मंगलवार, 24 सितंबर 2013

राष्ट्रपति महोदय को पत्र: एक भावनात्मक निवेदन

आदरणीय राष्ट्रपति महोदय,

माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई 2013 को दिए गए निर्णय को सरकार द्वारा अध्यादेश के माध्यम, पलटने के प्रयास के संबंध में, मैं ये पत्र लिख रहा हूँ.
भारत में न सिर्फ राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली बल्कि पूरी की पूरी राजव्यवस्था के प्रति जो रोष आमजन में है उससे आप परिचित ही होंगे. लेकिन इस सबके बावजूद स्वत्रंत्रता दिलाने वाले आदर्शों और बाद में नेहरु जी या शास्त्री जी द्वारा स्थापित मानदंडो के भरोसे मुझे जैसे करोड़ों युवा भारत को बदलने के सपने के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में अपने पूर्वजों द्वारा खींची गई आदर्श रेखा पर चलने का प्रयास कर रहे है.
जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का सामना करने के बाद भी उम्मीद की इस किरण के साथ आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं कि आज नहीं तो कल स्थिति जरूर सुधरेगी. आलोचकों को स्थिति भले ही बाद से बदतर लगे लेकिन मेरे लिए अभी भी संसद "लोकतंत्र का मंदिर" है.
हम ऐसी संसद चाहते हैं जो महात्मा गाँधी या नेहरु जी सपनो के अनुरूप हो, हम शास्त्री जी जैसे मंत्री चाहते हैं जो महज़ एक दुर्घटना पर अपना त्यागपत्र देने को तैयार हो जाएं और हम ऐसी संसद चाहते हैं जिसमें लोकतंत्र महज़ 51 वनाम 49 का खेल न हो बल्कि मूल्यों और परम्पराओं के अनुरूप सभी मिलकर राष्ट्रनिर्माण के लिए योगदान करें. लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों की सदस्यता रद्द करने संबंधी सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय को पलटने के लिए जो मंज़ूरी दी है, उससे बुरा हमारे लिए कुछ हो ही नहीं सकता. अध्यादेश के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं ये संदेश दिया जा रहा है कि निचली अदालतें सही निर्णय नहीं सुनाती या सुना सकतीं हैं और सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय ही सही निर्णय करता है.

संसदीय सर्वोच्चता की आड़ में केंद्रीय मंत्रिमंडल का यह कार्य किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता.
महोदय, अब सब कुछ आप पर निर्भर है. हमारे लिए आप ही आशा की अंतिम किरण है. कृपया इस अध्यादेश को अपनी मंज़ूरी मत दीजिए. भारत को "गाँधी और नेहरु का भारत" बनाने का सपना देखने वाले मुझ जैसे करोड़ों आपकी ओर देख रहे है, निराश मत कीजिए.
इसी आशा के साथ …

आपका
भारतीय गणतंत्र का एक आम नागरिक

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