हमेशा समन्वय, सौहार्दपूर्ण राजनीति पर बल देते थे। उनके अनुसार "लोकतंत्र 51 बनाम 49 का खेल नहीं है यह मूल्यों, परम्पराओं, सहयोग और सहिष्णुता के आधार पर सता में भागीदारी करने का तंत्र है, फिर चाहे हम सत्तापक्ष में हो या विपक्ष में"। भारत के प्रथम सुरक्षा सलाहकार दिवगंत ब्रजेश मिश्रा के अनुसार अटल जी का कद उनके सभी सहयोगियों, उनकी पार्टी से ऊंचा था लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी के विपरीत वे सभी की सुनकर निर्णय लेते थे।
 
     राजनीति में छींटाकशी आज इस इस स्तर तक पहुँच चुकी है कि अब नेताओं के पारिवारिक सदस्य और संबंध  इससे अछूते नहीं रह गए है, लेकिन अटल जी राजनीति में ने जैसे को तैसी नहीं  की बल्कि जैसी है वैसी ही सही की मान्यता पर जोर दिया। विरोधियों ने उन पर भले ही कितने आरोप लगाए हो लेकिन उन्होंने आलोचना की लक्षमण रेखा को नहीं लांघा। आजतक पर प्रभु चावला के साथ बात में गांधी-नेहरु परिवार पर कुछ न बोलने पर उन्होंने यही कहा था।

      अंतर्राष्ट्रीय संबंध अटल जी के प्रिय विषयों में से एक है। अगर विदेश नीति के संदर्भ में देखे तो इजराइल  से संबंधों की शुरुआत (विदेश मंत्री काल में), चीन के साथ संबंधों में सुधर और पाकिस्तान के साथ संबंधों का सामान्यीकरण की ओर बढ़ना उनकी प्रमुख उपलब्धि रही है।
जिस समय अटल जी प्रधानमंत्री बने उस समय घरेलू राजनीति के कारण देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि  बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती थी। अटल जी ने पारंपरिक  मित्र रूस से अच्छे संबंध जारी रखते हुए अमेरिका से भी संबंधों में गर्मजोशी लाने की शुरूआत की।
वैश्विक दबावों की चिंता ना करते हुए परमाणु परीक्षण किये और प्रथम प्रयोग  न करने की नीति  के  सिद्धांत से अन्य देशों को ये समझाने में कामयाब हुए की भारत के ये हथियार आत्मरक्षार्थ है न की दूसरों पर आक्रमण करने के लिए। उन्होंने दुनिया को भारत की भूमिका का एहसास कराया। वैश्विक पटल पर भारत की छवि को उभारने के कारण ही एक साप्ताहिक पत्रिका ने अटल जी को 60 महानतम भारतीयों में शामिल करते हुए पुनर्जागरण के पुरोधा  की संज्ञा दी है। एक अन्य पत्रिका और समाचार चैनल ने अटल जी को 10 महानतम भारतीयों की सूची में स्थान दिया है।
   
      अटल जी ने छात्र राजनीति (ये कम ही लोग जानते है कि अटल जी ने छात्र राजनीति की शुरुआत साम्यवादी SFI से की थी, छात्रसंघ अध्यक्ष भी वे SFI से ही रहे थे) के रूप में अपना राजनैतिक कैरियर शुरू किया। वे जन-नेता हैं, आम व्यक्ति उनसे अपना जुड़ाव महसूस करता है। इण्डिया टुडे पत्रिका द्वारा 2005-06 से कराये गए लगातार चार में से तीन सर्वेक्षणों जनता ने उन्हें प्रधानमंत्री की पहली पसंद बताया, अंतिम सर्वेक्षण में जब आमजन को ये एहसास हो गया की अटल जी अब सक्रीय राजनीति में नहीं लौट सकते तब भी वो दूसरे  स्थान पर ही बने रहे।
 वे जनता की नब्ज जानते थे। उन्होंने आम-जन तक अपनी बात पहुचाने के लिए हिंदी को मध्यम बनाया, उसे संयुक्त राष्ट्र के मंच से गौरवान्वित किया। प्रधानमंत्री बनने के बाद दिए गए अपने पहले इंटरव्यू जनता की दूरी की बात पर उनकी आँखों में आंसू आ गये थे। आधुनिक राजनीति में नेता और जनता के बीच में जो दूरी आई है उसे देखते हुए एक जन नेता के रूप में अटल जी का योगदान उल्लेखनीय है।
 
       अटल बिहारी के भारतीय राजनीति में उनके योगदान को देखते ही उन पर किताब लिख चुके जगदीश विद्रोही और बलवीर सक्सेना ने ठीक ही लिखा है- "अगर ये सच है कि देश की सेवा करने का सौभाग्य सभी को नहीं मिलता तो, ये भी उतना ही सच है की देश को भी अटल जी जैसे सपूत भी मुश्किल से ही मिलते है।"
     बढती उम्र, गिरते स्वस्थ के कारण आज अटल जी इस स्थिति में नहीं हैं कि वो देश में व्याप्त असंतोष पर कुछ बोल सकें। उनकी अंतिम तस्वीर 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के साथ जन्मदिन के अवसर पर ही मीडिया में आई थी। दिसंबर 2011 में मैं जब उनसे मिला तो ये मुलाक़ात तो मुझे निराश हुयी ये मुलाक़ात एकतरफ़ा थी क्यों की अटल जी अब कुछ बोलने या पहचानने में असमर्थ हैं। संसद में राजनीति को नयी परिभाषा देने वाले, हम सब के प्रिय राष्ट्रपुरुष कभी हमारे प्रधानमंत्री रहे थे ऐसा सोचकर निश्चित ही मन को संतोष होता है लेकिन भारत की वर्तमान दशा को देखकर उनकी याद भी आती है।

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